Friday, December 04, 2009

जलवायु परिवर्तन, कोपनहेगन

जलवायु परिवर्तन, कोपनहेगन और हम


सचिन कुमार जैन

भारत की सरकार ने अपनी नीति जरूर तय कर ली कि वह सन् 2020 तक 25 प्रतिशत और 2037 तक 37 प्रतिशत कटौती कार्बन उत्सर्जन में करेगा; परन्तु इस नीति को तय करने में लोकतांत्रिक नहीं बल्कि आर्थिक-राजनीतिक रणनीति अपनाई गई। भारत के पर्यावरण मंत्री ने भारत की संसद को सूचित किया कि हम कोपनहेगन में अपने इन लक्ष्यों को सामने रखेंगे परन्तु सवाल यह है कि इन लक्ष्यों पर संसद में बहस क्यों नहीं हुई, जन प्रतिनिधियों को खुलकर जलवायु परिवर्तन और कोपनहेगन की राजनीति के बादे में क्यों नहीं बताया गया? इसका दुष्परिणाम यह होगा कि जब इन लक्ष्यों को हासिल करने के लिये सरकार नीतियां और व्यवस्था बनायेगी तब उसे देष के भीतर राजनैतिक-सामाजिक और आर्थिक सहयोग नहीं मिलेगा। भारत सरकार केवल लक्ष्य तय करके अपना दायित्व पूरा नहीं कर सकती है बल्कि उसे स्पष्ट रूप से यह बताना चाहिये कि कार्बन गैसों के उत्सर्जन में इतनी कमी कौन से उद्योगों, कार्यषालाओं और क्षेत्रों से की जायेगी? सरकार को यह समझना होगा कि उसे दबाव में तो रहना ही है, तय यह करना है कि यह दबाव किसका होगा अमेरिका का या भारत के लोकतंत्र का !!
जलवायु परिवर्तन न तो नये जमाने का नया मुद्दा है न ही कोई काल्पनिकता। इस मुद्दे की गर्मी को कई सालों पहले ही महसूस किया जा चुका था। 1972 में रियोडिजेनेरो में हुये विश्व पृथ्वी सम्मेलन के बाद क्योटो और बाली होते हुये हमारी सरकारें कोपनहेगन तक पहुंच चुकी हैं परन्तु इन 37 सालों के बाद भी कार्बन और मीथेन जैसी खतरनाक गैसों का उत्सर्जन बढ़ रहा है। मालदीव की सरकार समुद्र के भीतर और नेपाल की सरकार हिमालय के तल में बैठकर अपने खत्म होते अस्तित्व पर चीत्कार कर रही है और विकासशील देश विकास के दुराचार में लगे हुये हैं। जलवायु परिवर्तन पर यूं तो पहला वैश्विक समझौता सन् 1997 में जापान से क्योटो शहर में हुआ था पर अमेरिका जैसे देशों के जिद्दीपन के कारण यह 16 फारवरी 2005 को लागू हो पाया। इस प्रोटोकाल की अवधि सन् 2012 में खत्म हो रही है इसलिये कोपनहेगन में एक सर्वमान्य समझौता होना एक अनिवार्यता बन गई है। यदि ऐसा नहीं हुआ तो आने वाले कुछ सालों में मालदीव जैसे समुद्री तटवर्ती देश बढ़ते जल स्तर, पिघलते ग्लेषियरों के कारण समुद्र में डूब जायेंगे; मतलब साफ है जलवायु परिवर्तन का संकट गले तक पहुंच चुका है।
