Thursday, April 30, 2009

समाज

महिला स्वास्थ्य और समाज - 2


महाराष्ट्र के गढ़चिरौली जिले में महिलाओं के स्वास्थ्य के मुद्दे पर कार्य कर रही सर्च संस्था के निष्कर्ष बताते हैं कि 92 फीसदी महिलायें किसी न किसी प्रजनन अथवा यौन सम्बन्धी संक्रमण की शिकार हैं। सामुदायकि व्यवहार के अध्ययनों से पता चलता है कि कपड़ों पर नजर आने वाले दागों के साथ-साथ इसे महिलाओं की शारीरिक कमजोरी के साथ भी जोड़कर देखा जाता है। यूं तो इस श्वेत प्रवाह से शरीर के अवशिष्ट पदार्थ ही महिलाओं के शरीर के साथ बाहर आते है। किन्तु सामाजिक स्तरों पर इसे स्त्री की शक्ति और ताकत के बह जाने के रूप में परिभाषित किया जाता है। साथ ही यह भी माना जाता है कि महिलाओं के शरीर में यौन सम्बन्धी अपेक्षायें पुरूषों से ज्यादा होती हैं और इसी 'गर्मी' के कारण श्वेत स्त्राव होता है। जिसे फिर नियंत्रित करने के लिये गर्मी पैदा करने वाले खाने के उपयोग पर प्रतिबंध लगया दिया जाता है। तब महिलाओं को दूध, क्रीम, अण्डे या गुड़ से बने खाद्य पदार्थ खानों को नहीं मिलते हैं। इस तमाम विसंगतिपूर्ण व्यवहारों का परिणाम यह होता है कि महिलायें शारीरिक रूप से कमजोर होती जाती हैं और उनकी प्रजनन क्षमता पर इसका नकारात्मक प्रभाव पड़ता है।भारत जैसे विविधतापूर्ण देश में स्वास्थ्य एवं रोगोपचार का जिक्र आते ही कई तरह के विचार पैदा होते हैं, लेकिन इनमें आयुर्वेद, सिध्द, यूनानी और तिब्बती चिकित्सा प्रणाली जैसे परंपरागत तरीकों पर लोगों का यकीन साफ तौर पर उभरकर आता है। इसकी एक खास वजह यह है कि ये लोग स्वास्थ्य परंपराएं समाज में गहरी पकड़ बना चुकी हैं। समय के साथ इन परंपराओं ने आधुनिक चिकित्सा विज्ञान की चुनौतियों के मुताबिक स्वयं को ढाल लेने में भी कामयाबी प्राप्त कर ली है। आम आदमी के लिए लोक स्वास्थ्य परम्पराओं का अर्थ बीमारियों को दूर कर जीवन देने वाले इलाज से जुड़ा हुआ है। खासतौर पर महिलाओं के लिए तो यह जिंदगी की उन चुनौतियों के समान है जो उसके रोजमर्रा के स्वास्थ्य से जुड़ी हैं और इनसे निपटने के लिए वे इन्हीं परम्पराओं पर आधारित तकनीकों का सहारा लेती हैं। उनके लिए इन परम्पराओं से जुड़ी धारणाएं अब अंधविश्वास से भरे उपायों, टोटकों, लोक रीतियों और भ्रांतियों का पर्याय बन चुकी हैं।अपने आज में हम यह जानने की कोशिश कर रहे हैं कि गर्भवती होने से लेकर प्रसव होने के बाद तक की स्थिति में स्त्री शरीर के भीतर घटने वाली घटनाओं पर समाज और सामाजिक व्यवहार ने कितने व्यापक तरीकों से नियंत्रण कर रखा है। सवाल अभी यह नहीं है कि यह व्यवहार सही है अथवा गलत; पर बड़ा सवाल यह है कि इस पूरी प्रक्रिया में महिलायें कहां हैं?
सचिन कुमार जैन (विकास संवाद)

