Monday, December 13, 2010
(राष्ट्रीय पोषण नीति १९९३)
भूतकाल में लोकतंत्र को राजनीतिक लोकतंत्र के रूप में पहचाना गया, जिसमे मोटे तौर पर एक व्यक्ति का एक मत होता है. किन्तु मत का उस व्यक्ति के लिए कोई मतलब नहीं होता जो निर्धन और निर्बल है, या जो भीख है और भूख से मर रहा है.
(पंडित जवाहर लाल नेहरु, २५ फ़रवरी १९५६)
जो गरीब लोग इधर से उधर भटक रहे हैं, जिनके पास कोई काम नहीं है, जिन्हें कोई मजदूरी नहीं मिलती और जो भूख से मर रहे हैं, जो निरंतर कचोटने वाली गरीबी के शिकार हैं, वे संविधान या उसकी विधि पर गर्व नहीं कर सकते.
(उप राष्ट्रपति डा. राधाकृष्णन)
Wednesday, May 26, 2010
भोजन बनाम् स्त्री सत्ता का सवाल
सचिन कुमार जैन
यदि राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा क़ानून भोजन के अधिकार को परिभाषित करते समय परिवार को ही अंतिम इकाई मानेगा तो निश्चित ही महिलाओं के लिए भुखमरी से मुक्ति का समय अभी नहीं आया है. समाज की मौलिक व्यवस्था में लिंग के आधार पर होने वाले भेदभाव का शिकार औरत हुई है. सामान्य रूप से सांस्कृतिक और सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था के सिध्दान्तों के आधार पर यही माना जाता है कि महिलायें उन्नति और जीवनयापन की प्रक्रिया में कोई उत्पादक भूमिका नहीं निभाती हैं। परन्तु वहीं दूसरी ओर इस तर्क का जवाब इन आंकड़ों से दिया जा सकता है कि खेतों में होने वाले कमरतोड़ काम का 75 फीसदी हिस्सा महिलाओं द्वारा किया जाता है। घरेलू कामों का जब उत्पादक के रूप में आर्थिक विष्लेषण होता है तो पता चलता है कि यदि महिलायें वह मेहनतभरी भूमिका निभाना बंद कर दें तो पूरी सामाजिक व्यवस्था तहस-नहस हो जायेगी, न केवल आर्थिक रूप से बल्कि सामाजिक रूप से भी। इसके बावजूद हमारे समाज में महिलाओं की स्थिति के आधार पर यह साफ है कि उनके साथ खानपान के मामले में भेदभाव किया जाता है। समाज ने पुरुष की सत्ता बनाने के लिए औरत और जिन तरीकों से कंजोर किया है, उनमे से एक उसे भूखा रखने की रणनीति भी रही है. औरत के साथ सब कुछ सम्मान के साथ होता है. उसकी वंदना भी सम्मान के साथ होती है और सम्मान के लिए हत्या भी, सम्मान के लिए बलात्कार भी होता है, और उसे बंधक भी बनाया जाट है. परिवार की एक आदर्श महिला वही होती है, जो सभी को खिलाने के बाद सबसे अंत में भोजन ग्रहण करे। ऐसे परिवारों में जहां पहले ही खाने की कमी होती है, वहां लड़के को लड़कियों से पहले खाना परोसा जाता है। घर में जो भी प्रमुख कमाने वाला होता है, वही सबके लिए भोजन बंटवारा तो नहीं करता है पर नीति उसी की बनाई हुई होती है। जिसका पालन दादी भी करती है, माँ भी और बेटी भी. लड़कियों को खानपान के मामले में हमेशा त्याग करने की सीख दी जाती है। जिन परिवारों में महिलायें कमाती हैं, वहां भी महिलाओं की कमाई पुरूष सदस्यों के ही हाथ में रखे जाने की परम्परा है। इसके अलावा घर में महिलाओं पर कामकाज का इस कदर दबाव होता है कि उन्हें भोजन करने के लिए भी पर्याप्त समय बामुश्किल से मिल पाता है। शोध के दौरान कई बार यह भी पाया गया कि महिलाएं सप्ताह में कई दिनों तक उपवास करती हैं, लेकिन इन उपवासों का कारण धार्मिक पर्व या अनुष्ठान नहीं, बल्कि भोजन की कमी होती है। वैसे धार्मिक रूप से भी महिलाओं के खानपान में कई तरह के निषेध बताए गये हैं। मिसाल के लिए विधवा महिलाओं को गरिष्ठ भोजन या प्याज, लहसुन और मांसाहार ग्रहण करने के लिए मना किया गया है। इसके पीछे सोच यही है कि जब पति ही नहीं रहे तो वह इन तामसिक वस्तुओं को भोजन में ग्रहण कर क्या करेगी? उसे तो धार्मिक रूप से सादा जीवन व्यतीत करना चाहिए। माना जाता है कि यदि महिलाएं तामसिक भोजन ग्रहण करें तो उनमें कामेच्छा जाग सकती है। आमतौर पर मासिक धर्म शुरू होने से पहले ही महिलाओं को अच्छा भोजन ग्रहण करने दिया जाता है, उसके बाद नहीं। तीसरा राष्ट्रीय परिवार स्वस्थ्य सर्वेक्षण इस तकलीफदेय सच्चाई को उजागर कर रहा है कि हमारे समाज में महिलाओं के शरीर में खून की कमी होती जा रही है। जहां आठ साल पहले मध्यप्रदेश में हर सौ में से 49.3 महिलायें खून की कमी से जूझ रही थीं, वहीं संख्या अब बढ़कर इस साल 57.6 हो गई है। महिलाओं के बिगड़ते पोषण के समीकरण में भेदभाव और उनके साथ होने वाला दोयम दर्जे का व्यवहार भी गंभीर भूमिका निभाता है क्योंकि इतनी बड़ी संख्या में पुरूष खून की कमी के शिकार नहीं हैं। अब 24.3 फीसदी पुरूष इस श्रेणी में आ रहे हैं।
गर्भावस्था के दौरान कई समुदायों में महिलाओं को खान-पान में कमी करने की हिदायत दी जाती है, क्योंकि ऐसी धारणा है कि भरपेट भोजन करने से गर्भ में पल रहे भ्रूण को हिलने-डुलने की जगह नहीं मिल पायेगी। एक और कारण यह भी है कि भरपेट भोजन से शरीर में मोटापे की समस्या पैदा हो जायेगी। और इसके कारण वह घर और खेतों में काम नहीं कर सकेगी। इसके अलावा गर्भावस्था के सातवें महीने में महिला के लिए विभिन्न प्रकार के आयोजनों की प्रथा भी तकरीबन सभी प्रांतों में कायम है। इसके तहत गर्भवती महिला के लिए आटा, मैदा, घी और ग्वारफली के बीज मिलाकर खास तरह की मिठाइयाँ बनाई जाती हैं। इस दौरान प्रसव के पूर्व तक महिला को यह सभी चीजें नियमित रूप से खानी पड़ती है। गर्भावस्था के समय महिला को दूध व इससे बनी वस्तुएं, मूंगफली तथा कोई भी चिपचिपा या सफेद पदार्थ, जैसे केला आदि खाने की मनाही रहती है, क्योंकि दाइयों का मानना है कि इन चीजों से कोख में बच्चे के ऊपर एक कवर आ जाएगा, जिससे प्रसव में देरी होगी। बाजरा और पपीते जैसी चीजें भी गर्म मानकर महिला को नहीं दी जातीं। गुजरात में दही जैसी चीजें भी गर्भवती महिला को खाने में नहीं दी जाती। आयुर्वेद में भी इन चीजों से परहेज की सलाह दी गई है। वैसे गर्भवती महिला को ग्वारफली, गोंद के लड्डू, पान पराग, अजवाइन आदि चीजें आमतौर पर खाने को दी जाती है। माना जाता है कि इनमें ताकत मिलती है और यह स्तनों में दूध बढ़ाने वाली भी होती है।
त्योहार और उत्सवों के दौरान भारतीय परिवारों में विशेष पकवान बनाए जाने की परम्परा है। लेकिन कभी-कभी ये महिलाओं के लिए हानिकारक भी होते हैं। मिसाल के लिए गुजरात में जुलाई-अगस्त में व्रत रखे जाने की परम्परा है, क्योंकि आयुर्वेद में इस दौरान व्रत रखे जाने की सलाह दी जाती है। लेकिन ऐसे समय, जबकि कृषि कार्य चरम पर हो, भूखे पेट दिन भर कड़ी मेहनत करना महिलाओं के लिए हानिकारक होता है।
यह कहना या सिध्द करना बहुत जरूरी नहीं है कि किस तरह औरत न केवल प्रत्यक्ष बल्कि अदृष्य भूख का जीवन इस सामाजिक व्यवस्था में जीती है। बल्कि मकसद यह है कि हम उस व्यवस्था को जान सकें जिसमें किसी को भूखा रखना वास्तव में सत्ता पर नियंत्रण करने के लिये जरूरी माना जाता है। अर्थव्यवस्था कमजोर नहीं है कि खाना खरीदा न जा सके; न ही जमीन बंजर कि पैदा न किया जा सके। परन्तु सवाल सत्ता का है यदि भरपेट भोजन मिल जायेगा तो संभव है कि मन और मस्तिष्क स्वस्थ्य होकर अपनी सामाजिक स्थिति पर कुछ विचार करने लग जायेंगे। समानता की बात होगी, समता की बात होगी और होगी क्षमता की बात। नि:संदेह यह मेरे समाज को मंजूर न होगा।
फिर भी हर दौर और कालखण्ड में कभी-कभी ऐसा लगता मानों ठहरे हुये पानी में किसी ने पत्थर फेंका हो, जिससे कुछ हलचल होती है; व्यवस्था में बदलाव की उम्मीद जागती है पर फिर वैसा ही कुछ चलने लगता है। समाज बदलाव की बेला में केवल बदलाव लाने वालों के दण्डित नहीं करता है बल्कि वह बदलाव चाहने वालों की भी खबर लेता है। अब केवल महिलायें ही दण्डित नहीं होती हैं बल्कि उनके साथ खड़े पुरूष भी सत्ता की इस व्यवस्था में दण्ड के अधिकारी बनने लगे हैं। हमें इस तथ्य को उजागर करना होगा कि गर्भावस्था के दौरान पैदा होने वाले संकट समाज ही बनाता है और उन्हें केवल दवाइयों से दूर नहीं किया जा सकता है, इसके लिए औरत के भोजन के अधिकार को सुनिश्चित करना होगा. ऐसे में खाद्य सुरक्षा का मौन रहना अच्छा नहीं माना जा सकता है. जरूरी है कि यह क़ानून उस खाद्य असुरक्षा से निपटने का माहौल भी बनाए जो अनाज की कमी से नहीं बल्कि असमानता के कारण पैदा होती है. इस क़ानून में अधिकारों की सीमा का केवल 25 या 35 या 50 किलो तक ही सीमित नहीं रह सकती है. उसे व्यापक बनाना होगा और समाज के इस पक्ष को भी उजागर करना होगा.
