Tuesday, December 30, 2008

कुपोषण से मृत्यु और कुछ तार्किक पहलू - 3


सचिन कुमार जैन


बच्चों की आधी आबादी के कुपोषित होने की स्थिति को राष्ट्रीय पोषण सम्बन्धी आपातकालीन परिस्थिति माना जाना चाहिये परन्तु इसके विपरीत हमारी सरकार के पास कुपोषण से मुक्ति के लिये कोई दीर्घकालिक कार्ययोजना या नीति नहीं है। मध्यप्रदेष में स्वास्थ्य नीति नहीं है परन्तु दवा नीति है, यहां कुपोषण एवं बच्चों के संरक्षण के मामले में कोई कार्ययोजना, नीति या दीर्घकालिक वक्तव्य नहीं है किन्तु पोषण आहार की खरीदी के लिये नीति है। मसला बेहद साफ है जहां सामग्री खरीदी की व्यवस्था है वहां अफसरषाही और सत्तारूढ़ लोगों का बाजार की ताकतों के साथ गठजोड़ को कानूनी जामा पहनाने के लिये नीति बना देना सबसे बेहतर रास्ता होता है। केवल राज्य में ही नहीं भारत में भी 17 करोड़ बच्चों के जीवन के अधिकार को सीमित करने वाले इस संकट का सामना करने के लिये केवल एक योजना आईसीडीएस (समेकित बाल विकास सेवायें) चल रही हैं, जिसके प्रति कभी राजनैतिक आदरभाव या प्रतिबध्दता नहीं दर्षायी गयी। और इसके परिणाम स्वरूप हम कुपोषण के खिलाफ कभी कोई जन-अभियान नहीं चला पाये। वैष्विकीकरण के समर्थक नीति निर्माताओं को यह जान लेना होगा कि कुपोषण से मुक्ति के लिये किया गया व्यय बच्चों के लिये कोई रियायत नहीं बल्कि बेहतर विकास के लिये किया गया निवेष है, क्योंकि इसके कारण विकास दर में 3 से 4 प्रतिषत की कमी आती है।

विष्वबैंक ने अपने एक दस्तावेज की शुरुआत एक सवाल से की है - क्या आप जानते हैं कि दुनिया की सबसे गंभीर स्वास्थ्य समस्या कुपोषण है? कुपोषण के कारण सबसे ज्यादा बच्चों की मौतें होती है। विष्व बैंक की पोषण् विषेषज्ञ मीरा शेखर कहती हैं कि जिन 60 फीसदी बच्चों की मौतें मलेरिया, डायरिया, निमोनिया के कारण होती है, उन्हें बचाया जा सकता था, यदि वे कुपोषित नहीं होते तो!! यह भी महज एक संयोग नहीं है कि मध्यप्रदेष में 83 फीसदी बच्चे इसी तरह की बीमारियों से मर रहे हैं जिनका बेहद आसानी से इलाज उपलब्ध है। यह भी एक संयोग मात्र नहीं है कि मध्यप्रदेष में कुपोषण से सबसे ज्यादा मौतें कोल, मवासी, कोरकू, सहरिया आदिवासी समुदायों में हुई हैं। ये वे समुदाय हैं जो प्राकृतिक संसाधनों पर केन्द्रित जीवन जीते रहे हैं और पिछले दो दषकों की विस्थापन और लोक अधिकारों से बेदखली पर आधारित विकास की परिभाषा की मार इन आदिवासियों पर ही सबसे ज्यादा पड़ी है। कभी जंगल के साथ नातेदारी निभाकर अपना पोषण करने वाले थे स्वतंत्र लोग अब कुपोषण के सबसे बड़े षिकार हैं। अब जब भी इनके विकास और आजीविका की बात पर बहस होती है तो हर बहस का अंत मजदूरी के नये सरकारी कार्यक्रम पर आकर हो जाता है।

कुपोषण के मसले को कभी भी आंगनबाड़ी के पोषण आहार या दलिया-पंजीरी से जोड़कर नहीं देखा जाना चाहिये बल्कि आदिवासियों को विकास के इस दौर में असुरक्षा के तनाव ने सबसे ज्यादा प्रभावित किया है। एक ओर तो उनसे उन प्राकृतिक संसाधनों से बेदखल किया गया जहां से उन्हें पोषण, औषधियाँ और सुरक्षा मिलती थी तो वहीं दूसरी ओर सरकारी ढांचों, जिनमें स्वास्थ्य केन्द्र, राषन की दुकान और आंगनबाड़ीे जैसी संस्थायें शामिल हैं, को बेहद लचर, अमानवीय और भ्रष्ट बना दिया गया ताकि सब लोग विकल्पहीनता की स्थिति में निजी अस्पताल, अनाज की निजी दुकानों के उपभोक्ता बनें; फिर चाहे मलेरिया का इलाज कराते-कराते उनकी जमीन का हर टुकड़ा ही क्यों न बिक जाये।
कुपोषण केवल षारीरिक मृत्यु का कारण नही बनता है, बल्कि इससे वयक्ति की सामाजिक स्थिति भी प्रभावित होती है। विकास की परिभाषा का मूल उद्देष्य समाज को एक समतामूलक बेहतर स्थिति प्रदान करना है। ऐसे में व्यापक सैध्दान्तिक योजना बनाते समय सबसे पहले सरकार को यह स्वीकार करना होगा कि पोषण की कमी से एक व्यक्ति का मानसिक और शारीरिक विकास बाधित होता है। मध्यप्रदेष में 30 प्रतिषत बच्चों का जन्म के समय ही वजन ढाई किलो से कम होता है जिसके कारण उनकी दिमागीय संरचना का विकास नकारात्मक रूप से प्रभावित होता है। इसी कारण उसके सीखने (बचपन से) और समझने की ताकत नहीं बढ़ पाती है। ऐसे में जब हम इन बच्चों की षिक्षा की बात करते हैं तो वास्तव में पोषण की कमी के फलस्वरूप षिक्षा से विकास की सोच बेमानी हो जाती है। और जब षिक्षा की स्थिति का विष्लेषण होता है तब बीच में ही स्कूल छोड़ने की प्रवृत्तिा के बारे में भांति-भांति के तर्क दिये जाते हैं। स्पष्ट रूप से पोषण की कमी से सीखने की क्षमता बहुत कम होती है जिससे बच्चे मुख्यधारा की षिक्षा व्यवस्था में टिक नहीं पाते हैं और जब वे षिक्षा व्यवस्था से बाहर हो जाते हैं तो उन्हें सीखने के अवसर भी नहीं मिलते हैं। जिससे उन्हें भविष्य में रोजगार और आजीविका की असुरक्षा का सामना करना पड़ता है। यह असुरक्षा उन्हें और ज्यादा गंभीर कुपोषण की दिषा में बढ़ाती है। एक तरह से यहीं से कुपोषण एक दुष्चक्र का रूप ले लेता है।