सन् 1989 में पहली बार अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर इस सवाल पर समझौते की आधारशिला रखी गई थी और सन् 2009 तक आते-आते जलवायु परिवर्तन का यह सवाल हर जिन्दगी का सवाल बन गया। इसके साथ ही यह वैश्विक आर्थिक राजनीति का केन्द्रीय रणक्षेत्र भी। सैद्धांतिक तौर पर यह माना जाता है कि कार्बन डाई आक्साईड, मीथेन और इसके जैसी अन्य गैसों (जिन्हें ग्रीन हाउस गैस कहा जाता है) के बहुत ज्यादा पैदा (उत्सर्जन) होने के कारण वैश्विक और स्थानीय जलवायु के चक्र और चरित्र में परिवर्तन आता है। इससे कहीं खूब गर्मी पड़ रही है तो कहीं बाढ़ आ रही है और कहीं सूखा अब बार-बार पड़ रहा है। मौसम के चक्र और चरित्र में आ रहे परिवर्तन से आजीविका, स्वास्थ्य, पर्यावरण के ही नहीं बल्कि दुनिया के अस्तित्व के भी सवाल खड़े हो रहे हैं। दुनिया भर की सरकारें अब इस दबाव में हैं कि इस संकट की रफ्तार को धीमा किया जाये। यह एक साधारण मसला नहीं है। जलवायु परिवर्तन का सबसे मूल कारण हमारे विकास का ढांचा और परिभाषा है। जिस तरह के पूंजीवादी केन्द्रीयकृत पर्यावरणविरोधी औद्योगिकीकरण और आर्थिक विकास की नीतियों को दुनिया की सरकारें प्रोत्साहन देती रही हैं उसी से ग्रीन हाऊस गैसों का उत्सर्जन बढ़ा और जलवायु परिवर्तन की चुनौती ने विकराल रूप लिया। इसका सबसे अहम् हल यह माना जाता है कि दुनिया किसी भी तरह से इन गैसों की पैदावार कम करे। क्योटो प्रोटोकाल के तहत यह तय किया गया था कि पूरी दुनिया में दो तरह के देष हैं जो इन गैसों का ज्यादा उत्पादन करते हैं उसे अपने विकास की नीतियों को बदलकर ग्रीन हाऊस गैसों की वृध्दि को रोककर 20 साल पहले के स्तर पर लाना चाहिये। परन्तु ऐसा हुआ नहीं इन देशों ने अपने गैसों के कारखाने बनाये रखे और इन गैसों की मात्रा में 14 फीसदी की बढ़ोत्तारी हो गई। दूसरे तरह के वे देश हैं जो विकासशील हैं, वे गैस का कम उत्सर्जन कर रहे हैं उन्हें अपने विकास का अधिकार मिलना चाहिये; यानि जलवायु परिवर्तन के नाम पर विकासशील देशों को पिछड़ा बने रहने का अभिशाप नहीं भोगना चाहिये। यह तय हुआ कि ऐसे देशों के विकास के लिये विकसित देश मदद भी करेंगे। कई वर्षों से इस पर राजनीति शुरू हुई और अब खूब आगे तक जा चुकी है। राजनीति इसलिये क्योंकि जलवायु परिवर्तन के मामले में ईमानदार कदम उठाने का मतलब है अपने विकास की दर को कम करने का निर्णय लेना। सरकारों को अपनी कई ऐसी नीतियों और योजनाओं को बदलना होगा जो एक तरफ तो उनका औद्योगिक विकास कर रही हैं परन्तु दूसरी ओर जलवायु परिवर्तन की कारण् भी हैं। कई या कहें कि ज्यादातार देश इस मामले पर ईमानदार नहीं हुये। अब दिसंबर 2009 में कोपनहेगन में फिर लोग इकट्ठा हुये। यह क्योटो के बाद दूसरी बड़ी बैठक है। जिसमें राजनीति की दिशा तय हुई। क्योटो के बाद कोपनहेगन तक जलवायु परिवर्तन की राजनीति बेहद संवेदनशील हो गई है। क्योंटो में ग्रीम हाऊस गैस ज्यादा पैदा करने वाले और कम या न पैदा करने वाले देश अलग-अलग पहचान रखते हैं।