औरत के भोजन के हक़ का सवाल
चौंकिएगा मत! तीसरा राष्ट्रीय परिवार स्वस्थ्य सर्वेक्षण इस तकलीफदेय सच्चाई को उजागर कर चुका है कि हमारे समाज में महिलाओं के शरीर में खून की कमी होती जा रही है। जहां आठ साल पहले मध्यप्रदेश में हर सौ में से 49.3 महिलायें खून की कमी से जूझ रही थीं, वहीं संख्या अब बढ़कर अब 57.6 हो गई है। महिलाओं के बिगड़ते पोषण के समीकरण में भेदभाव और उनके साथ होने वाला दोयम दर्जे का व्यवहार भी गंभीर भूमिका निभाता है। अब यह आंकड़े एक बार फिर बेहद सामयिक इसलिए ह़ो जाते हैं क्यूंकि सरकार देश के लोगों के लिए राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा क़ानून बनाने की प्रक्रिया में है.
एक तरफ तो 73 फीसदी महिलाओं को स्वास्थ्य सुविधायें उपलब्ध नहीं हैं वहीं दूसरी ओर यह भी एक सच्चाई है कि हमारी सामाजिक व्यवस्था में रोटी का अधिकार भी उसे उपलब्ध नहीं हैं। यह तर्क बेमानी है कि गरीबी के कारण अनाज न होने से औरत भूखी रहती है। यदि ऐसा होता तो 60 प्रतिषत महिलाएं खून की कमी की शिकार नहीं होती। वास्तविकता यह है कि वर्ग कोई सा भी हो, उच्च वर्ग, मध्यम वर्ग या निम्न वर्ग; सभी वर्गों की औरतों को उनकी जरूरत के अनुरूप पोषणयुक्त पर्याप्त मात्रा में भोजन नहीं मिलता है। मध्यप्रदेश का मानव विकास प्रतिवेदन, राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण के हवाले से बताता है कि प्रदेश में 20.3 फीसदी महिलायें ही हर रोज दूध या दही पाती हैं जबकि 43 फीसदी को ही कभी दाल मिलती है। इस स्थिति में जब हम फलों पर पहुंचते हैं तो पता चलता है कि केवल 5 फीसदी महिलाओं को फल खाने को मिलते हैं। और 0.9 प्रतिशत को अण्डे और आधा फीसदी औरतों को मांसाहार करने का मौका मिलता है। ऐसी अवस्था में जरूरी है कि खाद्य सुरक्षा क़ानून के तहत उनके साथ होते रहे ऐतिहासिक अन्याय को बंद करते हुए औरत के लिए बराबरी का माहौल बनाया जाए. इस क़ानून से यदि उन्हें बाहर रखा गया तो लेंगिक भेदबाव को एक कानूनी मानयता भी मिल जायेगी. उन्हें सामान्य परिस्थितियों से लेकर किशोरावस्था के मौके पर पोषण का हक़ चाहिए. जब वह गर्भ धारण करती है तब समाज की जिम्मेदारी है कि उसे संरक्षण मिले, पर भेदभाव ने स्त्री के साथ कभी न्याय नहीं होने दिया. अब राज्य को अपनी जिम्मेदारी निभाना है. मातृत्व सुरक्षा, किशोरी बालिका के लिए संरक्षण और दूध पिलाने वाली माताओं के भोजन और पोषण के अधिकार को इसमें शामिल किया जाना एक ही रास्ता है.
इसके साथ ही एक पक्ष यह भी है कि तेज विकास की प्रक्रिया में स्त्री का विकास और पुरूष के विकास की परिभाषा में भी लैंगिक भेद है। जब विकास की परिभाषा में कृषि, बागवानी, ट्रेक्टर या इसी तरह की ठोस जरूरतों के लिये योजनाओं की बात होती है तो पूरा 100 फीसदी हिस्सा पुरूषों के खाते में ही जाता है; औरतों को सूची में रखने का 'जोखिम' न सरकारी कर्मचारी उठाना चाहता है न ही ऋण देने वाले बैंक का प्रबंधक। वहीं दूसरी ओर बहुत दबाव के बाद जब सरकार को लगने लगा कि अब औरतें भी राजनीति के चेहरे को पहचानने लगी हैं तो शुरू हो गये आय सम्वर्धन कार्यक्रम। इन कार्यक्रमों का रूप भी 'स्त्रीयोचित' ही रखा गया यानी चूंकि बात औरतों की हो रही है इसलिये सहायता मिलेगी, अचार, बड़ी, पापड़ या सिलाई, कढ़ाई के काम के लिये।
काम का भेदभाव भी बहुत सोच समझ के साथ किया जाता है। जिस काम में गति है, भ्रमण है, रोचकता है, वह काम पुरूष करता है। जबकि जो काम उबाऊ है, नीरस है और मेहनत वाला है वह औरतों के हिस्सों में आता है। खेती का ही उदाहरण लें। मर्द जब पानी ढोयेगा तो वह या तो ट्रेक्टर पर ढोयेगा या फिर बैलगाड़ी पर; पर जब महिला ढ़ोयेगी तो सिर पर तीन मटके रखकर पैदल चल पड़ेगी। धान की बुआई और कटाई महिला करेगी क्योंकि घुटनों-छुटनों पानी में कमर झुकाकर यह काम करना होता है, पुरूष इसी फसल को ट्रेक्टर पर लादकर मण्डी या बाजार में बेचने चल देगा। औरत के जीवन का वह चित्र किसी भी समुदाय या प्रदेश में रंग नहीं बदलता है जिसमें उसे सबसे बाद में बचा-खुचा भोजन खाते हुये दिखाया जाता है, पोषण महत्वपूर्ण नहीं है, महत्वपूर्ण है कि वह बासी भोजन को व्यर्थ जाने से बचायेगी। जिस सामाजिक और पारिवारिक पर्यावरण में वह रहती है, वह पर्यावरण उसके दुखदायी भविष्य की रूपरेखा तैयार करता है। पोषण, सुरक्षा, मनोरंजन और स्वतंत्रता के अभाव में एक बीमार जीवन पनपने लगता है। यही जीवन वृध्दावस्था में हर तरह से असुरक्षित होता है। प्रजनन अपने आप में प्रकृति की सबसे सार्थक और रचनात्मक विषेषता है और स्त्री उस विषेषता की वाहक है किन्तु वास्तविकता यह है कि यही विषेषता उसके लिये सबसे ज्यादा पीड़ादायक क्षण पैदा करती है। शरीर का दर्द हो चाहे मन की पीड़ा या फिर समाज की शंकायें; सब कुछ प्रजनन से ही जुड़ा हुआ है। और सच यह है कि 43 फीसदी महिलाओं का प्रसव ही प्रशिक्षित दाई करवाती हैं और 77 प्रतिषत को किसी तरह की चिकित्सा सुविधा उपलब्ध करवाने की जरूरत महसूस नहीं की जाती। हर दस हजार महिलाओं में से 54 महिलायें प्रसव के दौरान जीवन त्याग देती हैं और हर 48 में से एक महिला की मृत्यु का कारण भारत में गर्भावस्था या प्रजनन से जुड़ी समस्यायें होती हैं। माहवारी का मामला हो चाहे प्रजनन का, उसके जीवन की व्यवस्था परम्परा, मान्यताओं और रूढ़ियों से तय होती है; जिनके मानवीय होने पर बहुत बड़े सवाल हैं। यह स्थिति बहुत गंभीर है क्योंकि उसे पोषण का अधिकार नहीं है। संकट यह है कि चूँकि राशन कार्ड भी महिलाओं के नाम पर नहीं बनता है और पुरुष को ही परिवार का हर तरह का मुखिया माना जाता है, तो ऐसे में राशन की दूकान से मिले वाला साथ राशन भी स्त्री को पूरे हक़ के साथ नहीं मिल पाता है. बात साफ़ है कि जिसके नाम पर कार्ड है वही उस अधिकार यानी राशन का मालिक होता है. जरूरी है कि सरकार नए क़ानून के तहत राशन कार्ड महिलाओं के नाम पर जारी करे. साथ ही यह भी बेहद महत्वपूर्ण है कि गर्भवती और धात्री महिलाओं की खाद्य सुरक्षा के लिए व्यापक पहल ह़ो, जो उनके मातृत्व स्वास्थ्य के साथ जुडी हुई ह़ो. इस व्यापक परिप्रेक्ष्य में यह देखना जरूरी है कि प्रस्तावित खाद्य सुरक्षा क़ानून में महिलाओं के पोषण और भोजन के अधिकार को सम्मानजनक मान्यता मिलती है या नहीं? अभी तक जो प्रस्ताव सरकार के भीतर आये हैं, उनमे महिलाओं और बच्चों के अधिकारों को साफ़ चश्मे से नहीं देखा जा रहा है. ऐसे में उनके हकों का लगातार हनन होते रहे की आशंकाएं बढ़ जाती हैं.
औरत को भूखे रखे जाने की जरूरत?