कुपोषण के बारे में विष्वबैंक अपनी परिभाषा में कहता है कि जब आपके शरीर को उसकी जरूरत के मुताबिक पोषक तत्व (ईंधन या ऊर्जा) नहीं मिलते हैं तो कुपोषण शुरू होता है। इसका सीधा सा मतलब यह है कि कुपोषण एक दिन में पैदा होने या खत्म होने वाली समस्या नहीं है। जैसे-जैसे आजीविका का संकट और नीतिगत भेदभाव बढ़ते जायेंगे वैसे-वैसे कुपोषण का कुचक्र भी बढ़ता जायेगा। और इसे केवल बच्चों तक सीमित नहीं रखा जाना चाहिये; वास्तव में यह महिलाओं के सामन्य स्वास्थ्य से शुरू होकर मातृत्व स्वास्थ्य का मुद्दा बनता है और फिर गर्भावस्था के साथ पनप कर बच्चों के जीवन से जुड़ जाता है। बेहद दर्दनाक तथ्य यह है कि महिलाओं के साथ होने वाले सामाजिक लिंग भेद आधारित भेदभाव को सरकार कार्यक्रम आयरन-फोलिक ऐसिड से मिटाने का सपना कई सालों से पाले हुये है और उसी को कागज पर सच करने में जुटे हुये हैं। इस झूठे सपने की रोषनी में उन्हें यह तथ्य भी नजर नहीं आया कि मध्यप्रदेष में हर गर्भवती महिला को आयरन-फोलिक एसिड की खुराक खिलाने के लक्ष्य 110 फीसदी तक पूरे करने के दावे सरकार ने किये, फिर भी वर्ष 1998-99 से वर्ष 2005-06 के बीच में गर्भवती महिलाओं में एनीमिया की समस्या 48 फीसदी से बढ़कर 57 फीसदी हो गई है। आज की स्थिति में, जबकि हमें समेकित बाल विकास सेवायें (आईसीडीएस) चलाते हुये लगभग साढ़े तीन दषक गुजर जाने के बाद भी सरकार अपने औपचारिक वक्तव्य में यह कह रही है कि कोल और मवासी या फिर कोरकू आदिवासी खुद अपने बच्चों मौतों के लिए जिम्मेदार है क्योंकि वे जन्म के बाद उन्हें दो-तीन दिनों तक माँ का दूध नहीं पिलाते हैं या बीमार होने पर टोने-टोटके का सहारा लेते हैं या फिर सरकार तो कुपोषित बच्चों को पोषण पुनर्वास केन्द्रों तक लाई, बच्चों के माँ-बाप ही वापस अपने गांव भाग गये बिना इलाज कराये!! इन तर्कों के बारे में केवल एक सवाल पैदा होता है कि यदि आदिवासी परिवार में बच्चों को स्तनपान नहीं कराया जाता है तो फिर स्वास्थ्य एवं महिला बाल विकास के सरकारी कार्यक्रमों में यह हिस्सा कहां था? टोने-टोटके वाले व्यवहार को बदलने की समुदाय आधारित क्या कोषिषें हुई या फिर क्या यह कभी व्यवस्था के नियंताओं को कभी पता नहीं चला कि एक बच्चे को तो आदिवासी मां-बाप पोषण पुनर्वास केन्द्र में ले आते हैं परन्तु उनके साथ उन बच्चों का भी जीवन जुड़ा है जो घर पर हैं और क्या उनके साथ संवेदनषील-मानवीय व्यवहार होता है.....? शायद आदिवासियों के जीवन, व्यवस्था और सवालों को समझने में हमारी व्यवस्था नाकाम रही है। इस नाकामी को बजट के भ्रष्टाचार के साथ ही नहीं बल्कि व्यवस्था के चरित्र के भ्रष्ट आचरण के साथ जोड़कर देखा जाना चाहिये; जिसे हमारी सरकारें बदलना नहीं चाहती हैं ताकि सत्ता पर उनके अपने-अपने कब्जे बने रहें और वही एक मात्र कारण है कि कुपोषण को छिपाने के लिये हर कोई अपने-अपने तर्क गढ़ रहा है फिर चाहे वह कितने ही लचर, अवैज्ञानिक और अव्यवहारिक ही क्यों न हों।

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