कोपनहेगन तक आते-आते दोनों तरह के देशों को एक ही सूची में रख दिया गया। अब दबाव बनाया जा रहा है कि अमेरिका (जो दुनिया की 22 प्रतिशत गैस पैदा करता है) और भारत (जो दुनिया की 4 प्रतिशत गैस पैदा करता है) बराबरी से इन गैसों के उत्सर्जन में कमी लायें। कई सालों तक भारत ने यह नीति अपनाई की हम जिम्मेदार हैं पर हम अपने विकास के अधिकार पर समझौता नहीं करेंगे और दूसरे देशों के द्वारा किये गये अपराधों की सजा भी नहीं भुगतेंगे। इसलिये भारत चाहता था कि विकसित देश अपनी नीतियां और विकास का तरीका बदलें। इस नीति के कारण भारत पर खूब दबाव पड़ा और उसे बाध्य किया गया कि वह भी कार्बन गैसों के उत्सर्जन में कमी लाने का वायदा करे और अंतत: कोपनहेगन की बैठक के ठीक पहले भारत को यह मानना पड़ा कि वह सन 2020 तक कार्बन गैसों के उत्सर्जन में 25 प्रतिशत की कटौती लाने का प्रयास करेंगा; पर वह कानूनी रूप से बाध्य नहीं होगा। राजनीति के नजरिये से यह एक दबाव में लिया गया निर्णय है किन्तु जवाबदेहिता के नजरिये से शायद सही निर्णय भी है। अब भारत जैसे देशों को यह करना होगा कि दुनिया के विकसित देश भी इस जवाबदेहिता को समझें इसके लिये हमें दबाव की राजनीति की दिशा को पलटना होगा। वास्तव में जलवायु परिवर्तन पर एक नजरिया बनाने के लिये विकास की परिभाषा और प्राथमिकताओं पर पुनर्विचार करने की सबसे बुनियादी जरूरत है।
आईपीसीसी के अध्यक्ष आर.के. पचौरी कहते हैं कि हमारे खान-पान की बदलती संस्कृति ने भी जलवायु परिवर्तन में बड़ी भूमिका निभाई है। मांस के उपभोग को इसमें शामिल माना जाये। एक किलो मक्का के उत्पादन में 900 लीटर पानी लगता है परन्तु भैंस के 1 किलो मांस के उत्पादन में 15,500 लीटर पानी की जरूरत होती है। पशुधन को अब केवल मांस के नजरिये से और कृषि, पर्यावरण और आजीविका के नजरिये से कम देखा जाता है। दुनियाभर के अनाज उत्पादन का एक तिहाई का उपयोग मांस के लिये जानवर पालने में होता है। एक व्यक्ति एक हेक्टेयर खेती की जमीन से सब्जियां, फल और अनाज उगाकर 30 लोगों के लिये भोजन की व्यवस्था कर सकता है किन्तु अगर इसी का उपयोग अण्डे, मांस, जानवर के लिये किया जाता है तो केवल 5 से 10 लोगों का ही पेट भर सकेगा। 1 किलो पोल्ट्री मांस के उत्पादन के लिये 2.1 से 3 किलो खाद्यान्न का उपयोग होता है। बात साफ नजर आती है कि नीतियों के साथ-साथ व्यवहारों में भी बदलाव अब एक अनिर्वायता बन चुका है। दुखद यह है कि जीवन शैली में बदलाव की जरूरत अब भी छिपाई जा रही है। इन्टर गवर्नमेंटल पैनल आन क्लाइमेट चेंज (आईपीसीसी) की चौथी आंकलन रिपोर्ट यह साफ तौर पर उल्लेखित करती है कि दुनिया के लोगों को अपनी जीवनषैली में भी बदलाव करना होगा। यह भी कम कठिन बदलाव नहीं होगा क्योंकि मौजूदा समाज विलासिता और आराम तलबी के जीवन में गुम चुका है। उसे यह विश्वास करना होगा कि उपभोक्तावादी व्यवहार भी जलवायु परिवर्तन के मूल कारणों में से एक है और इसे बदलना ही होगा। मंहगाई और उत्पादन में कमी ने भुखमरी को व्यवस्था की स्थाई समस्या बना दिया है। इसके पीछे उत्पादन की अनियोजित व्यावसायिकता घिनौना खेल खेल रही है, हमें इस पूंजीवादी राजनीति को समझना होगा।