सचिन कुमार जैन
पोषण की कमी, भेदभाव, भांति-भांति की हिंसा और शोषण के कारण भारत में 427 लाख महिलाओं का अस्तित्व खत्म हो गया है। नैसर्गिक रूप से महिलाओं और पुरूर्षों की संख्या बराबर-बराबर होना चाहिये परन्तु भारत की कुल जनसंख्या में से महज 48.2 प्रतिशत ही महिलायें हैं। इस देश में एक लाख जीवित जन्म पर 301 महिलाओं की प्रसव से जुड़े कारणों से मृत्यु हो जाती है, यह दुनिया की सबसे खराब स्थिति वाले देषों में शुमार है। इस मान से लगभग 70 हजार मातृत्व मौतें हर साल भारत में होती हैं और इन मौतों का बड़ा कारण खून की कमी है और क्योंकि उन्हें पोषण की आपूर्ति ही नहीं हो पाती है। राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण् के मुताबिक केवल 39.8 फीसदी महिलाओं को ही दूध या दही हर रोज सीमित मात्रा में मिलता है। 47.3 प्रतिशत महिलाओं को दाल या चने कभी-कभार मिलते हैं। यहा 55.3 प्रतिशत महिलायें खून की कमी की शिकार हैं और 35.6 प्रतिशत पोषण की कमी की स्थिति में हैं।
श्योपुर जिले के पातालगढ़ गांव की गुड्डी बाई ने 16 तारीख को एक बच्चे को जन्म दिया था और इसके ठीक 15 मिनट बाद उस नवजात शिशु के होंठो पर चिपचिपा गुड़ चिपका दिया ताकि उसके स्वाद से बच्चा न रोये। उस नवजात शिशु को गुड्डी ने अपना दूध क्यों नहीं पिलाया; इस बुध्दिजीवी सवाल का उसने एक कड़वे से सच के साथ जवाब दिया कि जब मैंने ही तीन दिन से रोटी नहीं खाई है तो दूध कहां से उतारूं? अब सवाल यह है कि जब देश में राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा क़ानून बनाने की तेयारी ह़ो रही ह़ो तब क्या महिलाओं की खाद्य सुरक्षा के सवाल को नज़र अंदाज़ करना करना जायज़ है? दुखद किन्तु सच यही है कि स्त्रियों के अधिकार को पुरुषों वाले समाज में कहीं गुम कर दिया गया है. जिस व्यवस्था में उन्हें सबसे आखिर में और सबसे कम खाना खिलाना सामाजिक सिद्धांत ह़ो वहाँ राज्य को जरा अपने नज़रिए को व्यापक करना होगा.
कुछ मामलों में हमारी स्थिति मोरक्को, मलावी, चाड, इरीट्रिया से भी खराब है, जैसे जन्म के समय बच्चों का कम वजन होना। भारत में 28 फीसदी बच्चों का वजन जन्म के समय कम होता है। पिछले डेढ़ दशकों से भारत में राष्ट्रीय मातृत्व सुरक्षा योजना इसी मकसद से चलाई जाती रही कि प्रसव के 4 से 12 सप्ताह पहले महिलाओं को एक निष्चित राशि सरकार उपलब्ध करवाये, जिससे वे पोषण सम्बन्धी अपनी जरूरत को पूरा कर सकें; परन्तु जननी सुरक्षा योजना के लागू होने के साथ (जिसमें अस्पताल में प्रसव कराने पर बच्चे के जन्म के बाद आर्थिक मदद मिलती है) ही इस योजना पर लापरवाही का पलीता लगा दिया गया। जब जरूरत है तब सरकार मदद नहीं देती है अब। ऐसे में राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा कानून के तहत महिलाओं की खाद्य सुरक्षा के अधिकार शामिल होने पर ही उनके साथ न्याय होगा।
भारत जैसे विकासशील देशों में 60 से 80 प्रतिशत खाद्यान्न उत्पादन महिलाओं के हाथों से होता है। पर पारम्परिक और सांस्कृतिक संदभों में महिलाओं के लिये सबसे बाद में, सबसे कम और कभी-कभी नहीं ही खाने का सिध्दान्त बना हुआ है। सत्ता और संसाधन महिलाओं के साथ भेदभाव की मूल जड़ है, जिसमें पितृ सत्तात्मक सोच आधार का काम करती है। ऐसे में उन महिलाओं की स्थिति की कल्पना कीजिये जो अकेली हैं, विधवा हैं या जिनका तलाक हो चुका है। ऐसी महिलायें यौन आक्रमण की षिकार होती हैं और उन्हें दबाव डालकर मौन रहने के लिये मजबूर किया जाता है। उनके लिये कोई संरक्षण नहीं है। 1999 के उड़ीसा चक्रवात] 2001 के गुजरात के बाद और फिर 2002 के गुजरात के साम्प्रदायिक दंगों के बाद ऐसी महिलाओं के यौन उत्पीड़न के हजारों मामले सामने आये। महिलाओं के इस वर्ग को समाज तो दूर परिवार में ही संरक्षण नहीं मिलता है। यह वर्ग कोई छोटा सा समूह नहीं है। 2001 की जनगणना के मुताबिक भारत में 6.9 प्रतिषत तलाकशुदा या परित्यक्ता हैं। इसके साथ ही 30 साल से ज्यादा उम्र की 1.4 प्रतिषत महिलायें अविवाहित हैं, जिन्हें भी एकल की श्रेणी में माना जा सकता है। इस तरह 7.5 प्रतिशत भारतीय महिलायें अकेली हैं और यह संख्या है चार करोड़ यानी कनाडा की जनसंख्या से ज्यादा। इनमें से 2 करोड़ महिलायें 60 वर्ष से ज्यादा उम्र की हैं और हमारे पारम्परिक से मौजूदा सामाजिक ढांचें की यात्रा का अनुभव बताता है कि ये महिलायें हर क्षण सामाजिक बहिष्कार का सामना करती हैं इनकी खाद्य सुरक्षा का सवाल उतना ही बड़ा है जितना की जीवन का सवाल! एक स्तर पर खाद्य सुरक्षा का अधिकार महिलाओं के इस वर्ग को सम्मान का अधिकार दिला सकता है।
अगर सरकारी व्यवस्था पर एक नजर डाली जाये तो उसका नजरिया समझने के लिये बहुत दूर नहीं जाना पड़ेगा। जब हम सरकार की नीति के अन्तर्गत सामाजिक सुरक्षा को परिभाषित करते हैं तो स्पष्ट होता है कि औरतों के लिये सामाजिक सुरक्षा के मायने उसके निराश्रित होने या विकलांग होने तक ही सीमित है जब उसे 275 रूपये प्रति माह की पेंशन मिलने लगती है परन्तु सामाजिक नजरिये से यह पेंशन उन्हें और अधिक वंचित और उपेक्षित कर देती है क्योंकि इस पेंशन की पात्रता के साथ ही उनकी व्यापक समाज से जुड़ी हुई पहचान पूरी तरह से खत्म हो जाती है। तात्कालिक जरूरत को पूरा करने के उद्देश्य से शुरू हुई इस तरह की योजनायें अब सामाजिक जरूरत बन गई हैं और सरकार का दावा होता है कि वह भुखमरी रोकने के जतन कर रही है।
खाद्य सुरक्षा
कहां है आधी आबादी की खाद्य सुरक्षा
पोषण की कमी, भेदभाव, भांति-भांति की हिंसा और शोषण के कारण भारत में 427 लाख महिलाओं का अस्तित्व खत्म हो गया है। नैसर्गिक रूप से महिलाओं और पुरूर्षों की संख्या बराबर-बराबर होना चाहिये परन्तु भारत की कुल जनसंख्या में से महज 48.२ प्रतिशत ही महिलायें हैं। इस देश में एक लाख जीवित जन्म पर 301 महिलाओं की प्रसव से जुड़े कारणों से मृत्यु हो जाती है, यह दुनिया की सबसे खराब स्थिति वाले देषों में शुमार है। इस मान से लगभग 70 हजार मातृत्व मौतें हर साल भारत में होती हैं और इन मौतों का बड़ा कारण खून की कमी है और क्योंकि उन्हें पोषण की आपूर्ति ही नहीं हो पाती है। राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण् के मुताबिक केवल 39.8 फीसदी महिलाओं को ही दूध या दही हर रोज सीमित मात्रा में मिलता है। 47.3 प्रतिशत महिलाओं को दाल या चने कभी-कभार मिलते हैं। यहा 55.3 प्रतिशत महिलायें खून की कमी की षिकार हैं और 35.6 प्रतिशत पोषण की कमी की स्थिति में हैं।
कुछ मामलों में हमारी स्थिति मोरक्को, मलावी, चाड, इरीट्रिया से भी खराब है, जैसे जन्म के समय बच्चों का कम वजन होना। भारत में 28 फीसदी बच्चों का वजन जन्म के समय कम होता है। पिछले डेढ़ दषकों से भारत में राष्ट्रीय मातृत्व सुरक्षा योजना इसी मकसद से चलाई जाती रही कि प्रसव के 4 से 12 सप्ताह पहले महिलाओं को एक निष्चित राशि सरकार उपलब्ध करवाये, जिससे वे पोषण सम्बन्धी अपनी जरूरत को पूरा कर सकें; परन्तु जननी सुरक्षा योजना के लागू होने के साथ (जिसमें अस्पताल में प्रसव कराने पर बच्चे के जन्म के बाद आर्थिक मदद मिलती है) ही इस योजना पर लापरवाही का पलीता लगा दिया गया। जब जरूरत है तब सरकार मदद नहीं देती है अब। ऐसे में राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा कानून के तहत महिलाओं की खाद्य सुरक्षा के अधिकार शामिल होने पर ही उनके साथ न्याय होगा।
एकल और विधवा महिलायें
भारत जैसे विकासशील देशों में 60 से 80 प्रतिशत खाद्यान्न उत्पादन महिलाओं के हाथों से होता है। पर पारम्परिक और सांस्कृतिक संदभों में महिलाओं के लिये सबसे बाद में, सबसे कम और कभी-कभी नहीं ही खाने का सिध्दान्त बना हुआ है। सत्ता और संसाधन महिलाओं के साथ भेदभाव की मूल जड़ है, जिसमें पितृ सत्तात्मक सोच आधार का काम करती है। ऐसे में उन महिलाओं की स्थिति की कल्पना कीजिये जो अकेली हैं, विधवा हैं या जिनका तलाक हो चुका है। ऐसी महिलायें यौन आक्रमण की षिकार होती हैं और उन्हें दबाव डालकर मौन रहने के लिये मजबूर किया जाता है। उनके लिये कोई संरक्षण नहीं है। 1999 के उड़ीसा चक्रवात, 2001 के गुजरात भूकंप, 2002 के गुजरात के साम्प्रदायिक दंगों के बाद ऐसी महिलाओं के यौन उत्पीड़न के हजारों मामले सामने आये। महिलाओं के इस वर्ग को समाज तो दूर परिवार में ही संरक्षण नहीं मिलता है। यह वर्ग कोई छोटा सा समूह नहीं है। 2001 की जनगणना के मुताबिक भारत में 6.9 प्रतिषत तलाकशुदा या परित्यक्ता हैं। इसके साथ ही 30 साल से ज्यादा उम्र की 1.4 प्रतिषत महिलायें अविवाहित हैं, जिन्हें भी एकल की श्रेणी में माना जा सकता है। इस तरह 7.5 प्रतिशत भारतीय महिलायें अकेली हैं और यह संख्या है चार करोड़ यानी कनाडा की जनसंख्या से ज्यादा। इनमें से 2 करोड़ महिलायें 60 वर्ष से ज्यादा उम्र की हैं और हमारे पारम्परिक से मौजूदा सामाजिक ढांचें की यात्रा का अनुभव बताता है कि ये महिलायें हर क्षण सामाजिक बहिष्कार का सामना करती हैं इनकी खाद्य सुरक्षा का सवाल उतना ही बड़ा है जितना की जीवन का सवाल! एक स्तर पर खाद्य सुरक्षा का अधिकार महिलाओं के इस वर्ग को सम्मान का अधिकार दिला सकता है।
शहरी झुग्गी बस्तियों का समाज
शहरी झुग्गी बस्तियों और उनमें रहने वाले लोगों को एक सुनियोजित तरीके से समाज के ऊपर एक दाग के रूप में स्थापित करने की कोशिश हुई। यह कहा जाता रहा है कि वे अपराधी हैं; वे अनैतिक व्यापार करते हैं, मैले-कुचैले और गंदे हैं। यदि विकास करना है तो हमें उन्हें शहर से बाहर करना होगा। पर यह एक बुना गया झूठ है। एक कल्पना कीजिये कि यदि इन झुग्गी बस्तियों के लोग एक हफ्ते के लिये हड़ताल पर चले जायें तो तुम्हारी जिन्दगी क्या होगी? क्या तुम्हारे बच्चों के स्कूल का वाहन आयेगा, क्या घर के काम होंगे, क्या सब्जी मिलेगी, क्या शहर की सफाई होगी? नहीं !! जनाब तुम्हारी जिन्दगी का पहिया है ये झुग्गी वाशिंदे । इनकी जिन्दगी को खत्म करने की नहीं अपने बराबर लाने की बात करो। भारत के 640 शहरों में 420 लाख लोग घोषित झुग्गी बस्तियों में रहते हैं और इनकी जिन्दगी का सबसे बड़ा सच है आधा खाली पेट। यहां 52 हजार झुग्गी बस्तियां हैं पर इनमें से केवल आधी को ही वैधानिक माना जाता है। चौंकाने वाली बात यह है कि तथा कथित अवैधानिक बस्तियों में 17 करोड़ बच्चे रहते हैं और अस्वच्छता के साथ भूख को जीते हैं। इन्हें न तो स्थाई पता मिलता है न पहचान। न पानी पीने को न बिजली और सफाई।
आय बहुत कम होने के कारण ये पोषणयुक्त भोजन पर ज्यादा खर्च नहीं कर पाते हैं। सर्वोच्च न्यायालय के आयुक्तों की आठवीं रिपोर्ट (पृष्ठ 62) के मुताबिक भारत में 46 प्रतिशत बच्चे कुपोषित हैं किन्तु शहरी झुग्गी बस्तियों में 70 प्रतिशत बच्चे भूख के साथ जीते हुये कुपोषण के शिकार हो चुके हैं। शहरों का यह समाज केवल 9.55 किलोग्राम खाद्यान्न का हर माह उपभोग करता है। बस्तियों में 2970 आंगनबाड़ी केन्द्र खोलने की जरूरत है पर वैधानिक-अवैधानिक बस्तियों की बहस के बीच बच्चों को पोषण का अधिकार ही नहीं मिल पा रहा है। बस्ती के लोग अस्वस्थ्यकर वाली ऐसी परिस्थितियों में काम करते हैं जो कई बीमारियों का कारण बनती है और लगातार चलने वाली भुखमरी उन्हें उन बीमारियों से लड़ने की ताकत हासिल नहीं करने देती। इन बस्तियों में जीवन जीना हर दिन की एक चुनौती है पर फिर भी इन्हें खाद्य सुरक्षा का अधिकार देने में इतनी हिचक क्यों? क्या हम अपने ही समाज में एक नया भेदभाव पैदा नहीं कर रहे हैं?
