Wednesday, December 31, 2008

कृषि, किसान

मंहगी कीमत चुकाते किसान

सचिन कुमार जैन


बीस किलो की गोभी, पच्चीस किलो का बैंगन और 35 किलोग्राम वजनी पपीता, लोगों के लिए इस तरह की सब्जियां कोई नई बात नहीं है। संकर बीजों से उपजी यह नए तकनीकी जमाने की पैदावार है। मगर दिल्ली की आजादपुर सब्जी मंडी से रोजाना ताजी फल-सब्जी खरीदने के षौकीन अरुण भल्ला का दावा है कि अब खाने में वह स्वाद नहीं रहा, जो पहले हुआ करता था।
भारतीय किसानों के लिए छोटे से दायरे में ज्यादा पैदावार लेने से संकर बीज वरदान साबित हुए हैं। पर इसके कई नुकसान भी है, मसलन जमीन की उर्वरता में लगातार कमी, ज्वार, बाजरा और मक्का जैसी अन्य फसलों को उगाने में कठिनाई एवं रासायनिक खादों का बढ़ता इस्तेमाल, किसानों को उनकी जमीन से लगातार अलग करता जा रहा है। फिर भी अधिक कमाई के लालच में छोटे और मझौले किसान नकदी फसलों की तरफ ज्यादा ध्यान दे रहे हैं। नतीजतन पेटेंट बीजों का इस्तेमाल बढ़ रहा है। न्यूजीलैंड और भारत के बीच एक समझौता हुआ है, जिसके तहत देष में नाममात्र की कीमत पर फल-सब्जियां और दूध बेचने का प्रस्ताव है। बढ़ती जनसंख्या की वजह से जमीन पर दबाव बढ़ा हैं, जिससे खेतों का आकार लगातार घटता जा रहा है। ऐसे में विदेषी कंपनियों के संकर बीजों से अधिक पैदावार लेकर मुनाफा कमाने का लालच किसानों के लिए आगे चलकर विनाषकारी साबित हो सकता है।
भू-वैज्ञानिकों के मुताबिक नकदी फसलों को बढ़ावा देने और संकर बीजों को प्रोत्साहित करने की सरकारी नीति के चलते पारंपरिक कृषि को गंभीर खतरा हो सकता है। सोयाबीन की खेती से षुरू हुआ यह सिलसिला बाकी फसलों के साथ गेहूं पर भी अपना असर छोड़ चुका है। देष में सबसे ज्यादा गेहूं का उत्पादन करने वाला राज्य पंजाब अब अनाज का आयात करने की स्थिति में पहुंच गया है। अमेरिकी पेटेंट वाली मोनसान्तो कंपनी के बीज इस्तेमाल कर आंध्रप्रदेष के कपास उत्पादक किसान पहले ही बर्बाद हो चुके हैं, जबकि बिहार और उत्तारप्रदेष में संकर बीजों से उपजे लाखों टन धान और आलू की फसल मांग के अभाव में बेकार पड़ी है। अर्थषास्त्री एन.के. मेनन कहते हैं कि साठ और सत्तार के दषक की हरित क्रांति के बाद से भारतीय कृषि की यह सबसे खराब हालत है। संकर बीजों से कम समय में ज्यादा पैदावार तो मिलती है, पर उससे जमीन पर इतना जोर पड़ता है कि बाकी के सीजन में उससे और कोई फसल नहीं ली जा सकती। मेनन के अनुसार यह स्थिति कृषि क्षेत्र में निवेष को उन्मुख विदेषी बहुराष्ट्रीय कंपनियों के लिये तो लाभदायक है, पर भारतीय किसानों के लिये नहीं।
दरअसल इस सारी आफत के पीछे वे विदेषी कंपनियां जिम्मेदार हैं, जो एक सोची-समझी साजिष के तहत विदेषों में प्रतिबंधित बीजों को औने-पौने दाम पर भारतीय किसानों को बेच रही हैं। 'एक बार करो इस्तेमाल, रहो खुषहाल सालों-साल', के नारे के साथ जब कंपनियों के एजेंट रबी और खरीफ सीजन में किसानों को ये संकर बीज मुहैया कराते हैं, तब उन्हें मालूम रहता है कि उनका उपयोग करने वाला हर किसान भविष्य में उनका 'गुलाम' रहेगा। कुछ बीज तो ऐसे हैं, जिनकी पहली फसल काटने के बाद दुबारा उसी जमीन में कोई और फसल ऊगती ही नहीं, सिवाय उसी बीज के। इसी तरह प्रत्येक संकर बीज के लिए रासायनिक उर्वरकों का अपना एक खास अनुपात हैं लेकिन इससे जमीन की लवणता और उपजाऊ प्रवृत्तिा में लगातार कमी देखने में आ रही है।