न तो सूरज ने कम की है अपनी गर्मी
न बादलों ने बेंच दिया अपना पानी
हवा भी अपनी चाल से चलती है
मौसम नही हुआ है बेवफ़ा,
पर बदल दी है तुम्हारी जिन्दगी
तुम्हारी ही राजनीति ने
और तोड़ दिया है भरोसे का चक्र!!

Tuesday, December 01, 2009

मीडिया - लोकतंत्र

यह मीडिया लोकतंत्र की क्या ख़ाक रक्षा करेगा?


द हिन्दू के पी साईनाथ ने मीडिया के चेहरे पर चढ़ा एक और चेहरा हटा दिया है. पता चला है कि विधानसभा चुनावों के पहले महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री अशोक चव्हान के बारे में - जिसे अशोक पर्व का नाम दिया गया, 47 अखबारों में पूरे-पूरे पेज की सामग्री का प्रकाशन किया गया. इनमे से किसी पर भी इस सामग्री के विज्ञापन होने का उल्लेख नहीं था, यानी यह पूरी सामग्री खबर या लेख के परिभाषा के तहत प्रकाशित की गई थी. दूसरी तरफ इस सन्दर्भ में यह भी महत्व पूर्ण है कि भारत के चुनाव आयोग के निर्देशों के मुताबिक कोई भी उम्मीदवार अपने चुनाव अभियान में 10 लाख रूपए से ज्यादा खर्च नहीं कार सकता है और हर उम्मीदवार को अपने चुनावी खर्चे का हिसाब देना अनिवार्य है. महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री ने चुनाव आयोग को बताया कि उन्होंने चुनाव में 6000 रूपए से भी कम खर्च किया हैं. अशोक चव्हान ने यह नहीं बताया कि मीडिया के गिरते चरित्र का लाभ उठा कर उन्होंने इन 47 अखबारों में छापी नियोजित ख़बरों के लिए कितना भुगतान किया? एक आकलन के मुताबिक इन सामाग्रियों कि कुल कीमत 6.5 करोड़ बैठती है. आप यह भी जान लें कि चुनावों के दौरान ज्यादातर मीडिया जो कहता है या बताता है, वह सुनियोजित और भुगतान की गई सामग्री होती है. जिस तरह से मीडिया का पूंजीवादी और बाजारीकरण हुआ है उसके कारण मीडिया की विश्वनीयता लगभग ख़त्म सी हो गई. पिछले चुनावों में भी उत्तरप्रदेश की लखनऊ सीट के उम्मीदवार लाल जी टंडन ने बेहद खुले शब्दों में कहा था कि वहाँ के एक बड़े अखबार ने उन पर चिनावी पैकेज लेने के लिए दबाव डाला था, और जब उन्होंने अखबार का पैकेज नहीं लिया तो उसने (अखबार ने) उनके खिलाफ खबर अभियान चलाया. उसने माहोल बनाने का काम किया कि लाल जी टंडन हार रहे हैं, पर मीडिया भले ही बिक जाए लोकतंत्र अभी जिन्दा है, इसीलिए मतदाता ने अखबार के सुनियोजित विश्लेषण को नज़रंदाज़ करके उन उम्मीद वारों को हराया जो मीडिया के चुनावी पैकेज खरीद कर चुनाव लड़ रहे थे. गुजरात में काम कर रहे एक वरिष्ठ पत्रकार अशोक उमट ने कहा कि ऐसा होता है और इससे उन अखबारों के लिए चुनौती बढ़ रही है जो इस तरह कि धारा में बहे बिना पत्रकारिता करने की मंशा रखते हैं.