New estimates of Poverty in India
Reading Between the Poverty Lines
Sachin Kumar Jain*
The poverty estimation of the government of India was first challenged by civil society organisations on the streets and in courts in 2002. After 8 years of struggle, last week the much debated poverty estimates suggested by the Tendulkar Committee have been accepted by the Planning Commission of India. This estimation counts 41.8% rural families as Below the Poverty Line (BPL) rejecting earlier lower and other higher estimations. Before these figures begin being used to determine a variety of social schemes, the Tendulkar Committee estimates will need validation from both the government and the people of India. The acceptance or rejection of these estimates and reasons for the same is a pivotal issue as entitlements like subsidised food, health services and medicine, and free education (as per the Right to Education Act) in private schools to a large section of Indian society will be delivered to those that qualify as BPL. The burning current question therefore is – do the estimations of poverty in the Tendulkar Committee report adequately count and include the poor of this nation? It is the opinion of the Right to Food campaign that the Tendulkar Committee estimates will exclude the counting of considerable sections of poor in India. To understand this stand, one must first wade through recent history of poverty lines and identification.
These estimates will have adverse effects on the families that need food entitlements under the proposed national food security act. As per the Arjun Sen Gupta committee report and Professor Utsa Patnaik, around 15.5 crore families are in a position to spend a small amount for survival, where as Professor Utsa Patnaik states that they in fact do not get food for survival. On the other hand, the Dr. N.C. Saxena Committee report states that 10 Crore families are poor, while the recently accepted Tendulkar Committee report counts only 7.4 Crore families poor. The figures agreed upon in the Tendulkar Committee will cause food insecurity to more then 2.5 Crore families at the least, even after the enactment of the proposed food law. Furthermore, the Supreme Court has already directed the government of India to add old aged, destitute, primitive tribal groups, disabled, single women and widows, and pregnant and lactating women under the "cap" of the poorest category. However, the Tendulkar Committee has rejected these groups out right.
The attempted statistical manipulation that enabled such low figures in the face of reality was found to be unacceptable and a people’s movement agitated against the Planning Commission’s figures and methodology. In response, two committees were formed by the government: the Tendulkar Committee set up by the Planning Commission and the Dr. N.C. Saxena Committee set up by the Ministry of Rural Development.
The Tendulkar Committee was mandated to review the methodology for estimation of poverty, as well as analyse alternative conceptualizations of poverty and the associated technical procedures of measurement for empirical estimation, including finding procedures for updating data over time and across states. The Tendulkar Committee report concluded that 41.8% rural and 25.7% urban families in India are poor. The Saxena Committee report, on the other hand, stated that 50% families in rural India live with poverty. The devil though, is hidden between the lines.
In its report, the Tendulkar Committee suggested an increase in poverty levels both for urban and rural populations, in comparison to the figures touted by the Planning Commission, by correcting price indices. The committee, however, decided to follow the private household consumer expenditure of Indian households as collected by the National Sample Survey Organization (NSSO). It suggested an increase in poverty levels, largely due to price rise and the decrease in people’s capabilities to consume. However, the Tendulkar Committee did not so much as mention poverty dimensions representing excluded class and marginalization indices, such as the disabled, social and economic status of single women, widows, dalits, nomadic groups, primitive tribal groups. It might be argued that these groups will find automatic inclusion in the identification process delineated by the committee, but the concern is that if these groups are not included in the very concept of poverty, there is virtual surety of them being excluded from the process of identification of poor.
Despite admitting that the concept of poverty is multi-dimensional in the very first feature of their report, the Tendulkar Committee nevertheless decided to confine its study of poverty to analyzing only private consumption. In feature two, the Tendulkar Committee report states that “the expert group has also taken a conscious decision to move away from anchoring poverty lines to a calorie intake norms in view of the fact that calorie consumption calculated by converting the consumed quantities in the last 30 days as collected by NSS has not been found to be well correlated with the nutritional outcomes observed from other specialized surveys either over time or across space (i.e. between states or rural and urban areas).” In line with this, the report suggests that we should revise our calorie intake norms as described by the Food and Agriculture Organisation (FAO). The report argues that even now, according to the 61st round NSS in urban areas, poor families continue to afford only 1776 calories per day. This figure, it states, is already at par with the prescribed required intake of 1770 calories per day, devised by FAO for India. Furthermore, the report argues that actual observed calorie intake of those near the new poverty line in rural areas (1999 calories per capita) is higher than the FAO norm.
So hand in hand with suggesting an upward revision of the rural poverty line, from 28.3% to 41.8%, by using the urban poverty line as the base and correcting for discrepancies in the price indices, the Tendulkar Committee has suggested lowering the requisite calorie norms citing FAO figures. The average calorie consumption at the revised poverty line suggested by the Tendulkar Committee would stand at 1775 calories per person per day, which is way below the ICMR (Indian Council of Medical Research) norms for the average person in India (i.e. 2,400 calories in rural areas and 2,100 calories in urban areas). This revised line is bound to be incorrect if it is used to set ‘caps’ for any benefits through any public schemes related to nutrition, as it will lead to the exclusion of many who are hungry. The Right to Food campaign maintains that the process of identifying poor for any targeted scheme must be disassociated from any such externally calculated poverty line.
The Right to Food campaign’s view on the present discussion of PDS and BPL is that basic services such as food, education, health, work and social security must be universally available for all Indians. In relation to PDS, the Right to Food campaign demands that all residents of the country must be covered under the same and that PDS should play the role of ensuring food security for all. While arguing for universal services, the campaign also understands that these social schemes cannot be uniform in nature and further affirmative action is required for those who are socially excluded. The campaign views favourably the Saxena Committee report wherein it states that “food for all, health for all, education for all, and work for all – these should be taken as the bottom line. The BPL identification exercise should under no circumstances be used to dilute these entitlements. In no way should it be used to exclude people from their basic rights and needs”. Where as Tendulkar excluded the indicators of Education and Health while poverty estimation process.
The correct identification of BPL becomes imperative at this point in time, as this line will become the base for the sorely needed National Food Security Act (NFSA). Any decision on poverty estimates taken half-heartedly means keeping 200 to 250 million people on a half-empty stomach every day.
Too many presentations and representations about the prevailing face of poverty and poverty lines in India have been generated in academic, i.e. economist, circles in recent times, without touching or seeking the perspective of those that it really belongs to – the poor people of India. Fortunately we have a society, which still finds poverty more than an issue of specialized economics and have a political capacity to reject “anti-people” theories.
* writer is a development journalist associated with Right to Food Campaign. He is also working as honorary Advisor in Madhya Pradesh to the Supreme Court Commissioners in Right to Food case.
भुखमरी
भुखमरी कैसे खत्म हो
भुखमरी आज के समाज की एक सच्चाई है परन्तु मध्यप्रदेश के सहरिया आदिवासियों के लिये यह सच्चाई एक मिथक से पैदा हुई, जिन्दगी का अंग बनी और आज भी उनके साथ-साथ चलती है भूख. अफसोस इस बात का है कि सरकार अब जी जान से कोशिश में लगी हुई है कि भूखों की संख्या कम हो. वास्तविकता में भले इसके लिये प्रयास न किये जायें लेकिन कागज में तो सरकार इस सफलता को दर्ज करने के लिये आतुर नज़र आती है.