Tuesday, April 28, 2009

समाज

महिला स्वास्थ्य और समाज - 1


औरत के नजरिये से समाज एक अलग ही रूप में नजर आता है। वह वैसा रचनात्मक और स्वस्थ्य नहीं होता जिस तरह यह पुरूषों के लिये होता है। यहां महिलाओं के लिये गरीबी शायद एक बड़ा बोझ नहीं है परन्तु हर माह, माहवारी के दौर से गुजरना और उनके गुप्तांगों से होने वाले श्वेत द्रव के बहाव के बोझ से वे दोहरी हुई जाती हैं। विज्ञान के नजरिये से तो यह बहुत गंभीर समस्या नहीं है परन्तु समाज इसे स्त्री के चरित्र, उसके भाग्य और जीवन की स्वच्छता से जोड़कर परिभाषित करता है।यह सही है कि प्राकृतिक रूप् से नियमित होने वाली इन प्रक्रियाओं को यदि गंभीरता से न लिया जाये तो यह जानलेवा बीमारियों का रूप ले लेती हैं। और यह बीमारियाँ प्रजनन मार्ग में सक्रमण के रूप में सामने आती हैं। महिलाओं के शरीर में घटने वाली शारीरिक घटनाओं को इतने अलग-अलग रूपों में परिभाषित किया गया है कि उन पर अब खुलकर चर्चा करना भी बुरा ही माना जाता है। यह चर्चा चरित्र के हनन से जुड़ जाती है। यूं तो चिकित्सक इसे एक सामान्य शारीरिक प्रक्रिया मानते हैं और जानकार कहते हैं कि जिस तरह पौधों से नियमित रूप से फलों की उत्पत्ति होती है वैसे ही श्वेत स्त्राव या माहवारी एक औरत की प्रजनन शक्ति का प्रमाण होती है। सामाजिक स्तर पर इसे खुलकर स्वीकार नहीं किया जाता है। सफेद पानी के बवाह की शुरूआत से किशोरी के मन को जीवन भर का बोझ ही मिलता है। वह तनाव में होती है। उसे लगता है कि उसने कुछ ऐसा गलत काम या व्यवहार किया है जिससे उसके जननांगों में से इस तरह का पानी बह रहा है। परिवार की सयानी महिलायें यहां तक की उसकी मां भी इस स्थिति को तकनीकी रूप में समझाने के बजाय अपनी बेटी पर बंदिशें लगाना शुरू कर देती है। वे मानती है कि यदि अब उसकी जवान होती बेटी के किसी पुरूष से शारीरिक सम्बन्ध बन गये तो वह गर्भवती हो जायेगी और यह एक अमित कलंक होगा। अब एक तनाव भीतर पनपने लगता है, एक असुरक्षा आपसी सम्बन्धों में आ जाती है और बेटी के प्रति सहज ही अविश्वास की भावना पनपने लगती है। गांव की दाईयें बताती हैं कि माहवारी या सफेद पानी के बहाव के बारे में कोई चर्चा नहीं करता है। इसका पता तो घर के आंगनों में सूख रहे कपड़ों पर पड़े दागों से ही चलता है। सामान्यत: मासिक धर्म के दौरान पहे गये कपड़ों को अंधेरे में ऐसे स्थान पर सुखाया जाता है जहां परिवार या रिश्तेदारों का आना-जाना नहीं होता है। इसका परिणाम यह होता है कि ऐसे वस्त्रों के धूप में न सूखने या सही ढंग से साफ न होने के कारण संक्रमण का खतरा बढ़ता जाता है। और शरीर की एक सामान्य प्रक्रिया औरत के स्वास्थ्य के लिये अभिशाप बन जाती है।


सचिन कुमार जैन (विकास संवाद)

