Thursday, July 23, 2009

महिला स्वास्थ्य - 4
सत्ता के लिये बेटे की चाहमहिलाओं के स्त्री धर्म में कुल परम्पराओं का पालन करने के साथ एक और बाध्यता वंश को आगे चलाने के लिए एक बेटे को जन्म देने की भी है। यह इसलिए है, क्योंकि समाज में लड़के को ही संपत्ति का हक मिलता है। बेटियों को पराया धन माना जाता है, जिसके कारण पुरूषों की तुलना में महिलाओं की संख्या में लगातार कमी आ रही है। समाज और परिवार की कई परम्पराओं, जैसे दाह संस्कार आदि में भी सिर्फ बेटे को ही भाग लेने की अनुमति है, इसलिए भी बेटे की चाह ही सबसे अधिक होती है, ताकि वह कुल की परम्पराओं का निर्वाह कर सके। भारतीय समाज में यह मान्यता है कि प्रजनन की शक्ति सिर्फ पुरूषों को ही प्राप्त है और यदि कोई महिला बच्चे को, खासकर बेटे को जन्म न दे सके तो उसके लिए पुरूष को नहीं, बल्कि महिला को ही दोषी माना जाता है। अगर किसी महिला को बेटा नहीं होता है तो उसके लिए कई अजीबोगरीब टोटके भी किए जाते हैं। मिसाल के लिए उत्तर प्रदेश के सहारनपुर में ऐसी महिलाएं किसी और के मकान में आग लगा देती हैं, ताकि उसका बेटा पैदा हो।.हालांकि बेटे के साथ एक बेटी की जरूरत भी परिवार में बताई गई है, ताकि वह रक्षाबंधन जैसी परम्पराओं का निर्वाह तो कर ही सके, साथ में घर में समृध्दि का प्रतीक बनकर भी रहे। बेटे की चाह में महिला को बार-बार गर्भपात करवाने से अत्यधिक रक्तस्त्राव होता है जिससे उसे कमजोरी आ जाती है, या फिर शरीर में खून की कमी हो जाती है। इन सबके बाद भी गर्भपात हरेक महिला के जीवन का एक अभिन्न अंग होता है।बचपन से ही लड़कियों के खानपान में पर्याप्त ध्यान न रखने से शादी के फौरन बाद उनमें गर्भपात की संभावना अधिक होती है। गर्भपात के डार से गर्भवती स्त्रियों को नीम जैसी कड़वी चीजें खाने को नहीं दी जातीं। यदि उसे कोई कड़वी दवा देना जरूरी हो तो उसे उसकी जड़ को खाने की सलाह दी जाती है। यह भी माना जाता है कि यदि महिला के शरीर में जरूरत से ज्यादा गर्मी है तो उसे गर्भ नहीं ठहरता। इसके अलावा यह भी माना जाता है कि कोई गर्भवती महिला यदि किसी चौड़ी खाई को कूदकर पार करे तो भी उसका गर्भपात हो सकता है। गर्भावस्था के दौरान बहुत ज्यादा काम करने, वनज उठाने, कड़ी मेहनत करने और कच्चा पपीता खाने आदि को भी गर्भपात करवाने वाला माना जाता है, इसलिए इन पर सख्त पाबंदी होती है। .मध्यप्रदेश के भिण्ड एवं मुरैना जिलों में लड़के एवं लड़कियों की संख्या में लगभग 200 का अंतर आ गया है। इन इलाकों में सामंतवादी प्रवृत्ति है जिसमें यह माना जाता है कि परिवार में लड़की का जन्म होने से ठाकुर की मूंछ नीची हो जाती है। इसके परिणामस्वरूप यहां सोनोग्राफी के जरिये लिंग निर्धारण का गर्भपात कराने की व्यवस्थ बहुत ही सामान्य हो चली है। फिर यदि लड़की का जन्म होता भी है तो उसे अफीम चटाकर, गला दबाकर या भूखे रखकर खत्म कर दिया जाता है। यह नहीं माना जाना चाहिए कि बेटे की चाह केवल गरीब या अशिक्षित परिवारों में है बल्कि सम्पन्न और उच्च शिक्षित परिवार यह वहशीयाना व्यवहार करने में अग्रणी है।संक्षेप में यह कहा जा सकता है कि ये सभी मान्यताएं महिलाओं के पूरक अनुभवों से जुड़े हुए हैं, लेकिन यहां यह कहना मुश्किल है कि क्या इनका गर्भपात से भी कोई नाता है। दूसरा पक्ष - बचपन से लड़की को यही सिखाया जाता है कि शादी ही उसके जीवन का एकमात्र लक्ष्य है और मां बनना सबसे बड़ा सुख। अधिकांश महिलाएं इसे ही अपनी सामाजिक भूमिका के रूप में स्वीकार कर लेती हैं। इसके अन्तर्गत महिला को अपने बच्चों को सही तरीके से परवरिश करना और उनके लिए अपने सुख-दुख का ख्याल न रखते हुए हर तरह से त्याग करने को तैयार रहने को कहा जाता है। इन सबसे बीच महिला की जिंदगी का सबसे दुर्भाग्यपूर्ण क्षण वह होता है, जब वह बच्चे पैदा करने में असमर्थ होती है, या फिर परिवार में बेटे की चाह को पूरा नहीं कर पाती। इसके चलते उसकी जिन्दगी हिंसा, नफरत और अपमान की शिकार होने लगती है।
सचिन कुमार जैन (विकास संवाद)