गरीबी की रेखा की सूची ही राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा कानून में पात्रता का आधार बनेगी. यह वही गरीबी की रेखा है, जिसे 6.52 करोड़ परिवार पकड़ पाये है पर 7.5 करोड़ परिवार इस सूची से बाहर कर दिये गये हैं. पहले योजना आयोग ने दावा किया था कि 28.3 प्रतिशत परिवार गरीब हैं पर बाद में उन्हीं के द्वारा स्थापित तेंडुलकर समिति ने बताया कि भारत में 37.5 प्रतिशत और गांवों में 41.8 प्रतिशत गरीब है.भारत सरकार ग्रामीण विकास मंत्रालय द्वारा स्थापित डॉ. एन.सी. सक्सेना समिति ने सिद्ध किया कि 50 प्रतिशत ग्रामीण गरीब हैं. 76.8 प्रतिशत को पूरा पोषण नहीं मिलता है और 77 प्रतिशत लोग 20 रूपये प्रतिदिन से कम में गुजारा करते हैं. पर सरकार केवल 28 प्रतिशत को ही गरीब मान रही है और उन्हें ही इस कानून का सीमित लाभ देने पर अड़ी हुई है.
सामाजिक बहिष्कार और सरकारी नीतियों के कारण देश की बहुत बड़ी आबादी भुखमरी की समस्या से दो-चार हो रही है. मसलन मध्य-प्रदेश की सहरिया आदिवासियों की हालत को ही देख लें. सहरिया एक पिछड़ी हुई जनजाति के रूप में परिभाषित हैं, जो पोषण और स्वास्थ्य की असुरक्षा के कारण संकट में हैं. आज भारत के कुल 623 आदिवासी समूहों में से 75 जनजातियों को पिछड़ी जनजाति की श्रेणी में रखा गया है.
बिहार में मुसहर रहते हैं. यह शब्द स्पष्ट करता है कि इनका 'मूसक' यानी चूहों के साथ कोई न कोई संबंध है. जी हां, आज भी कुछ इलाकों में मुसहर छोटे-मोटे शिकार, कंद-मूल और चूहों को खाकर ही जिंदा रहते हैं. वे चूहों के बिलों तक जाते हैं और उनके द्वारा इकट्ठा किये गये अनाज के दाने लाकर अपने लिये खाना बनाते हैं.
उड़ीसा, महाराष्ट्र और झारखण्ड के कई इलाकों में लोग गाय और भैंस का गोबर इकट्ठा करके लाते हैं ताकि उसमें से ज्वार और गेहूं के उन दानों को खोज सकें, जो जानवर के पेट से बिना पचे गोबर के साथ बाहर आ जाते हैं. उन्हें धोकर-खाकर अपनी भूख मिटाने की नाकाम कोशिश करने वालों की संख्या कम नहीं है.
आज भी भारत में 92 लाख शुष्क शौचालय के मानव मल ढोने का काम एक समुदाय विशेष सौंपा गया. यह एक जाति आधारित काम बन गया. आज भी तीन लाख से ज्यादा अति दलित लोग मानव मल ढोने की असहनीय पीड़ा को भोगते हैं क्योंकि उनके पास गरीबी और भूख से जूझने का कोई और साधन नहीं है.
जबलपुर जिले के मझगंवा गांव के गणेश बर्मन को यह नहीं पता चला कि पांच साल पहले क्यों उसका नाम गरीबी की रेखा की सूची से हटा दिया गया. शायद यह सरकार की उस नीति का परिणाम था, जिसके तहत सरकार गरीबी की विभीषिका को कम करने के लिये गरीबों की संख्या को घटा रही थी. उनकी एक एकड़ भरेल जमीन 7 हजार रूपये के एवज में 6 साल से गिरवी पड़ी है. दो हजार बीड़ी बनाने के एवज में उन्हें एक माह बाद ठेकेदार से 50 रूपये मिले. अक्सर भूखे सोना एक आदत सी बन गई थी. अब तो उन्हें उधार भी नहीं मिलता था.उनका 26 साल का बेटा संतू मानसिक बीमारी का शिकार है और बेटी सुनीता भूखे रहते-रहते 12 दिसम्बर 2009 को जिन्दगी की जंग हार गई. सरकार की योजनाओं से वे बाहर हो गये क्योंकि गरीबी की रेखा की रस्सी उनके गले में फांसी का फंदा बनकर अटक गई.
भारत में सात प्रतिशत जनसंख्या किसी न किसी विकलांगता से ग्रसित है, जिन्हें सामाजिक और पारिवारिक स्तर पर बहिष्कार का सामना करना पड़ता है. उन्हें पोषण की सुरक्षा की जरूरत है परन्तु विडम्बना यह है कि इस वर्ग को कोई संरक्षण नहीं है. इसी तरह महिलाओं, बच्चों, दलितों को भी अलग-अलग स्तर पर खाद्य सुरक्षा के कानूनी हक की दरकार है.
इस मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने बार-बार वंचित तबकों के लिये संरक्षण की बात कही. न्यायालय ने खाद्य सुरक्षा को जीवन और समानता के मौलिक अधिकार के साथ जोड़कर परिभाषित करते हुये कहा - ''अदालत की चिंता यह है कि गरीब लोग, दरिद्रजन और समाज के कमजोर वर्ग भूख और भुखमरी से पीड़ित न हों. इसे रोकना सरकार का एक प्रमुख दायित्व है. इसे सुनिश्चित करना नीति का विषय है जिसे सरकार पर छोड़ दिया जाये तो बेहतर है. अदालत को बस इससे संतुष्ट हो जाना चाहिये और इसे सुनिश्चित भी करना पड़ सकता है कि जो अन्न भण्डारों में खासकर भारतीय खाद्य निगम के गोदामों में भरा पड़ा है, वह समुद्र में डुबोकर या चूहों द्वारा खाया जाकर बर्बाद न किया जाये.''
भारत में दुनिया के सबसे ज्यादा कुपोषित बच्चे भी रहते हैं. यहां 360 अरबपति हैं परन्तु यहां की 93 प्रतिशत कार्यशील जनसंख्या असंगठित क्षेत्र मे है.
न्यायालय ने कहा कि ''भुखमरी की शिकार दरिद्र महिलाओं और पुरूर्षों, गर्भवती महिलाओं और दूध पिलाने वाली माताओं तथा दरिद्र बच्चों, खासकर उन मामलों में, जिनमें वे या उनके परिवार के सदस्य उन्हें पर्याप्त भोजन उपलब्ध कराने की स्थिति में न हों, को भोजन उपलब्ध करवाना सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण है.'' सरकार को न्याय के इस मंतव्य का सम्मान करना चाहिये.इसी दौर में यह बात खुलकर सामने आ गई कि गरीबी की रेखा मापदण्ड वंचितों के भोजन के अधिकार के लिए एक बड़ी चुनौती है. सरकार ने खर्च के जिन मापदण्डों (गांवों में 12 रूपये प्रतिदिन और शहरों में 19 रूपये प्रतिदिन प्रति व्यक्ति से कम खर्च करने वालों को गरीब माना जा रहा है) को गरीबी की रेखा का आधार बनाया है, उससे भरपेट भोजन भी मिलना संभव नहीं है यह राशि हमारी थाली में जरूरत का एक तिहाई से भी कम भोजन लाती है.
अर्जुन सेन गुप्ता और उत्सा पटनायक के आंकलन साफ बताते हैं कि 80 से 84 करोड़ लोगों को नियमित रूप से सस्ते अनाज, दाल और तेल का अधिकार अब बेहद जरूरी हो गया है. भारत में हर दो में एक बच्चा कुपोषण और महिला खून की कमी की शिकार है. उन्हें सम्मानजनक जीवन का अधिकार तब तक संभव नहीं है जब तक कि उनकी खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित नहीं हो जायेगी.
विसंगतिपूर्ण गरीबी की रेखा की परिभाष और पहचान के तरीकों के कारण दो तिहाई लोग भूखे सोने को मजबूर हो रहे हैं. जब सरकार यह कहती है कि वह (विसंगतिपूर्ण और बहुत छोटी) गरीबी की रेखा के नीचे रहने वाले परिवारों को ही 25 किलो सस्ता राशन देगी तो हमें 'सवर के महादेव' इस सरकार में नजर आते हैं क्योंकि सरकार गरीबी और भूख के साथ जीने वालों की थाली को आधा ही भर रही है.
इसमें भी दालें, खाद्य तेल और दूसरे मोटे-पोषक अनाज शामिल नहीं हैं. ऐसे में पेट की थैली में कुछ पड़ तो जायेगा पर उनकी पोषण सम्बन्धी जरूरत पूरी नहीं हो पायेगी. इसलिये जरूरी है कि गेहूं ओर चावल की सूची में ज्वार, बाजरा, मक्का, रागी को शामिल करते हुये पात्रता को 60 किलो तक बढ़ाया जाये. इसके साथ ही सस्ती दर पर दाल और तेल का अधिकार भी तय हो.
आज राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा कानून बनाने की पहल थोड़ा जोर पकड़ रही है. इस कानून की कवायद ऐसे दौर में की जा रही है जब भारत दुनिया की सबसे तेज गति से प्रगति करने वाली अर्थव्यवस्था और वास्तव में रोजगार विहीन और सामाजिक असुरक्षा पैदा करने वाली प्रगति मानी जाती है. इसी देश में दुनिया के सबसे ज्यादा कुपोषित बच्चे भी रहते हैं. यहां 360 अरबपति हैं परन्तु यहां की 93 प्रतिशत कार्यशील जनसंख्या असंगठित क्षेत्र में है. अनाज की कीमतें खूब बढ़ रही है, उत्पादन की दशा और दिशा बदल रही है. सरकार का संरक्षण किसानों, महिलाओं, विकलांगों से हट रहा है. भूख हमारे विकास के दावों को बार-बार सच का आईना दिखाती है पर सरकार उस सच से बार-बार मुंह फेर लेती है.
17.04.2010, 00.50 (GMT+05:30) पर प्रकाशित
http://raviwar.com/news/316_hunger-india-sachin-kumar-jain.shtml
भारत में गरीबी के ताज़ा अनुमान
गरीबी को नकारने की कोशिशें जारी हैं!