बिना किसी आंकलन या स्रोत के हम कह सकते हैं कि चुनावों में मीडिया पक्षपात करता है और अपनी ताकत के बेंचता है. इस आरोप को कोई चुनोती इसलिए नहीं दे सकता है क्योंकि हम कह्ब्रों को पढ़ कर यह अच्छे से महसूस कर सकते हैं कि कौन सी खबर के लिए भुगतान किया है. यह जांचने के लिए किसी प्रयोगशाला में जाने की जरूरत नहीं है. बस खबर को मन से पढने की जरूरत होती है.
चूँकि अब ख़बरों के मामले में बहुत गड़बड़ हो रही है, इसीलिए उसे छिपाने के लिए मीडिया अखबारों में सामग्री की प्रस्तुति को ऐसा बनाने की जद्दोजहद में है कि नागरिक का ध्यान तथ्यों और वास्तविकता पर न जा पाये. इसे ही रोचकता और पैकेजिंग का नाम दिया गया है. अखबार अब अपनी ख़बरों से नहीं बल्कि पाठकों को पावडर, बाल्टी, छुरी-चाक़ू-छिलनी, जैसी वस्तुओं का लालच देकर आकर्षित करते हैं. मीडिया यह महसूस नहीं कर रहा है कि इस तरह के कर्मकांड करके वह वास्तव में लोकतंत्र के लिए खतरे खड़े कर रहा है. अब एक बार फिर यह बहस होनी ही चाहिए कि क्या मीडिया भी केवल एक बाजारू व्यवसाय है या उससे कुछ ज्यादा? यदि हम इसे पूंजीवादी और अनैतिकता की जमीन पर खड़ी इमारत मानते हैं तो फिर इसमें कोई शक नहीं है आने वाले किसी भी दिन कोई अखबार व्यवसाय की नाम पर आतंकवादी समूहों के लिए लोबयिंग का काम करे. लाभ के लालच में देश और समाज की प्राथमिकताएं भी उलट-पुलट कर दी गई हैं. देश और प्रदेशों के बड़े अखबारों में चाप रहे विज्ञापनों से पता चलता है कि भारत में सबे बड़ी समस्या पुरुषों का लिंग छोटा होना है, इसी लिए एक-एक पेज पर 15-20 विज्ञापन उन दुकानों के होते हैं, जो 500 रूपए के एक पट्टीनुमा यन्त्र से लिंग को बढा कर देने का दावा करते हैं, अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर ऐसा लगता है कि लोगों के निजी जीवन में रोमंच्कता और मित्रता नहीं राह गई है इसीलिए एक विज्ञापन चपता है कि आप फ़ोन पर रोमांचित कर देने वाली बातें करके अपने जीवन में रस भर सकते हैं. कोई और देखे या न देखे पर अखबार का सम्पादक यह क्यों नहीं देखता है कि उसके नेत्रत्व में उसके अखबार में देशी-विदेशी युवतियों से मालिश करवाने के लिए आमंत्रित करने वाला विज्ञापन क्यों छप पहा है. सरकार तो नहीं ही देख रही है इसी लिए मीडिया की जिम्मेदारियां और बढ़ जाती हैं, पर यहाँ तो मीडिया के भ्रष्ट होने की गति सबसे तेज होती जा रही है. कुछ गिने-चुने व्यक्तियों को अगर छोड़ दें तो बाकी को तो संपादक माना ही नहीं जा सकता है, वे अपनी कंपनियों के मुनीम से ज्यादा कुछ नहीं है. समाज और राजनीति दोनों ही स्तरों पर मीडिया के चरित्र का पतन लोकतंत्र के लिए अच्छे संकेत नहीं हैं. अशोक उमट जी का यह मानना भी बिलकुल सही ही लगता है कि भारतीय प्रेस परिषद् जैसे संस्थानों के भी कोई बखत बची नहीं है, अब तो नागरिक पाठकों को ही जंग लड़ना होगी, दुश्मन के खिलाफ भी और मीडिया के खिलाफ भी.