मध्यप्रदेश और सरकारी शिक्षा

भ्रष्टाचार की पाठशाला

सचिन कुमार जैन


भारत में भ्रष्टाचार की स्थिति पर हुये अध्ययन ने यह निष्कर्ष निकाला है कि बारहवीं कक्षा तक के स्कूलों में छोटे-छोटे काम करवाने के लिये बच्चों के पालकों ने एक वर्ष में 4137 करोड़ रुपयों की रिश्वत दी।
सिवनी जिले की पथरई पंचायत के अल्केसुर गांव की आरोबाई यूं तो खुद निरक्षर है किन्तु उसने अपने बच्चों की जिन्दगी को बेहतर बनाने के लिये बड़े जतन से उन्हें स्कूल भेजना शुरू किया। पर अब उसे शंका है कि क्या वास्तव में शिक्षा के कारण उसके बच्चे के जीवन में सार्थक बदलाव आयेगा। उसके भीतर शिक्षा व्यवस्था के प्रति गहरा क्रोध उबल रहा है, इसलिये नहीं कि वह खुद अनपढ़ रह गई बल्कि इसलिये कि आज की शिक्षा व्यवस्था ही भविष्य के भ्रष्टाचारी नागरिकों का निर्माण कर रही है।
अल्केसुर गांव के शासकीय स्कूल में प्राथमिक स्तर के 80 बच्चे परीक्षा देकर ही दबाव से मुक्त नहीं हो जाते हैं। उन्हें हर परीक्षा के बाद (यानि तिमाही और छमाही परीक्षा के परिणाम जानने के लिये स्कूल शिक्षक को 5 रूपये से 25 रूपये तक की रिश्वत चुकानी पड़ती है। इसके बाद ही उन्हें परिणाम बताया जाता है। इस साल तो रिश्वत न मिलने के कारण एक महीने तक परीक्षा परिणाम ही घोषित नहीं किये गये। इस गांव के लोग गुस्से में तो हैं, पर सरकारी व्यवस्था का चरित्र उन्हें इस भ्रष्टाचार को स्वीकार करने के लिये मजबूर कर देता है। अल्केसुर के 80 बच्चे अनजाने में ही यह सवाल पूछ लेते हैं कि क्या यह हमारे साथ किया गया अपराध नहीं है? यदि है तो फिर अपराधी कौन है और उसे सजा कौन देगा?
शिक्षा एक संवैधानिक अधिकार है और शिक्षा चूंकि बच्चे के जीवन के निर्माण का मूल आधार है, इसलिये इसका कोई दूसरा विकल्प भी नहीं हो सकता। किन्तु शिक्षा की महत्ता ने ही शिक्षा को अब बाजार की वस्तु बना दिया है। यह वस्तु अब बड़े आलीशान मालनुमा स्कूलों में भी बिक रही है और फुटपाथ पर भी। आमतौर पर विश्लेषणों में यह निष्कर्ष निकाले जाते रहे हैं कि शोषण और असमानता के खिलाफ क्रांति का माहौल बनाने में शिक्षा की सबसे अहम् भूमिका होती है क्योंकि शिक्षा बच्चे के सुसुप्त विचारों को जागृत कर उन्हें बेहतर समाज बनाने के लिये प्रेरित करती है। परन्तु अल्केसुर गांव के अस्सी बच्चे जब जागृत मन और मस्तिष्क से अपने परीक्षा परिणाम जानने के लिये किसी और को नहीं बल्कि अपने ही गुरुजी को रिश्वत देने के लिए मजबूर हैं तो यह तय है कि उनके मन पर पड़ी भ्रष्टाचार की यह छाप भविष्य के उनके अपने व्यवहार को भी वैसा ही रूप प्रदान करेगी।
भारत में भ्रष्टाचार की स्थिति पर हुये अध्ययन ने यह निष्कर्ष निकाला है कि बारहवीं कक्षा तक के स्कूलों में छोटे-छोटे काम करवाने के लिये बच्चों के पालकों ने एक वर्ष में 4137 करोड़ रुपयों की रिश्वत दी। भारत में 8.2 करोड़ परिवारों के बच्चे स्कूलों में पढ़ते हैं, जिनमें से लगभग 2.4 करोड़ परिवार शहरी और 5.8 करोड़ परिवार ग्रामीण इलाकों में रहते हैं। इनमें से 0.40 करोड़ शहरी परिवारों और 1.1 करोड़ ग्रामीण्ा परिवारों ने शिक्षा संस्थानों और विभागों में अपने काम पूरे करवाने के लिये रिश्वत दी और जो परिवार ‘रिश्वत के विकल्प’ उपयोग करने के लिये बाध्य हैं, वे एक वर्ष में औसतन 2744 रुपये का भुगतान करते हैं। जिस देश में प्रति व्यक्ति आय 12,416 रुपये हो वहां यह राशि जीवनस्तर को स्पष्ट रूप से प्रभावित करती है।