सचिन कुमार जैन
देश में कितने गरीब हैं, इस सच्चाई को सामने लाने की जिम्मेदारी हम अब हमारी ही सरकार के साथ जुड़े हुए विशेषज्ञों और योजना आयोग पर नहीं छोड़ सकते हैं. ये अपनी विश्वसनीयता खो चुके हैं. वर्ष 2004-05 में देश को इन लोगों (सरकार के विशेषज्ञों और योजना आयोग ने आंकड़ों की बाजीगरी के जरिए) ने यह बताया था कि अब ग्रामीण भारत में 28.3 प्रतिशत लोग गरीब हैं, यानी 1999-2000 की तुलना में लगभग 9 फ़ीसदी गरीबी कम हो गयी थी. इसके पहले भी भारत सरकार के गरीबी संबंधी अनुमानों को पहले नागरिक संगठनों ने सडकों पर और 2002 में अदालतों में चुनौती दी थी। आठ साल तक संगठनों ने गरीबी की राजनीति को जन संघर्ष के जरिये समाज के सामने लाने के भरसक कोशिशें की. मसला साफ़ था कि सरकार गरीबी के आंकड़ों को आर्थिक सांख्यिकी का जटिल विषय बना कर बार-बार यह जताने और बताने की कोशिश करती है कि उदारीकरण और पूंजीवादी औद्योगीकीकरण के फलस्वरूप दरिद्रता कम हो रही है, जबकि वास्तव में संसाधन कुछ ख़ास परिवारों और समूहों के कब्जे में जा रहे हैं. जो अब तक संसाधनों के मालिक रहे हैं वो अब मजदूरों की भूमिका में है, जो किसान अनाज पैदा करता है और 40 करोड़ लोगों को रोज़गार देते रहे, वही अब मजदूर बन रहे हैं, अकुशल के जा रहे हैं और भूखे सो रहे हैं. पर फिर भी योजना आयोग के मुताबिल गरीबी कम होती रही. इस परिद्रश्य में सर्वोच्च न्यायालय के निर्देश पर गरीबी की पहचान के कुहरे को छांटने के लिए केंद्रीय ग्रामीण विकास मंत्रालय ने डा. एन से सक्सेना समिति बनाई. योजना आयोग को उम्मीद थी कि यह समिति गरीबी के मौजूदा आंकड़ों को पूरी तरह से नकार कर गरीबी के षड़यंत्र का पर्दाफ़ाश कर देगी, तो उसने खुद प्रोफ. सुरेश तेंदुलकर समिति बना दी. गरीबी के आंकड़ों का झूठ इतना बड़ा था कि दोनों ही समितियां योजना आयोग द्वारा तय गरीबी के मौजूदा स्तर (28.3 फ़ीसदी) को स्वीकार ना कर सकीं. और गाँव में कहीं ज्यादा गरीबी के आंकडे सामने लेकर आईं – क्रमश 41.8 (तेंदुलकर) और 50 (सक्सेना) प्रतिशत. परन्तु अब भी गरीबी के इन आंकडों के बीच ही गरीबों को बाहर रखने की आंकडों की बाजीगरी छिपी हुई है। योजना आयोग ने हाल ही अपनी ही समिति, यानी तेंदुलकर के अनुमानों को अनमने मन से स्वीकार कर लिया है कि भारत में कुल . मसला यह है कि गरीबी के बढे हुए आंकड़े तो सामने आ गए, परन्तु क्या यह भी पूरी तरह से गलत सिद्धांतों पर आधारित गलत आंकलन नहीं है? यह समिति स्वास्थ्य, शिक्षा, जाति-वर्ग-लिंग आधारित गरीबी के सूचकों को संज्ञान में नहीं लेती है, क्योंकि इससे गरीबों की संख्या बढ़ जायेगी. तेंदुलकर ने माना है कि गाँव में 446.68 रूपए प्रति व्यक्ति प्रतिमाह और शहर में 578.8 रूपए प्रति व्यक्ति प्रतिमाह से कम खर्च करने वाले लोग गरीब माने जा सकते हैं, जबकि सक्सेना ने यह खर्च 650 और 1000 माना था. महत्त्वपूर्ण यह है कि तेंदुलकर वर्ष 2004-04 की कीमतों पर इस खर्च का आंकलन कर रहे हैं, जबकि पिछले 4 सालों में मंहगाई ने सारे रिकॉर्ड तोड़ते हुए आपना आकार बढ़ाया है. अब तेंदुलकर द्वारा तय खर्चे में जिंदगी कम और मौत आसानी से खरीदी जा सकेगी. ऐसा क्यों होता है कि गरीबी के मामले में सरकार सबसे कम स्तर के आंकड़ों को स्वीकार करती है और आर्थिक विकास के मामले में जब अमीरों को रियायत देना होती है तो ऊँचे स्तर के आंकड़ों को खींच-खींच कर बीच में लाती है. चूँकि तेंदुलकर ने शहरी गरीबी के मामले में खर्च के स्तर को 19 रूपए प्रतिदिन ही रखा है, जिससे वहाँ उनका आंकलन योजना आयोग के बराबर ही रहा. दूसरी तरफ उन्होंने ग्रामीण गरीबी के मामले में प्रतिव्यक्ति खर्च 12 रूपए प्रतिदिन से बाधा कर 15 रूपए से कुछ कम कर दिया तो इतने से ही वहाँ गरीबी का स्तर 28 से बढकर 42 प्रतिशत हो गया. फिर भी सवाल यह है कि क्या 15 रूपए में जिन्दगी गुजारी जा सकती है?
गरीबी की मौजूदा परिभाषा और सूचकों में बदलाव ना होने पाए और गरीबी की पहचान के वर्तमान तरीकों में बदलाव की नौबत ना आये, यह तेंदुलकर ने पूरी कोशिश की है. उसने भी आय को नहीं बल्कि खर्च को बुनियादी मानक माना है. इसमें एक स्तर पर तो केलोरी के मापदंड को आधान ना बनाने की बात कही पर दूसरी और यह भी स्थापित करने की कोशिश की कि अब भारत के शहरी इलाकों के लोगों को 2100 नहीं 1770 और ग्रामीण इलाकों में 2400 नहीं बल्कि 1990 केलोरी की ही जरूरत है. इस तरह तेंदुलकर समिति ने अपना रंग दिखा दिया । देश में गरीबी की परिभाषा के क्रांतिकारी आकलन की जरुरत थी लेकिन इसकी बजाय समिति पुराने ढर्रे पर चिपकी रही जो कि सरकार के चुनिंदा योजनाकारों के अलावा किसी को भी स्वीकार्य नहीं था। एक मनमाने तौर पर चुनी गई शहरी गरीबी रेखा के आधार पर खपत के आकलन से तेंदुलकर समिति ग्रामीण इलाकों के लिए 41.8 प्रतिशत के गरीबी अनुपात के अनुमान पर पहुंची थी।
सरकार को यह बताने के लिए कि उसके विभिन्न मकसदों के लिए नई विधि कितनी कारगर होगी, प्रयोग के तौर पर समिति ने अपनी विधि का इस्तेमाल 1993-94 में गरीबी का अनुपात जानने में किया । उसे पता चला कि 1993-94 में शहरी इलाकों के 31.8 प्रतिशत गरीबी अनुपात की तुलना में ग्रामीण इलाकों में गरीबी 50.1 प्रतिशत थी जिससे राष्ट्रीय स्तर पर आंकडा 45.3 प्रतिशत आया जो कि तत्कालीन सरकार के अनुमान से भी कहीं अधिक पाया गया। समिति ने सरकार को यह भी आश्वासन दिया कि नई विधि से हालाकि 2004-05 में ग्रामीण गरीबी का अनुपात अखिल भारतीय स्तर पर कहीं अधिक आता है लेकिन इसमें भी 1993-94 की तुलना में 2004-05 में अगर देखें तो गरीबी कम होती नजर आती है जैसे कि पुरानी विधि में निष्कर्ष सामने आता है। दूसरे शब्दों में “सरकार हमारी विधि से भी आपका गरीबी कम होने का प्रचार पूरी गति से चलता रह सकता है।“
तेंदुलकर समिति ने अपने बोगस आधारों को औचित्यपूर्ण भी बताना जरुरी समझा। यह स्पष्ट करने के बावजूद कि गरीबी के आकलन के लिए उसने केलोरी ग्रहण की बजाय खपत को मापदंड बनाया है, समिति अपनी गरीबी रेखा के पक्ष में दलील देते हुए कहती है कि नई गरीबी रेखा निर्धारण में रोजाना केलोरी लेने का मानदंड (शहरी के लिए 1776 , ग्रामीण के लिए 1990) खाद्य एवं कृषि संगठन द्वारा भारत के लिए सुझाए गए 1770 के दैनिक केलोरी मानदंड के समकक्ष ही है, जबकि इंडियन काउंसिल फॉर मेडिकल रीसर्च स्वस्थ्य और सक्रीय जीवन के लिए शहर में २१०० केलोरी जरूरी मानती है। यह हेराफेरी शर्मनाक और हास्यास्पद है। खाद्य एवं कृषि संगठन के केलोरी मानदंड कई सालों से आलोचनाओं का शिकार रहे हैं, क्यूंकि यह गरीब और अमीर देशों के बीच भेदभाव करते हैं. इसी तरह गामीण इलाकों के लिए भी खाद्य एवं कृषि संगठन ने भारत के ऐसे व्यक्ति के लिए जो शारीरिक श्रम की गतिविधियों में कम लिप्त रहता है 1770 केलोरी की न्यूनतम आवश्यक आहार ऊर्जा का पुननिर्धारण किया है, जबकि इंडियन काउंसिल फॉर मेडिकल रीसर्च ने 2400 केलोरी की जरूरत का मापदंड निर्धारित किया है। तेंदुलकर समिति ने इसका कोई उल्लेख नहीं किया है कि क्या इस विशेषज्ञ समिति के सदस्य 1770 केलोरी प्रतिदिन लेकर निर्माण श्रमिक का जीवन बिताना पसंद करेंगे या 1990 केलोरी प्रतिदिन में नरेगा के श्रममूलक काम करेंगे। अगर ऐसा होता है तो यह आदर्श विश्व हो जाएगा लेकिन ञासदी है कि हम ऐसी दुनिया में रह रहे हैं जिसमें अर्थशास्ञी आपस में बैठकर तय कर लेते हैं कि गरीबी की परिभाषा क्या है यह जाने बगैर कि देश में गरीब होने का क्या मतलब है। यह भारत ले लोगों को भूख के साथ ज़िंदा रखने की साजिश है.