मेनन बताते है कि कई बड़ी विदेषी और भारतीयों के निजी हित भी किसानों को पारंपरिक खेती के रास्ते से भटकने को बजबूर कर रहे हैं। उनके मुताबिक, फिलहाल किसानों की नजर में सोयाबीन से अच्छी फसल और कोई नहीं। सिर्फ इसलिए क्योंकि एक फसल से जितना मुनाफा किसानों को होता है, उसका दस गुना सोया उत्पादों और तेल के रूप में बड़ी कम्पनियों की जेब में चला जाता है। मगर इससे जमीन को होने वाले नुकसान की ओर ध्यान देने की फुरसत किसी को नहीं है। यही हाल बाकी तिलहन और दलहनी फसलों का भी है। सोयाबीन की एक फसल से जमीन में नाइट्रोजन की मात्रा इतनी बढ़ जाती है कि किसान के पास क्षतिपूर्ति के लिए सिवाय गेहूं की फसल लेने के और कोई चारा नहीं बचता। उस पर भी अगर समय पर बरसात न हुई, तब किसानों को साल भर में एक फसल के साथ ही संतोष करना पड़ता है। यही वजह है कि ज्वार-बाजरा जैसी पारंपरिक फसलों की खेती सीमित होती जा रही है।
भारतीय कृषि अर्थव्यवस्था को इस समय जैव तकनीकी से तैयार बीजों से भी लगातार नुकसान पहुंच रहा है। इसकी सहायता से एक सीमित क्षेत्र में पारंपरिक बीजों के मुकाबले काफी अधिक पैदावार मिलती है। मगर हर फसल के बावजूद बरसात का पानी जमीन में गहराई तक नहीं पहुंच पाता। नतीजा यह कि किसानों को सिंचाई के अतिरिक्त संसाधनों की जरूरत पड़ती है। जिन किसानों के पास सुविधा नहीं होती, वे अपनी फसल को भगवान भरोसे छोड़ना ही बेहतर समझते हैं। आहार विषेषज्ञों का मानना है कि जैविक एवं संकर बीजों से उत्पाद की पौष्टिकता में कटौती हो जाती है। आने वाले दिनों में जब बाजार में संकर बीजों से उपजे फल-सब्जियों की आवक बढ़ेगी, तब खरीदने वालों की सेहत पर भी इनका असर पड़ना लाजिमी है।
यही नहीं, किसानों को अगली फसल के लिए बीज सुरक्षित रखने में भी खासी दिक्कतें पेष आने लगी हैं पहले ज्यादातर किसान फसल के एक हिस्से के रुप में बीज बचाकर रखते थे, परन्तु अब उन्हें फिर से नए बीज लेने होते हैं, क्योंकि पुराने बीजों से उन्हें मनमाफिक पैदावार नहीं मिलती। इन सबके बावजूद कृषि वैज्ञानिक पैदावार बढ़ाने के लिए संकर और जैविक बीजों के ही ज्यादा इस्तेमाल के पक्षधर हैं। दूसरी तरफ किसान भी अधिक कमाई के लालच में उन्हीं के बताए रास्ते पर चल रहे हैं। बकौल मेनन, 'सरकार को मसले की गंभीरता पर विचार करना चाहिए। खासतौर पर इसलिए भी, क्योंकि आने वाले सालों में विदेषी कंपनियों का कृषि क्षेत्र में निवेष और बढ़ेगा। तब अमेरिकी प्रयोगषालाओं से निकलकर कुछ ऐसे बीज भी बाजार में आएंगे, जिनसे ली गई पैदावार को निर्यात के बजाय घरेलू बाजार में ही खपाना होगा।' हाल में अमेरिका भेजे गए भारतीय गेहूं के नमूनों को इस वजह से रद्द कर दिया गया क्योंकि उसमें कीटनाषक डीडीटी के अंष पाए गए थे। भारतीय किसानों के लिए यह कोई नई बात नहीं है, लेकिन उन्हें षायद ही इस बात का पता है कि डीडीटी समेत अधिकांष कीटनाषकों के इस्तेमाल पर बाहर के देषों में पाबंदी है।
यह न तो मुक्त अर्थव्यवस्था का लक्ष्य है और न ही हरित क्रांति का। यह तो कृषि को उद्योग का दर्जा देने की तमाम कोषिषों का नतीजा है, जिसके तहत व्यावसायिक हितों के लिए भारतीय किसानों को जानबूझकर निषाना बनाया जा रहा हैं ऐसे में अगर जल्द ही सरकार की ओर से कोई पहल नहीं की गई तो आंध्र एवं पंजाब की तरह अन्य राज्यों में भी किसान आत्महत्या के लिए मजबूर हो सकते हैं।

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