Wednesday, December 31, 2008

गरीबी और भूख

गरीबी और भूख का जीवन


सचिन कुमार जैन

दरिद्रता की परिभाषा


गरीब के जीवन में केवल गरीबी नहीं होती है। ऐसे जीवन में केवल सम्पन्नता का अभाव नहीं होता है बल्कि लोगों के पेट में अन्न के दाने नहीं होते हैं, हाथों में रोजगार नहीं होता है और अब जिन्दगी में सम्मान भी नहीं होता है। आज भारत के बीचों-बीच बसे मध्यप्रदेष में एक ऐसा बहुत बड़ा वर्ग है जो दरिद्रता का ऐसा ही जीवन जी रहा है। भुखमरी से अकाल मौत मरना उनकी नियति बन चुकी है। यह एक मजाकिया सच्चाई है कि प्रकृति ने सूखे की मार मारकर उनके गले तो सुखा दिये पर माथे से पसीने की धार बहा दी। सरकार ने लगातार उपेक्षा करके उनकी जिन्दगी के पन्नों को बिखेर दिये और फिर समाज की असंवेदनषीलता ने तेज हवा बहाकर उन पन्नों को तितर-बितर कर दिया। अब स्थिति यह है कि ये गरीब लोग किस सिरे को पकड़ें, कहां से जिन्दगी को संवारे यह समझने के कोई अवसर उनके पास मौजूद नहीं है।
बहुत दिनों से लगातर यह खबरें आती रही हैं कि ग्वालियर-चम्बल अंचल के साढ़े चार लाख आदिवासी भुखमरी की कगार पर हैं पर वे कगार पर नहीं बल्कि भूख से मर रहे हैं। यह समाज हमेषा से जंगल पर निर्भर रहा है। उसने कभी जंगल को नुकसान नहीं पहुंचाया क्योंकि वह जानता था कि जब तक जंगल रहेगा तब तक उनके जीवन में भूखे पेट सोने की नौबत नहीं आयेगी। वह गोंद और ंचिरांजी के बदले अनाज लेता रहा। जंगल से मिलने वाली सियारी लकड़ी से डलिया बनाकर वह छह महीने की जरूरतें पूरी करता रहा परन्तु जंगलों की सम्पन्नता को सरकार ने अपने नियंत्रण में लेकर उसे ठेकेदारों को सौंप दिया। जिन्होंने जंगल पूरी तरह से साफ कर दिये यानी सहरिया को अब न तो गाेंद-चिरांजी मिलती है न सियारी की लकड़ी। इतना ही नहीं जमीन से पत्थर निकालने के लिये खदानें खोदी गई वहां भी सहरियाओं को कुछ वर्षों तक काम मिलता रहा। वह कभी भी अपने जिले (क्षेत्र) के बाहर पलायन करके नहीं जाता था, यह उसका मिट्टी से जुडाव था। यह विकास की एक देन है कि सहरिया को अपने मूल स्थान (षिवपुरी, गुना, ष्योपुर आदि) को छोड़कर जिन्दगी बचाने के लिये दिल्ली, जयपुर और बड़े षहरा की भूल-भुलैया में खो जाना पड़ा। ऐसा नहीं है कि उन्होंने अपने गांव में ही वैकल्पिक अवसरों की तलाष नहीं की। गांव के सम्पन्न किसानों-साहूकारों ने सूखे के दो सालों तक तो उन्हें इस षर्त पर कर्ज दिया कि बदले में वह उनकी खदान और खेत में काम करते रहेंगे। पर अब खेत भी सूखे है और खदानें बंद, तो उन्हें कर्ज मिलना भी बंद हो गया। तब उन्होंने जंगल में पैदा होने वाली समा घास के बीज का दलिया और रोटी खाना षुरू कर दिया। जीवन जो बचाना था। यहां फिर प्रकृति की मार पड़ी। सूखे के कारण समा का बीज भी पूरी तरह से पका नहीं था इसलिये बच्चे और बूढ़े उसे पचा नहीं पाये। परिणाम यह हुआ कि जिन्दगी बचाने की जुगाड़ करते हुये वे मौत की ओर बढ़ते गये।
ऐसी स्थिति में सरकारी स्तर पर और संगठनों की ओर से भी राहत पंहुचाने की कोषिषें हुईं किन्तु अपर्याप्त। षिवपुरी-ष्योपुर के हालात को देखकर प्रषासन ने भी माना कि हम हर गांव में टेंकर से पानी पहुंचाने के लिये तैयार हैं परन्तु जमीनी सच्चाई यह है कि गांव के लोगों के पास बर्तन या टंकियाँ नहीं है जिनमें वे पानी भर कर रख सकें। कराहल तहसील में महिलायें जंगल से लकड़ियाँ बीनकर श्योपुर बेचने जाती हैं। सैकड़ों लोगों के छोटे से जीवन का यह बहुत बड़ा आधार है। ये औरतें ट्रेन से बिना टिकट श्योपुर जाती हैं। यह उनकी मजबूरी हैं ऐसी स्थिति में गिरधरपुर रेल्वे स्टेषन के अधिकारी ने बड़ी पहल की। उनका कहना था कि ये औरतें उधार टिकट ले जायें, अपना नाम दर्ज करा जायें पर बिना टिकट न जायें। तिस पर भी महिलाओं ने इस प्रस्ताव को नहीं माना क्योंकि दस रूपये के गट्ठर के बदले में वे आठ रूपये का टिकट उधार भी लेने में सक्षम नहीं हैं।
