जलवायु परिवर्तन और बुंदेलखंड
नई विकास नीतियों से मध्यप्रदेष के पषुधन पर संकट
सचिन कुमार जैन
कुपोषण के कारण खासा बदनाम हो चुका मध्यप्रदेष इसके निदान के उपायों पर भी संकट खड़ा करता नजर आ रहा है। एक ओर जहां प्रदेष में खाद्यान्न तथा दूसरे कृषि उत्पादों का उत्पादन तेजी से गिर रहा है वहीं दूसरी ओर पषुधन पर बढ़ते संकट से कृषि क्षेत्र के विकास के लिए बाधाएं खड़ी होती नजर आ रही है। अब किसान कहने लगे हैं कि अगर बाकी सारी चीजें ठीक हो भी जाएं, मसलन, पानी और बीज मुहैया करा दिए जाएं, तो भी पषुधन की अनुपलब्धता के चलते कृषि क्षेत्र का विकास बेहद सीमित हो जाएगा। हम मध्यप्रदेष को पहला जैविक खेती वाला राज्य बनाने की बातें कहते है, लेकिन पषुधन के अभाव में हम इस सपने को आखिरकार कैसे पूरा कर पाएंगे। जहां तक राज्य की प्राथमिकताओं का सवाल है, राज्य सरकार हमेषा पषुधन आबादी बढने की बात करती रहती है, लेकिन मौजूदा पषुधन को बचाने के लिए कोई धारणा नजर नहीं आती। प्रदेष के आर्थिक विकास के लिए अहम इन जैविक संसाधनों के लिए चारे, छाया या पीने के पानी के लिए सरकार की योजनाओं में किसी तरह के आर्थिक संसाधन मुहैया नहीं कराए गए हैं। गायों की रक्षा की योजना पूरी तरह से राजनीतिक है और इसका गांवों में किसी तरह का असर कतई नजर नहीं आता। बुंदेलखंड की एक खौफनाक सच्चाई यह है कि यहां गेहूं और पषुओं का चारा लगभग एक ही दाम पर खरीदा जा रहा है। यहां एक ट्रॉली चारे की कीमत करीब 2500 रुपए है जबकि गांववाले इतना ही चारा 2004 में महज 200 रुपए में खरीदते थे। पर्यावरणीय चक्र में गड़बड़ी का भी चारा संकट बढ़ाने में खासा योगदान रहा है। जलवायु परिवर्तन का बुंदेलखंड में असर साफ तौर पर देखा जा सकता है। इसके चलते पिछले सात साल में पान के उत्पादकों तथा किसानों कीे जिंदगी बदल चुकी है। जलवायु परिवर्तन ने बुंदेलखंड के जिलों में कृषि आधारित आजीविका तथा खाद्यान्न उत्पादन में 58 फीसदी की गिरावट से यहां के समाज और उसकी आर्थिक स्थिति को खासा नुकसान पहुंचाया है।
बुंदेलखंड की धरती और यहां के लोग पिछले चार-पांच सालों से लगातार सूखे की विभीषिका झेल रहे है। सूखे ने इन सालाें में स्थानीय ग्रामीणों की सम्मानजनक जीवन जीने की आषाओं पर पानी फेर दिया है। इस साल तो बारिष के बावजूद उनके पास अपनी हालत सुधारने के लिए ज्यादा मौके नहीं मिल पाए। यह अजीब संयोग था कि इस साल बुंदेलखंड में काफी ज्यादा बारिष हुई। अब सवाल यह उठता है कि क्या यह बारिष बुंदेलखंड को लगातार सूखे की वजह से मिले भूख, जल संकट, खाद्य सुरक्षा और आजीविका के संकट से छुटकारा दिलाने के लिए काफी थी। इस साल जब मानसून ढेर सारा पानी लेकर आया तो किसान खाली हाथों और सूनी आंखो से उसे अपनी जमीनों पर बरसते देखते रहे। क्योंकि उनके पास खेती के लिए जरूरी बीज या दूसरे संसाधन खरीदने के लिए पैसे ही नहीं थे। बुंदेलखंड के करीब 76 फीसदी किसान सूखे के इन सालों में अपना लगभग सब-कुछ खो चुके हैं। अपनी खेती की जमीन, पषुधन, संपत्ति और कुछ के तो सिर पर छाया तक नहीं बची। बुंदेलखंड की संस्कृति में कृषि आधारित आजीविका के लिए पशुधन एक अहम कारक माना जाता है। लेकिन दुरर््भाग्यपूर्ण है कि मध्यप्रदेष में कृषि की ही तरह पषुधन संरक्षण के लिए भी कोई नीति नहीं है।