मध्यप्रदेश में अब यूं भी यह मान लिया गया है कि सरकारी शिक्षा व्यवस्था अब अपने जीवन के अंतिम चरण में है। इसलिये उसकी गुणवत्ता और चरित्र को सुधारने में सरकार की कोई रुचि नहीं है। सरकार की नीतियां बनाने एवं उसे प्रभावित करने वाले (अफसर और जनप्रतिनिधिश् जानते हैं कि शिक्षा का व्यापार आज के दौर में एक शुध्द लाभ का सौदा है। सरकार केवल लोगों को शिक्षा के प्रति जागरूक करने का काम करे और लोग जागरूक होकर निजी स्कूलों में जाकर बच्चों के जीवन निर्माण की सेवा का ऊंचे शुल्क पर उपयोग करे। सरकारी स्कूलों का चरित्र और रूप इस तरह का कर दिया गया है कि अब निम्न और मध्य आय वर्ग के लोगों की प्राथमिकता में भी सरकारी स्कूलों का कहीं कोई स्थान नहीं है।
हालत आज यह है कि मध्यप्रदेश के 26.83 प्रतिशत विद्यालय (लगभग 25 हजारश् कक्षा विहीन हैं। इन स्कूलों में कक्षायें खुले मैदान, पेड़ के नीचे, जानवरों के बाड़े में लगती हैं या फिर लगती ही नहीं हैं। और 2700 इमारतें ऐसी स्थिति में हैं कि किसी भी समय भरभराकर ध्वस्त हो सकती हैं। यूं तो योजनाओं में मास्टर साहब की उपस्थिति को नियमित करने के लिये बहुत से प्रावधान किये गये हैं किन्तु आदिवासी और ग्रामीण इलाकों के प्राथमिक स्कूलों में शिक्षक महीने भर में आठ से ग्यारह दिन ही उपस्थित रहते हैं। ऐसे में बच्चे कितने शिक्षित हो पायेंगे, यह सवाल परिवारों के सामने साल-दर-साल विकराल रूप धारण करता जा रहा है। इस पर भी शिक्षा की गुणवत्ता तो अपने आप में सवालों के घेरे में है। ऐसा कतई नहीं है कि समाज के लोग या कोई बाहरी तत्व पाठयक्रम और शिक्षण व्यवस्था को पंगु बनाते हैं।
वास्तव में सरकार खुद ही भेदभाव और असमानता को पालती-पोसती है। राज्य सरकार अपने स्कूलों के लिये अलग पाठयक्रम संचालित करती है, जिन पर न तो सकारात्मक शोध होते हैं, न ही उन्हें बेहतर करने की कोशिशें। वहीं दूसरी ओर केन्द्रीय स्तर पर केन्द्रीय बोर्ड बिल्कुल आधुनिक शिक्षा के सपने को लेकर चलता नजर आता है। जबकि मान्यता प्राप्त विद्यालयों में राज्य सरकार से बिल्कुल अलग पाठयक्रम संचालित होता है। तमाम विरोधाभासों से भरी स्थिति में अब बच्चे और उनके पालक शिक्षा के बाजार की तरफ रुख करने के लिये बाध्य हैं। सरकारी शिक्षा व्यवस्था मध्यप्रदेश सरकार ने तो पूरी तरह से ठेके के शिक्षकों (जिन्हें शिक्षाकर्मी, संविदा शिक्षक या गुरुजी कहा जाता हैश् को सौंप दी है। ये शिक्षक हैं पर इन्हें न तो शिक्षकों का दर्जा है, न इन्हें प्रशिक्षण दिया जाता है और न ही सम्मान। ये पूरी तरह से अल्पवेतन पर काम करने वाले ‘अस्थाई कर्मी’ होते हैं।