इसी गिरधरपुर से निकलने वाली एक नदी में शतावरी और गांगरू की जड़ें मिलती हैं। श्योपुर में बहुत महीनों तक लोगों ने शतावरी और गांगरू की जड़े खोदकर, बेच कर ही जैसे-तैसे भुखमरी से बचने की जुगाड़ की। वे अब तक कई किलोमीटर की नदी इतनी खोद चुके हैं कि षायद ये जड़ें भी वहां नहीं रह गई होंगी। कड़वी सच्चाई यह है कि ये एक दिन में तीन या चार किलो जड़ी निकाल पाते है। जिसके एवज में बाजार से उन्हें मिलते हैं 10 या 12 रूपये।
पशुधन के लिए भी यह अकाल अस्तित्व का संकट बन गया है। श्योपुर जिले में बहुत दूर-दूर तक कहीं भी घांस की जमीन का छोटा सा टुकड़ा भी दिखाई नहीं देता है। पोखर और तालाब में एक बूंद पानी नहीं है और सड़क के दोनों ओर गायों-बैलों के कंकाल आपकी नजरों के दायरे में बने ही रहते है। इन परिस्थितियों में सरकार की सोच संकट को गहरा बना देती है। षिवपुरी के गुराबल गांव में गरीबी हटाओं योजना के अन्तर्गत पांच स्वयं सहायता समूहों को सिंचाई करने के लिये पांच पंप सेट खरीदने के लिये ऋण दिया गया। उस गांव की सच्चाई यह है कि वहां भू-जल स्तर बहुत नीचे जा चुका है, 24 में से 23 कुंए सूखे हुये हैं और 15 दिन में वहां 70 पशु अकाल के षिकार हुये। ऐसे में कर्ज देकर सरकार साहुकार की भूमिका निभा रही है। इसी तरह षिवपुरी में कई गरीबों को आय सम्बर्धन, के लिये बकरी पालने के लिये ऋण दिया गया है, यह बिल्कुल नहीं सोचा गया कि बकरी को खाने के लिए चारा नहीं हैं, पानी नहीं है और अब तो बेरियां भी सूख चुकी हैं। यानी गरीबी को कागजों पर षिद्दत के साथ मिटाया जा रहा है।
इसी दौर में सबलगढ़ तहसील के कई गांवों में साठ फीसदी से ज्यादा लोग पलायन करके जा चुके हैं और वहां अब या तो बच्चे नजर आते हैं या काम कर पाने में अक्षम हो चुके बूढ़े लोग। यह तय है कि सूखे का संकट अभी बहुत गहरायेगा क्योंकि लोग खाने के लिये समा घास की रोटी या बिरचन या ललटेना तो खा सकते हैं पर पानी का विकल्प क्या है? गांव के लोगों को दो से पांच किलोमीटर से पानी ढोकर लाना पड़ रहा है, वह भी ऐसी स्थिति में जबकि उन्हें काम की तलाष करने के लिये ज्यादा समय झोंकने की जरूरत है।
हमारे इसी समाज में मुसहर जाति भी है जो चूहों का पीछा करते हुये उनके बिलों तक पहुंच जाते है और बिलों को खेदकर चूहों द्वारा इकट्ठा किया गया अनाज निकाल लेते है। जिसे साफ करके वे अपना पेट भरते हैं। ऐसे ही गाय के गोबर में कई बार अनाज के दाने रहते हैं जो पचने से बच जाते है। उस अनाज को साफ करके भी लोग भुखमरी से बचने की जुगत भिड़ाते है। मुसहर जाति किसी समय में समाज में मिट्टी और जमीन की पहचान की विषेषता के कारण विषेष स्थान रखती थी। गांव और रियासतों में तालाब बनाने की प्रक्रिया मे उनकी खास भूमिका हुआ करती थी पर आज चूहों का पीछा करना उनकी नियति है।