खाद्य एवं कृषि संगठन ने खुद भी आगाह किया है कि ऐसे देशों में जहां कुपोषण की दर काफी अधिक है, वहां आबादी का एक बडा हिस्सा न्यूनतम आवश्यक आहार ऊर्जा के करीब ही भोजन कर पाता है । उनके लिए न्यूनतम आवश्यक आहार ऊर्जा का मानदंड काफी संवेदनशील मामला है । लेकिन क्या तेंदुलकर समिति ने खाद्य एवं कृषि संगठन की इस चेतावनी पर रत्ती भर भी ध्यान दिया है । देश में रोजाना लिया जाने वाला आहार होना चाहिए जो भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद ने स्वास्थ्य और शरीर का वजन बनाए रखने के लिए सुझाया है, ज्यादा शारीरिक श्रम न करने वाले पुरुष के लिए 2425 केलोरी से लेकर अधिक श्रम करने वाले पुरुष के लिए 3800 केलोरी । महिलाओं के लिए यह क्रमश 1875 केलोरी से 2925 केलोरी होना चाहिए। देश में मशीनीकरण का तर्क देते हुए कम केलोरी मानदंड को उचित ठहराना बहुत बेतुकी सी बात है। तेंदुलकर कमेटी के अनुमान के मुताबिक देश के 93 प्रतिशत लोग असंगठित क्षेञ में काम करते हैं और गरीबी रेखा पर जीवन बसर करते हैं, ऐसे में उनके द्वारा किया जाने वाला शारीरिक श्रम कम मेहनत वाले काम के रुप में नहीं आंका जा सकता ।
गरीबी की राजनीति को समझने वाले संगठन इस बात पर कायम हैं कि सार्वजनिक वितरण प्रणाली और लंबित खाद्य सुरक्षा कानून के तहत भोजन आहार, शिक्षा, स्वास्थ्य, काम और सामाजिक सुरक्षा सभी भारतीयों को बिना किसी पात्रता के अनिवार्य रुप से मिलना चाहिए, और इन्हें गरीबी के रेखा से बुने गए जाल से बाहर निकाला जाना चाहिए । सभी के लिए इन सेवाओं की उपलब्धता पर बल देते हुए रोज़ी-रोटी का अधिकार अभियान यह भी मानता है कि यह सामाजिक सेवाएं एक समान प्रकृति की नहीं हो सकतीं और सामाजिक रुप से कटे हुए लोगों को इसमें शामिल करने के लिए सकारात्मक कदम उठाने की आवश्यकता है । सुप्रीम कोर्ट ने भी सरकार को आदेश दिया है कि वृद्धजनों, बेसहारा लोगों, पिछड़ी हुई जनजातियों, विकलांगों, एकल महिलाओं, विधवाओं और धाञी महिलाओं को गरीबों की श्रेणी में रखा जाना चाहिए । तेंदुलकर समिति ने अपनी रिपोर्ट के प्रारंभ में गरीबी की बहुआयामी प्रकृति की बात तो स्वीकार की है लेकिन इन वर्गों को गरीब की श्रेणी में शामिल करने को नजरअंदाज करते हुए दुबारा इनका उल्लेख भी रिपोर्ट में नहीं किया है।
तेंदुलकर कमेटी द्वारा सुझाए गए अनुमानों को योजना आयोग ने स्वीकार कर लिया। इन अनुमानों में 41.8 प्रतिशत ग्रामीण और 25.7 प्रतिशत शहरी आबादी को गरीबी की रेखा से नीचे गिनते हुए पिछले कम और अन्य उच्च अनुमानों को नकार दिया गया था। इसके पहले कि तेंदुलकर समिति के अनुमानों को सामाजिक योजनाओं में हितग्राहियों का निर्धारण करने में इस्तेमाल किया जाए उनका सरकार और देश की जनता द्वारा मूल्यांकन किए जाने की जरुरत है। इस तरह अब ज्वलंत प्रश्न है कि क्या तेंदुलकर कमेटी की रिपोर्ट में गरीबी के अनुमान समुचित गणना करते हुए देश के वास्तविक और सभी गरीबों को शामिल करते हैं।
पोषण और भूख की स्थिति को लेकर अपने अध्ययन में प्रो उत्सा पटनायक बताती हैं कि कैसे देश के 76 प्रतिशत परिवार या 84 करोड लोगों को रोजाना जरुरी कैलोरी का भोजन नहीं मिल पाता है जो कि शहरी वर्ग के लिए 2100 केलोरी है और ग्रामीण नागरिक के लिए 2400 केलोरी है । असंगठित क्षेञ के कामगारों पर अर्जुन सेनगुप्ता की रिपोर्ट के मुताबिक देश में 77 प्रतशित लोग 20 रुपए प्रति दिन से भी कम में गुजारा करते हैं । और तो और राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (3) के अनुसार पांच साल से कम उम्र के 46 प्रतिशत बच्चे कुपोषित हैं। रोज़ी-रोटी के अधिकार अभियान ने 2001 से 2005 के बीच देश के विभिन्न भागों में भूख से पांच हजार मौतों की जानकारी दर्ज की है। इसके बावजूद भारत सरकार अपने रुख पर अटल है कि देश में गरीबी कम हो रही है । इस दावे को सरकारी नीतियों की सफलता बताया जाता है जबकि प्रकट रुप से कारपोरेट और खेती विरोधी नीतियों से हालात और बदतर हुए हैं । ग्रामीण इलाकों में गरीबी का अनुपात बढता दिखाई देने के बावजूद तेंदुलकर समिति से सरकारी तंञ खुशी से फूला नहीं समाया क्योंकि इससे उनका यह मिथक कायम रहा है कि देश में गरीबी कम हो रही है ।
गरीबी की रेखा का यह आंकलन ताज़ा सन्दर्भों में इसलिए महत्वपूर्ण हो गया है क्यूंकि सरकार राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा क़ानून लाने वाली है और इन नए आंकड़ों से ही यह साफ़ होगा कि कितने परिवारों को भरपेट खाने का अधिकार मिल पायेगा. तेंदुलकर के मुताबिक 8.14 करोड़ परिवार गरीब हैं, जबकि सक्सेना 10.87 करोड़ परिवारों के गरीब मानते हैं. और यदि भूख के पोषण के नज़रिए से देखा जाए तो अर्जुनसेन गुप्ता और उत्सा पटनायक के मुताबिक़ 16.75 करोड़ परिवार गरीबी की रोखा में आना चाहिए. अफ़सोस सरकार सच स्वीकार करने को तैयार नहीं है क्यूंकि इससे उसके एजेंडे पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है, और अपने आर्थिक विकास के एजेंडे को आगे बढाने के लिए वह 8 करोड़ परिवारों को भूखे रखने को कमर कस चुकी है.
Monday, February 22, 2010
न रहने की खबर
ह़ो सकता है मेरे न रहने की खबर तुम्हे मिले थोड़ी देर से
बचना तुम दुखी होने के फेर से,
मुझे नहीं है अपनी कब्र पर फूलों का ढेर सजाने की चाहत,
मसला यह है कि मेरी रूह की खुशबु न दब जाए उन गुलाबों में,
मुझे मत खोजना मेरी किताबों में मेरे दोस्त / वह तो केवल कला का प्रदर्शन था
मैदान में बने रहने के लिए
मुझे खोजना उन फ़ालतू पलों में जब मैने कुछ नहीं किया,
हम फंसे रहे बहसों के घेर में / क्या यह इल्म नहीं तुमको जब न होंगे मै और तुम
कौन बढ़ाएगा आगे जिन्दगी को बनाने के फलसफे,
तुम जहां भी होओ उस पल में / याद करना हमारी उस सबसे गहरी तकरार को,
जिसमे हम लड़े थे सही और ग़लत के सवाल पर,
तुम जान पाओगे मेरी ख़िलाफ़त / तुम्हारी सरकार से नहीं रही,
मैं तो सामने लाना चाहता था / उन चेहरों को तुम्हारे सामने
जो उसूलों को मसल कर नाचते रहे / सत्ता की ताकत के साथ मदहोश,
ये वही चेहरे हैं जो बिखरे पड़े हैं हमारे तुम्हारे बीच,
तुम भी उस ताकत में / क्यों फ़कत करते रहे विश्वास,
तुम्हारे एक ही करवट सोने की आदत ने / मुझे किया था हर वक्त बैचेन,
दूसरे करवट पर लाना ही बस एक मकसद रहा हर लड़ाई का,
मेरे न होने पर तुम्हे होगा / राजनीति के ग़लत होने का अहसास,
तब शायद मै यह न बता पाऊंगा / दोस्ती और रिश्तों की जमीन पर नहीं बनाया था
मैने अपनी जिन्दगी का नक्शा / तुम सही ह़ो या मैं सही / तुम ग़लत ह़ो या मैं ग़लत,
इन जवाबों की तलाश बहसों में करना बेकार है, / फुटपाथ पर सोने वाले के चेहरे पर खोजिये
इस सवाल का जवाब / यूं भी यही करना पड़ेगा तुम्हे जब मिलेगी
मेरे न रहने की खबर थोड़ी देर से,
यही दुनिया का दस्तूर है / स्थापना के लिए जरूरी है ख़ाक ह़ो जाना!!
Friday, December 04, 2009
जलवायु परिवर्तन, कोपनहेगन
जलवायु परिवर्तन, कोपनहेगन और हम
सचिन कुमार जैन
भारत की सरकार ने अपनी नीति जरूर तय कर ली कि वह सन् 2020 तक 25 प्रतिशत और 2037 तक 37 प्रतिशत कटौती कार्बन उत्सर्जन में करेगा; परन्तु इस नीति को तय करने में लोकतांत्रिक नहीं बल्कि आर्थिक-राजनीतिक रणनीति अपनाई गई। भारत के पर्यावरण मंत्री ने भारत की संसद को सूचित किया कि हम कोपनहेगन में अपने इन लक्ष्यों को सामने रखेंगे परन्तु सवाल यह है कि इन लक्ष्यों पर संसद में बहस क्यों नहीं हुई, जन प्रतिनिधियों को खुलकर जलवायु परिवर्तन और कोपनहेगन की राजनीति के बादे में क्यों नहीं बताया गया? इसका दुष्परिणाम यह होगा कि जब इन लक्ष्यों को हासिल करने के लिये सरकार नीतियां और व्यवस्था बनायेगी तब उसे देष के भीतर राजनैतिक-सामाजिक और आर्थिक सहयोग नहीं मिलेगा। भारत सरकार केवल लक्ष्य तय करके अपना दायित्व पूरा नहीं कर सकती है बल्कि उसे स्पष्ट रूप से यह बताना चाहिये कि कार्बन गैसों के उत्सर्जन में इतनी कमी कौन से उद्योगों, कार्यषालाओं और क्षेत्रों से की जायेगी? सरकार को यह समझना होगा कि उसे दबाव में तो रहना ही है, तय यह करना है कि यह दबाव किसका होगा अमेरिका का या भारत के लोकतंत्र का !!