क्या यह आश्चर्यजनक नहीं लगता है कि तीन हजार रुपये मासिक वेतन की यह अस्थाई नौकरी पाने और उसके बाद मनपसंद स्कूल में नियुक्ति के लिए पचास हजार से एक लाख रुपये की रिश्वत चुकाई जाती है। इसे चुकाना इसलिए कहना वाजिब है क्योंकि अब रिश्वत शिक्षा व्यवस्था का एक अहम् अंग बन चुकी है और व्यवस्था के रग-रग में प्रवाहित होती है। भारत भर में इस तरह के 3,79,385 शिक्षकों में से अकेले मध्यप्रदेश में 1,17,502 शिक्षक नियुक्त किये गये हैं। एक आकलन के मुताबिक 41 फीसदी शिक्षकों ने नियुक्ति के लिये औसतन पचास हजार रुपये का शुल्क चुकाया है। यह तय है कि नौकरी पाने के लिये किये गये व्यय को अब ये शिक्षक बच्चों से ही वसूल करेंगे या स्कूल में ताला लगाकर अन्य व्यवसाय में जुट कर आय अर्जन करेंगे।
बात केवल सरकारी शिक्षा व्यवस्था की ही नहीं है। भारतीय भ्रष्टाचार अध्ययन (2005श् के परिणाम स्पष्ट करते हैं कि निजी स्कूल हर वर्ष इमारत के रख-रखाव, शैक्षिक कार्यक्रमों, उपकरणों की खरीद और अन्य सुविधाओं के विस्तार के नाम पर ऊंची राशि वसूल करते हैं। निजी स्कूलों में शिक्षा पाने के लिये परिवार 12 हजार रुपये से लेकर साढ़े तीन लाख रुपये तक का शिक्षा शुल्क चुकाते हैं। और आश्चर्य की बात है कि इन्हें सरकार करों और अन्य सुविधाओं (जैसे जमीनश् में भारी रिआयतें देती है। निजी स्कूलों के बच्चों के पालक भी जानते हैं कि उनसे अलग-अलग रूपों में रिश्वत ली जा रही है, किन्तु अध्ययन के निष्कर्ष यह भी कहते हैं कि बच्चों के भविष्य के प्रति भयाक्रांत रहने के कारण वे विरोध नहीं कर पाते हैं। यदि कोई अभिभावक स्कूल से सवाल पूछता है तो उसके बच्चों के साथ बुरा बर्ताव होता है और उनके परीक्षा परिणाम बिगाड़ दिये जाते हैं। अभिभावकों को यह कभी नहीं बताया जाता है कि रखरखाव और उपकरणों की खरीद के नाम पर लिये गये शुल्क का कब, कहां और किस तरह उपयोग किया गया?
साफतौर पर यह तो नजर आता ही है कि शिक्षा व्यवस्था, फिर वह सरकारी हो या निजी, में प्रबंधन और शिक्षकों की जवाबदेही तय नहीं होती है। वे कानूनी और नागरिक प्रतिबध्दताओं से खुद को स्वतंत्र मानते हैं। यही कारण है कि अब केवल शिक्षा व्यवस्था के प्रबंधन में ही भ्रष्टाचार नहीं है, बल्कि वह शिक्षा के व्यवहार और चरित्र में भी गहराई तक प्रवेश कर चुका है। अल्केसुर गांव तो केवल एक उदाहरण मात्र है। मध्यप्रदेश के हजारों स्कूलों के लाखों बच्चे आज इस भ्रष्टाचार के सूर्यग्रहण को नंगी आंखों से देख रहे हैं और स्वाभाविक है कि इस सूर्यग्रहण का प्रभाव उनकी आंखों पर इतना गहरा पड़े कि समाज को देखने का उनका नजरिया ही पूरी तरह से बदल जाये।
सरकार और नागरिक समूहों को बुनियादी रूप से यह स्वीकार कर लेना चाहिये कि संवैधानिक अधिकार होने के नाते बच्चों को ईमानदारी से शिक्षा और शैक्षिक वातावरण उपलब्ध कराना राज्य की जिम्मेदारी है। खराब वातावरण और भ्रष्ट व्यवहार स्वीकार करते रहना बच्चों की मजबूरी नहीं है। यदि बीमार होती इस व्यवस्था को बदला नहीं गया तो भविष्य के सभ्य समाज को गंभीर चुनौतियां झेलनी पड़ेंगी। शिक्षा व्यवस्था में भ्रष्टाचार बच्चों के साथ होने वाली एक किस्म की हिंसा है और इससे मुक्ति के लिए राज्य-समाज को इच्छा शक्ति दिखानी होगी। (चरखा)