पेट की आग के सामने बुखार का ऊंचा तापमान भी नजरंदाज कर दिया जाता है। सरकार द्वारा लोगों को काम उपलब्ध कराने के लिये चलाये जा रहे राहत कार्यों के दौरान कई ऐसे लोग देखे जा सकते हैं जिनका शरीर बुखार से तप रहा होता है पर वे सौ क्यूबिक फिट गढ्ढा खोदने का सरकारी लक्ष्य पूरा कर लेना चाहते हैं ताकि पेट भरने के लिये अनाज मिल सके। विडम्बना यह है कि राहत कार्यों के अन्तर्गत मजदूरों को केवल दस किलो गेहूं दिया जा रहा है, नमक, तेल, शकर और खाना पकाने की लकड़ी-माचिस के लिये किसी नकद राषि का भुगतान नहीं हो रहा है। ऐसे मामले मे गेहूं पीसकर, सौ ग्राम आटे में पाव भर पानी और दो चुटकी नमक (कहीं से मांगकर लाते हैं) मिलाकर राबड़ी बनाई जाती है और इस राबड़ी को गटक लिया जाता है।
अकाल की मार काल की मार से कम नहीं होती है और लोग ऐसे संकट में किन परिस्थितियों में अपना जीवन बचाने की कोषिष करते है, इन तरीकों की कल्पना न तो समाज कर सकता है, न ही सरकार। शहडोल जिले की भाठाडांड पंचायत की तैरासा बाई ने अपने दस साल के बेटे को अपने सम्पन्न पड़ोसी को दे दिया। जहां वह जानवर चराने का काम करता है, जिसके बदले में उसे खाने को रोटी और पहनने को पुराने कपड़े मिल जाते हैं। वह कहती है कि घर में कुछ खाने के लिए ही नहीं है जब भूख बहुत दिन की हो जाती है तो दस किलोमीटर दूर अपने मायके जाकर कुछ ले आती हूं। जब कुछ चावल मिलता है तो उसका माढ़ बना लेती हूं, उसका पानी खुद पी लेती हूं और चावल दूसरे बेटे को खिला देतीे हूं।
बेनी बहरा पंचायत के सत्तार साल के रामसहाय गोंड के लिये कोई सरकारी योजना नहीं है, वह ठीक से न तो देख पाते हैं न सुन पाते है। इसलिये भीख मागंने लगे हैं। इससे भी भयावह स्थिति यह है कि गांवों में रहने वाले विक्षिप्त और अक्षम गरीबों को पूरी तरह से नजर अंदाज किया जा रहा है। शहडोल जिले के ही कोतमा ब्लाक की दस पंचायतों में 65 से ज्यादा ऐसे मामले हैं जहां उन्हे किसी पेंषन योजना का लाभ नहीं मिल रहा है। समस्या तब और गंभीर हो जती है जब सरपंच और सचिव यह कहकर अपना पल्ला झाड़ लेते हैं कि अरे वो तो पागल है। क्या पंचायत और समाज की उनके प्रति कोई जिम्मेदारी नहीं है?
अब सरकार की संवेदनषीलता पर सवालिया निषन गहराता जा रहा है। यह बात उनके तर्कों से साफ होती दीखती हैं। षिवपुरी में गरीबी हटाने की योजना में लगे अधिकारी ने एक बैठक में यह कहा कि जब से सूखा पड़ा है बाजार में कुल्हाड़ी की बिक्री तीन गुना बढ़ गई है यानी सहरिया आदिवासी जंगल काटकर पर्यावरण को नुकसान पंहुचा रहा है; यानी जंगल को संतान की तरह पालने-पोसने वाला खुद अपने जीवन के आधार को खत्म करेगा। सरकार यह सिध्द कर देना चाहती है कि आदिवासी जंगल को नुकसान पहुंचाते हैं वहीं दूसरी ओर शहडोल जिले के पंचायत अधिकारी ने दरिद्रों की जन सुनवाई में कहा कि गांवों में लोग अपने वृध्द माता-पिता को घर से बेदखल इसलिये कर रहे हैं ताकि उन्हें 150 रूपये की पेंषन मिलने लगे और लोग जनकल्याणकारी योजनाओं को जीवनयापन का साधन बनाने लगे हैं। वे बहुत दुखी हैं कि लोग बार-बार सरकार से आज या पेंषन की मांग क्यों करते रहते हैं, वे अपने पैरों पर खड़े क्यों नहीं होते। वह अधिकारी पूरी तरह से भूल गये कि लोगों के जीवन यापन के अवसर उन्होंने ही छीने हैं, मजदूरों को चार साल पहले किये गये काम की मजदूरी के दो सौ रूपये अभी तक नहीं मिले हैं जबकि ठेकेदार को तीन लाख रूपये काम पूरा होने से पहले ही मिल जाते हैं। वे इसलिये भी दुखी हैं कि लोग सरकार पर निर्भर हो रहे हैं, यह अच्छे समाज के संकेत नहीं हैं। पर भुखमरी के कारण एक गांव में नौ लोग भीख मांगना शुरू कर दें और दस लोग पगला जायें इससे उनका कोई सरोकार नहीं है।

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