टीकमगढ़ जिले में परहित संस्थान की ओर से किए गए एक क्षेत्र सर्वेक्षण में पाया गया कि बीते चार सालों में बड़ी संख्या में पषुधन हानि हुई है। इस अध्ययन के मुताबिक 10 गांवों में 2004 में जहां गाय, भैंस, बकरी, भेड़ समेत कुल 55400 पषुधन था, यह 2008 में घटकर महज 15960 हो गया। यानी चार सालों में इन गांवों में 71 फीसदी पषुधन या तो चारे और पानी के अभाव में काल कवलित हो गए या जंगलों में पलायन कर गए। बरनहोनी आपदा गांव के परिवारों में अब केवल 1500 पषुधन ही बचे हैं, जबकि चार साल पहले इनके पास 8000 पषुधन हुआ करते थे। सरकारी नियमों में पषुधन के मरने पर मुआवजे का कोई प्रावधान नहीं है। सीधी सी बात है कि राज्य के नियमों में पषुधन को संसाधन के तौर पर गिना ही नहीं जाता। ऐसे में ग्रामीणों का यह कहना जायज ही लगता है कि हम और क्या कर सकते हैं, हम अपने जानवरों को चारा मुहैया नहीं करा सकते, उधर सरकार ने भी उनके लिए चारे या पानी की कोई व्यवस्था नहीं की है। हम उन्हें ऐसे ही मरता नहीं देख सकते, इसलिए उन्हें खुला छोड़ देते हैं ताकि वे अपने लिए जीने का कोई तरीका ढूंढ सकें। जाहिर है कि पषुधन आधारित लोगों की आजीविका अब और भी कठिन हो गई है। ऐसे लोगों की सुरक्षा के लिए तरह की योजना बनाना विकास नीति बनाने वाले लोगों की प्राथमिकता सूची से बाहर है।
मध्यप्रदेष में पषुधन बढ़ाने की कई योजनाओं के बावजूद यहां पषुधन संख्या में लगातार गिरावट दर्ज की जा रही है। 1992 में कुल 28687 हजार पषुधन थे जो 2004 में घटकर 17943 हजार हो गए। यहां भैंस अपने अस्तित्व के लिए जूझ रही हैं, इनकी संख्या 7970 हजार से गिरकर 7026.8 हजार तक पहुंच गई है। इसी तरह 836 हजार भेड़ें तथा 8370 हजार बकरे, बकरी भी घटकर क्रमष: 570.4 हजार व 7530.7 हजार ही रह गए। ये आंकड़े राज्य के वेटनरी विभाग से हासिल किए गए हैं। बजट का प्रावधान भी यह साबित करने के लिए पर्याप्त है कि राज्य सरकार कृषि व पषुधन आधारित समाज के लिए कितनी गैर जिम्मेदार है। मध्यप्रदेष सरकार ने पषुपालन विभाग के लिए कुल 272 करोड़ रुपयों का प्रावधान किया है। इसका मतलब यह हुआ कि गाय या भैंस सरीखे एक जानवर के लिए 0.01 रुपए। वैसे भी इस बजट का 78.31 फीसदी हिस्सा वेतन व अन्य मदों पर खर्च हो जाता है। देष में सबसे ज्यादा दूध उत्पादक पषुधन रखने वाला मध्यप्रदेष दूध उत्पादन के मामले में सातवें नंबर पर है। यह जानकारी भी चौंकाने वाली है कि प्रदेष की कुल घरेलू आय में 6 फीसदी का योगदान करने वाले पषुधन के विकास व संरक्षण के लिए कुल बजट का महज 0.66 फीसदी हिस्सा दिया जाता है।
हाल के वर्षों में एक ओर तो मध्यप्रदेष सरकार ने चराई की भूमि को राजस्व की जमीन में बदलकर निजी या व्यावसायिक हितों के लिए इस्तेमाल किया है। 15 साल पहले तक साझा प्राकृतिक संसाधन या 10-12 फीसदी राजस्व की जमीन का इस्तेमाल चारा उगाने के लिए किया जाता था। लेकिन यह घटकर अब महज 1.5 फीसदी ही रह गया है। इसके चलते ग्रामीणों को मजबूरी में चारा बाजार से बेहद महंगी दरों पर खरीदना पड़ता है। इसके चलते पषुधन के जीने के अवसर भी सीमित हो गए हैं। वहीं दूसरी ओर वन विभाग जंगली जानवरों की सुरक्षा के नाम पर पषुओं को चारे के लिए जंगल में जाने से रोकने पर अड़े हुए हैं। ऐसे में ग्रामीणों और वन विभाग के अधिकारियों के बीच हर दिन होने वाले संघर्षों का कारण आसानी से समझा जा सकता है। वर्तमान में ऐसे संघर्षों के 17682 मामले दर्ज किए जा चुके हैं। ऐसे में यह समझना ज्यादा कठिन नहीं है कि आखिर कौन है जो कानून का उल्लंघन कर रहा है और किस लिए कर रहा है।
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