जलवायु परिवर्तन न तो नये जमाने का नया मुद्दा है न ही कोई काल्पनिकता। इस मुद्दे की गर्मी को कई सालों पहले ही महसूस किया जा चुका था। 1972 में रियोडिजेनेरो में हुये विश्व पृथ्वी सम्मेलन के बाद क्योटो और बाली होते हुये हमारी सरकारें कोपनहेगन तक पहुंच चुकी हैं परन्तु इन 37 सालों के बाद भी कार्बन और मीथेन जैसी खतरनाक गैसों का उत्सर्जन बढ़ रहा है। मालदीव की सरकार समुद्र के भीतर और नेपाल की सरकार हिमालय के तल में बैठकर अपने खत्म होते अस्तित्व पर चीत्कार कर रही है और विकासशील देश विकास के दुराचार में लगे हुये हैं। जलवायु परिवर्तन पर यूं तो पहला वैश्विक समझौता सन् 1997 में जापान से क्योटो शहर में हुआ था पर अमेरिका जैसे देशों के जिद्दीपन के कारण यह 16 फारवरी 2005 को लागू हो पाया। इस प्रोटोकाल की अवधि सन् 2012 में खत्म हो रही है इसलिये कोपनहेगन में एक सर्वमान्य समझौता होना एक अनिवार्यता बन गई है। यदि ऐसा नहीं हुआ तो आने वाले कुछ सालों में मालदीव जैसे समुद्री तटवर्ती देश बढ़ते जल स्तर, पिघलते ग्लेषियरों के कारण समुद्र में डूब जायेंगे; मतलब साफ है जलवायु परिवर्तन का संकट गले तक पहुंच चुका है।
सन् 1989 में पहली बार अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर इस सवाल पर समझौते की आधारशिला रखी गई थी और सन् 2009 तक आते-आते जलवायु परिवर्तन का यह सवाल हर जिन्दगी का सवाल बन गया। इसके साथ ही यह वैश्विक आर्थिक राजनीति का केन्द्रीय रणक्षेत्र भी। सैद्धांतिक तौर पर यह माना जाता है कि कार्बन डाई आक्साईड, मीथेन और इसके जैसी अन्य गैसों (जिन्हें ग्रीन हाउस गैस कहा जाता है) के बहुत ज्यादा पैदा (उत्सर्जन) होने के कारण वैश्विक और स्थानीय जलवायु के चक्र और चरित्र में परिवर्तन आता है। इससे कहीं खूब गर्मी पड़ रही है तो कहीं बाढ़ आ रही है और कहीं सूखा अब बार-बार पड़ रहा है। मौसम के चक्र और चरित्र में आ रहे परिवर्तन से आजीविका, स्वास्थ्य, पर्यावरण के ही नहीं बल्कि दुनिया के अस्तित्व के भी सवाल खड़े हो रहे हैं। दुनिया भर की सरकारें अब इस दबाव में हैं कि इस संकट की रफ्तार को धीमा किया जाये। यह एक साधारण मसला नहीं है। जलवायु परिवर्तन का सबसे मूल कारण हमारे विकास का ढांचा और परिभाषा है। जिस तरह के पूंजीवादी केन्द्रीयकृत पर्यावरणविरोधी औद्योगिकीकरण और आर्थिक विकास की नीतियों को दुनिया की सरकारें प्रोत्साहन देती रही हैं उसी से ग्रीन हाऊस गैसों का उत्सर्जन बढ़ा और जलवायु परिवर्तन की चुनौती ने विकराल रूप लिया। इसका सबसे अहम् हल यह माना जाता है कि दुनिया किसी भी तरह से इन गैसों की पैदावार कम करे। क्योटो प्रोटोकाल के तहत यह तय किया गया था कि पूरी दुनिया में दो तरह के देष हैं जो इन गैसों का ज्यादा उत्पादन करते हैं उसे अपने विकास की नीतियों को बदलकर ग्रीन हाऊस गैसों की वृध्दि को रोककर 20 साल पहले के स्तर पर लाना चाहिये। परन्तु ऐसा हुआ नहीं इन देशों ने अपने गैसों के कारखाने बनाये रखे और इन गैसों की मात्रा में 14 फीसदी की बढ़ोत्तारी हो गई। दूसरे तरह के वे देश हैं जो विकासशील हैं, वे गैस का कम उत्सर्जन कर रहे हैं उन्हें अपने विकास का अधिकार मिलना चाहिये; यानि जलवायु परिवर्तन के नाम पर विकासशील देशों को पिछड़ा बने रहने का अभिशाप नहीं भोगना चाहिये। यह तय हुआ कि ऐसे देशों के विकास के लिये विकसित देश मदद भी करेंगे। कई वर्षों से इस पर राजनीति शुरू हुई और अब खूब आगे तक जा चुकी है। राजनीति इसलिये क्योंकि जलवायु परिवर्तन के मामले में ईमानदार कदम उठाने का मतलब है अपने विकास की दर को कम करने का निर्णय लेना। सरकारों को अपनी कई ऐसी नीतियों और योजनाओं को बदलना होगा जो एक तरफ तो उनका औद्योगिक विकास कर रही हैं परन्तु दूसरी ओर जलवायु परिवर्तन की कारण् भी हैं। कई या कहें कि ज्यादातार देश इस मामले पर ईमानदार नहीं हुये। अब दिसंबर 2009 में कोपनहेगन में फिर लोग इकट्ठा हुये। यह क्योटो के बाद दूसरी बड़ी बैठक है। जिसमें राजनीति की दिशा तय हुई। क्योटो के बाद कोपनहेगन तक जलवायु परिवर्तन की राजनीति बेहद संवेदनशील हो गई है। क्योंटो में ग्रीम हाऊस गैस ज्यादा पैदा करने वाले और कम या न पैदा करने वाले देश अलग-अलग पहचान रखते हैं।
कोपनहेगन तक आते-आते दोनों तरह के देशों को एक ही सूची में रख दिया गया। अब दबाव बनाया जा रहा है कि अमेरिका (जो दुनिया की 22 प्रतिशत गैस पैदा करता है) और भारत (जो दुनिया की 4 प्रतिशत गैस पैदा करता है) बराबरी से इन गैसों के उत्सर्जन में कमी लायें। कई सालों तक भारत ने यह नीति अपनाई की हम जिम्मेदार हैं पर हम अपने विकास के अधिकार पर समझौता नहीं करेंगे और दूसरे देशों के द्वारा किये गये अपराधों की सजा भी नहीं भुगतेंगे। इसलिये भारत चाहता था कि विकसित देश अपनी नीतियां और विकास का तरीका बदलें। इस नीति के कारण भारत पर खूब दबाव पड़ा और उसे बाध्य किया गया कि वह भी कार्बन गैसों के उत्सर्जन में कमी लाने का वायदा करे और अंतत: कोपनहेगन की बैठक के ठीक पहले भारत को यह मानना पड़ा कि वह सन 2020 तक कार्बन गैसों के उत्सर्जन में 25 प्रतिशत की कटौती लाने का प्रयास करेंगा; पर वह कानूनी रूप से बाध्य नहीं होगा। राजनीति के नजरिये से यह एक दबाव में लिया गया निर्णय है किन्तु जवाबदेहिता के नजरिये से शायद सही निर्णय भी है। अब भारत जैसे देशों को यह करना होगा कि दुनिया के विकसित देश भी इस जवाबदेहिता को समझें इसके लिये हमें दबाव की राजनीति की दिशा को पलटना होगा। वास्तव में जलवायु परिवर्तन पर एक नजरिया बनाने के लिये विकास की परिभाषा और प्राथमिकताओं पर पुनर्विचार करने की सबसे बुनियादी जरूरत है।
आईपीसीसी के अध्यक्ष आर.के. पचौरी कहते हैं कि हमारे खान-पान की बदलती संस्कृति ने भी जलवायु परिवर्तन में बड़ी भूमिका निभाई है। मांस के उपभोग को इसमें शामिल माना जाये। एक किलो मक्का के उत्पादन में 900 लीटर पानी लगता है परन्तु भैंस के 1 किलो मांस के उत्पादन में 15,500 लीटर पानी की जरूरत होती है। पशुधन को अब केवल मांस के नजरिये से और कृषि, पर्यावरण और आजीविका के नजरिये से कम देखा जाता है। दुनियाभर के अनाज उत्पादन का एक तिहाई का उपयोग मांस के लिये जानवर पालने में होता है। एक व्यक्ति एक हेक्टेयर खेती की जमीन से सब्जियां, फल और अनाज उगाकर 30 लोगों के लिये भोजन की व्यवस्था कर सकता है किन्तु अगर इसी का उपयोग अण्डे, मांस, जानवर के लिये किया जाता है तो केवल 5 से 10 लोगों का ही पेट भर सकेगा। 1 किलो पोल्ट्री मांस के उत्पादन के लिये 2.1 से 3 किलो खाद्यान्न का उपयोग होता है। बात साफ नजर आती है कि नीतियों के साथ-साथ व्यवहारों में भी बदलाव अब एक अनिर्वायता बन चुका है। दुखद यह है कि जीवन शैली में बदलाव की जरूरत अब भी छिपाई जा रही है। इन्टर गवर्नमेंटल पैनल आन क्लाइमेट चेंज (आईपीसीसी) की चौथी आंकलन रिपोर्ट यह साफ तौर पर उल्लेखित करती है कि दुनिया के लोगों को अपनी जीवनषैली में भी बदलाव करना होगा। यह भी कम कठिन बदलाव नहीं होगा क्योंकि मौजूदा समाज विलासिता और आराम तलबी के जीवन में गुम चुका है। उसे यह विश्वास करना होगा कि उपभोक्तावादी व्यवहार भी जलवायु परिवर्तन के मूल कारणों में से एक है और इसे बदलना ही होगा। मंहगाई और उत्पादन में कमी ने भुखमरी को व्यवस्था की स्थाई समस्या बना दिया है। इसके पीछे उत्पादन की अनियोजित व्यावसायिकता घिनौना खेल खेल रही है, हमें इस पूंजीवादी राजनीति को समझना होगा।
न तो सूरज ने कम की है अपनी गर्मी
न बादलों ने बेंच दिया अपना पानी
हवा भी अपनी चाल से चलती है
मौसम नही हुआ है बेवफ़ा,
पर बदल दी है तुम्हारी जिन्दगी
तुम्हारी ही राजनीति ने
और तोड़ दिया है भरोसे का चक्र!!