Thursday, April 23, 2009

National Rural Employment Guarantee Act, Social Justice System

NREGA badly needs
a social justice system

Sachin Kumar Jain

Law has been made, claims have also been made that now every rural family has a legal right to employment under revolutionary National Rural Employment Guarantee Act (NREGA) but the truth is that at the ground level the law was totally violated and the Act has remained outside the purview of our judicial system. In Madhya Pradesh average 4000 complaints are coming out from the grassroots, but a legal system to redress these complaints is still awaited. It is with mentioning that NREGA has a closest link to Laborers and their Labour rights, but there is no co-relation is seen with Labour Department and Labour Courts, because this structure has been kept out of the picture. When a Lok Adalat (people’s court) was held at Latehar district of Jharkhand for the first time in country to redress the problems of people regarding National Rural Employment Guarantee Scheme, thousands of people attended it and as many as 21000 complaints were received. The people representing the most deprived sections of society demanded dismissal of officers, their arrest and penalizing them with Rs 25000 each for failing to implement the scheme properly. Not only these demands were rejected by government, but also the issues of unemployment allowance and payment of compensation for failure of paying wages on time were also taken very lightly. This experience of the Lok Adalat proved that the judicial system related to social rights and welfare schemes should be made more effective at that level where it is closest to the villages and accessible to the most deprived sections of the society.The issue is coming up naturally that even without considering the issues of welfare rights, the district courts are burdened with lakhs of cases. As much as 84% of the cases in entire country are being heard at level of district courts and 74 % of these cases are criminal cases. It is a matter of surprise that presently, maximum of cases are being registered under section 138 (bouncing of cheques) or section or non-payment of installments against institutional loans. It is then a question that how much does these sections helps in achieving social justice. Now our arguement is that the district judicial process should be made a part of social justice process - operationally. The way the markets and capitalist forces are working, the judicial system is being used against welfare of people and the system is ignoring the ideology of social justice. Now there is a strong push to involve National and State Legal Authorities in creating system, so that a micro level authorized legal system could be created.I had a chance to attend such a training programme on the topic of `poverty and social justice’, recently, where judges of 100 district courts were present. When they were queried as to how they viewed the cases of poor and deprived people and whether any sympathetic or humanitarian approach was adopted, their replies showed their strict attitude. They said that they were emotionless and if they took sympathetic view towards someone in particular they would not be able to be unbiased. They had almost never registered any cases that defined social justice. The issues related to lands also do not go to them, as the revenue issues are resolved by district courts. Another point is that the district judges do not receive as much socio-political important as the district collector or the superintendent of police, because judges are not really connect to social rights. The matters of rights reach the court only when it becomes a crime. Thus it is imperative that the system should be made more practical and trustworthy in context of social justice. The NREGA (2005) gives any person living in a village in the country the legal right to have employment of minimum 100 days in a year. Under this scheme, the beneficiary has to demand work and the government – through various departments and gram panchayats – has to ensure employment for the applicant within 15 days of demand. This is a legal provision, but the experiences of last three years show that the rights to take action in case of violation of the rule have also been given to the government officials. They could not be considered unbiased in any respect. A study by Centre for Environment and Food Security, conducted in MP shows that more than 50% of the people did not get work even after demanding, which means that the law was violated right from beginning. The Law further states that the person who does not get work would be given unemployment allowance. In MP, during last three years, 16 lakh workers did not get work within due period but the only instance of payment of allowance was at Badwani in year 2007 that too after long drawn efforts by NGO Jagrut Adiwasi Dalit Sangathan. No other instance of payment of allowance was visible after that. In Karahal block of Sheopur district, more than 150 workers are demanding unemployment allowance since more than two years but the officials seem to have pledged to violate the norms. Several malnutrition deaths were reported form these villages but the government did not allow this provision of law to come out of red-tape bound files.Similarly, the ground level studies by the Madhya Pradesh Right to Food Campaign showed that in nine districts there was not a single example where the workers got wages within a week of finishing work as per rules. The rules were completely ignored.If one talks about participation of community in framing of schemes, even this rule was not implemented. The law also gives the gram sabhas the right to conduct social audit of the employment guarantee scheme, but in MP the gram sabhas were ignored and NGOs were given this responsibility. All these things prove that the scheme is in force but the law has become unimportant. This is a big danger for the employment guarantee scheme. We have to understand that the department, administration or government, which has the responsibility to implement a law, would not be unbiased in matters of discrepancies. The system would try to protect its parts – under an objective.Now the question is whether every worker could approach the High Court or the Supreme Court. The answer is no. Since right to employment is a legal matter, it must be ensured that the block or district level, the cases pertaining employment guarantee act should be considered in two ways - Either on basis of complaint or suo-moto. In specific context of MP, it has been seen that in cases of corruption and irregularities related to EGA, the panchayati raj representatives are being removed by using the section 40 of the Panchayati Raj Act. The most negative impacts of these actions are on the women, dalit and tribal sarpanchs. The important thing is that under section 40, the bureaucrats in MP have the rights to remove the elected representatives (sarpanchs) from their posts. In context of EGS, it has been seen that sarpanchs who are illiterate or belong to deprived categories are being used as pawns for corruption and the action was initiated on these representatives. Now the question again is that how many sarpanchs can approach the High Court. How many workers should believe that their legal rights would get legal protection? The big challenge is to ensure that the respect and confidentiality of the society towards the law should remain intact. Thus we need to make our judicial system simple and social, sensitive and bring it closer to people.

जलवायु परिवर्तन

चुनावी जंग में

जलवायु परिवर्तन

के सवाल


सचिन कुमार जैन


गुरूवार, अप्रैल 23, 2009,2:51 [IST]
नई दिल्ली , 23 अप्रैल (आईएएनएस)। दुनिया में बदलते मौसम का असर अब देश के विभिन्न इलाकों पर भी दिखने लगा है। पश्चिम बंगाल के सुंदरवन भारत के सबसे सघन वनों और जैव विविधता वाले वन रहे हैं, वहां विगत 10 वर्षो में जमीन समुद्र के बढ़ते जल स्तर के कारण खारेपन की शिकार हो गई और खेती बर्बाद। राजस्थान में एक रेगिस्तानी गर्म इलाके की व्यवस्था है, वहां बाड़मेर में लगातार वर्षा के कारण बाढ़ आ रही है।
मध्य प्रदेश में खाद्यान्न उत्पादन में 10 से 20 फीसदी और उत्पादकता में 20 फीसदी तक कमी आई है। और पिछले 15 वर्षो से हर साल सूखा पड़ रहा है। मछुआरों की आजीविका लगभग खत्म हो रही है। हड़प्पा-मोहन जोदड़ो की सभ्यता जलवायु परिवर्तन के कारण ही खत्म हुई है।
मौसम में बढ़ती गर्मी, सूखते बादल और हवाओं का बदलता रूख अब हमारे अस्तित्व का सवाल बन रहा है। जलवायु परिवर्तन का असर महज शोध और अध्ययन का विषय नहीं माना जाना चाहिए। यह हमारी जिन्दगी पर सीधा असर डाल रहा है। इससे बीमारियां, महंगााई और मौतें बढेंगी, फिर धरती का सौंदर्य खत्म हो जाएगा।हालांकि आज के चुनावी दौर में प्रचार मंचों पर राजनैतिक दलों के आरोप-प्रत्यारोपों और छिछले वक्तव्यों के बीच कुछ बेहद अहम और बुनियादी मसले खो से गए हैं लेकिन 15 वीं लोकसभा का चुनाव एक मायने में महत्वपूर्ण माना जाएगा कि इस मर्तबा भारत की तमाम राजनैतिक विचारधाराओं ने पहली बार जलवायु परिवर्तन के संकट को अपनी प्राथमिकताओं में शामिल किया है।
अब छिछलापन अभिव्यक्ति के अधिकार में औपचारिक रूप से शामिल होता नजर आ रहा है। पहले कुछ विशेष मामलों में घर्षण नजर आता था, अब यह राष्ट्रीय चरित्र बन रहा है। अब इससे सकल धरेलू उत्पाद वृद्घि में 7 से 11 प्रतिशत कमी आ रही है। फिर भी उम्मीद है, इसके संकेत हमें मिल चुके हैं। अब से कुछ समय पहले तक पर्यावरण और जलवायु परिवर्तन का सवाल केवल संयुक्त राष्ट्र संघ, कुछ विद्वानों या फिर गिनी चुनी संख्याओं का शगल माना जाता रहा किन्तु 15 वीं लोकसभा के राष्ट्रीय पर्व में यह एक चुनावी मसला तो बन ही गया।
भारतीय जनता पार्टी (भाजपा)एक वैचारिक धरातल पर बात करते हुए कह रही है कि वह विकास के लिए स्थाई पारिस्थितिकीय मार्ग का अनुसरण करेगी जो जलवायु परिवर्तन के लिए जिम्मेदार ग्रीन हाउस गैर उत्सर्जन कम करते हैं। और एक, निम्न कार्बन वाली अर्थव्यवस्था का निर्माण करके इस संकट का शमन करने का अवसर है।भाजपा ने जलवायु परिवर्तन के नियंत्रण को समुचित महत्व देने का वायदा किया। इसके लिए ऊर्जा पद्वतियों पर काम, पारम्परिक वर्ष सिंचित फसलों को बढ़ावा देने वाली बाते हैं। इसमें दो संकट हैं पहला तो वे इस नीति में विश्वास करते हैं कि हम विकसित देशों से आर्थिक मदद लेकर कार्बन ट्रेडिंग करें और जंगलों से वन्यप्राणी संरक्षण के नाम पर मानव समाज की बेदखली को ज्यादा बढ़ाएंगे। आश्चर्य है कि भाजपा ने जीवनशैली में बदलाव पर जोर नहीं दिया है।
वह जलवायु परिवर्तन के बहाने सामाजिक वानिकी, निजी भागीदारी को बढ़ावा देने की पहल करना चाहेगी। इससे संसाधनों पर राज्य-निजी क्षेत्र का नियंत्रण बढ़ेगा। भाजपा ने हिमालय के ग्लेशियर को संरक्षण करने की बात की है परन्तु वह चुकी बढ़े बांधों की हिमायती है इसलिए संभव है कि गंगा के उद्गम से ही बांधों की प्रक्रिया को वह तेजी से बढ़ाएगी इसमें वहां से निकलने वाली नदियां, जैसे- गंगा, मर जाएगी।
कांग्रेस अपने विकास के उस मामले को किसी भी तरह से बदलना नहीं चाहती है, जिससे जंगल और प्राकृतिक संसाधनों का विनाश तो हो ही रहा है, बदलते जीवन व्यवहार से उष्मीकरण (गर्मी) बढ़ रही है। उन्होंने कहा कि जलवायु परिवर्तन के लिये बनी राष्ट्रीय कार्ययोजना को आगे बढ़ाएगी। इसमें लोगों की आकांक्षाएं और आर्थिक विकास दोनों को तवज्जो दी जाएगी। मुश्किल यह है कि समाज के व्यवहार को भी हमारी सरकारों ने बदल दिया है, और विलासिता आधारित सेवाएं ही लोगों की आकांक्षाओं के रूप में परिभाषित की जा रही हैं, खासतौर पर कांग्रेस द्वारा। बस मार्क्‍सवादी कम्युनिस्ट पार्टी इस मसले पर शांत दिखी।
भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी ने कुल 7 पंक्तियां इस मसले पर लिखी हैं परन्तु सबसे गहरी और बुनियादी बातें इसमें ही हैं। वह कहती है कि हमें अपने और दुनिया के हितों में घातक उत्सर्जन को कम करना चाहिए पर भारत को दुनिया के कुछ अन्य देशों द्वारा पर्यावरण को पहुंचाए गए ऐतिहासिक नुकसान की भरपाई करने के दबाव से मुक्त होना चाहिए। विकसित और पूंजीवादी देश चाहते हैं कि भारत आर्थिक मदद देकर यहां कार्बन का व्यापार किया जाए, इस तरह की योजनाओं को समूल नष्ट करना होगा।
तमिलनाडु की द्रविड़ मुनेत्र कड़गम (डीएमके) क्षेत्रीय राजनैतिक पार्टी होते हुए भी राष्ट्रीय राजनीति को हमेशा प्रभावित करती रही है। इनके घोषणा पत्र में कहा गया है कि जलवायु परिवर्तन पर हम काम को और आगे बढ़ाएंगे। वन एवं पर्यावरण के विषय संविधान की समवर्ती सूची मे हैं इसलिये राज्य सरकार इसमें कानून नहीं बना सकती है, ऐसे में केन्द्र सरकार यदि कोई कार्यक्रम बनाती है या अनुबंध करती है तो उसे राज्य सरकार से सहमति-संवाद के बाद ही उन्हें अंतिम रूप देना चाहिए, बहरहाल हम केन्द्र सरकार पर दबाव बनाते रहेंगे।
जयललिता की ऑल इंडिया अन्ना द्रविड़ मुनेत्र कड़गम (एआईएडीएमके) ने इस विषय पर एक भी शब्द नहीं कहा है। बहुजन समाज पार्टी घोषणा पत्र जारी नहीं कर रही है। राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी ने जिन्हें देश के लिये अहम मुद्दे माना है उनमें से आधे से ज्यादा केवल आर्थिक और आर्थिक मंदी से जुड़े हैं पर्यावरण, सामाजिक न्याय और जलवायु परिवर्तन नहीं।
समग्रता में देखा जाये तो जलवायु परिवर्तन के संदर्भ में विचारों और व्यवहारों में बड़ा अंतर देखा जा सकता है। लगातार ऐसी वस्तुओं और साधनों को सस्ता बनाया गया है जो हमें आराम तो देती हैं पर पर्यावरण का सत्यानाश करती हैं। उन्हें सीमित करने के बजाये सरकारें उन्हें बढ़ावा देती रही। औद्योगिकीकरण और शहरीकरण ने जैव विविधता और प्राकृतिक व्यवस्था को लगभग ध्वस्त कर दिया है और पिछले 9 वर्षो में भारत का ग्रीन हाउस उत्सर्जन में योगदान दोगुना हो गया है, हांलाकि अब भी यह अमेरिका से 76 फीसदी कम उत्सर्जन करता है।
वर्तमान विकास की परिभाषा और नीतियों से जलवायु परिवर्तन होगा ही जो अब कैंसर, मलेरिया, कोलरा, तपेदिक, तनाव और श्वांस की बीमारियों में बेतहाशा वृ़िद्घ करेगी। इससे समाज पर दोहरा बोझ बढ़ेगा क्योंकि अब स्वास्थ्य सेवाएं भी खुले बाजार में हैं सरकारें इन बीमारियों को पैदा करके स्वास्थ्य सेवाओं के व्यापारियों के लिए नए शिकार पैदा कर रही है। बहरहाल दुखद यह है कि जो विचार और वायदे कांग्रेस, भाजपा, वामपंथी सहित कुछ दलों ने अपने घोषणा पत्रों में दर्ज किए हैं उन्हें लोगों (जिन्हें हम मतदाता कहते हैं) तक पहुंचाने की कोई जद्दोजहद नजर नहीं आई।
जलवायु परिवर्तन के मसले पर गंभीर काम करने की अगर मंशा है तो जरुरूरत थी कि तमाम राजनैतिक दल पहले विकास की परिभाषा की समीक्षा करते क्योंकि खदानों, तकनीकों के असीमित विस्तार, जंगलों की कटाई, कार्बन पैदा करने वाले यंत्रों के बढ़ते उपयोग (फ्रिज, एसी, कम्प्यूटर, मोबाइल आदि) ने पर्यावरण के चक्र को झकझोर कर रख दिया है।
ऐसा साफ दिखता है कि सत्ता में कोई भी राजनैतिक दल आए, नीतियां और विकास की योजनाएं वहीं रहेंगी जो पिछले 20 सालों से चल रही है। यह केवल राजनैतिक व्यवस्था पर ही सवाल नहीं है बल्कि लोकतंत्र के कमजोर होने का संकेत है।
इसका मतलब यह भी है कि वास्तव में प्राथमिकताएं तो सरकार मे वही महत्वपूर्ण मानी जाती है, जो सत्ता को प्रभावित करने वाले वर्ग बना रहे हैं। इसमें बहुराष्ट्रीय कम्पनियां और पूंजी के प्रबंधक अहम भूमिका में हैं। जिन्हें इससे फर्क नहीं पड़ता है कि कौन सत्ता में आ रहे हैं। देश की पूंजीपतियों की सस्था सीआईआई ने कहा भी कि भारत के चुनावों का 50 फीसदी खर्च तो हम उठाते है। जो वह नहीं कहें कि इसका मतलब यह है कि सरकारें वही करेंगी जो हमें चाहिए। मुश्किल यह भी है कि इस मुद्दे को सामाजिक न्याय का मुद्दा नही माना जा रहा है। बेहद जरूरी है कि जलवायु अंकेक्षण (क्लाइमेट आडिट) की व्यवस्था को राष्ट्रीय कार्ययोजना का हिस्सा बनाया जाए और हर वर्ष इसके कारणों पर श्वेत-पत्र जारी किया जाए। और इस संकट की अंतर्राष्ट्रीय राजनीति को समझ कर कदम उठाए जाए।
इंडो-एशियन न्यूज सर्विस।
(सचिन कुमार जैन विकास संवाद से जुड़े हैं और ये उनके निजी विचार हैं।)