महिला स्वास्थ्य और समाज - 3
प्रसव से जुड़े सामाजिक व्यवहार
आज के दौर में हमारा पारम्परिक समाज भी संक्रमण के दौर से गुजर रहा है। जहाँ वह न तो अपने पारम्परिक विज्ञान का भलि-भांति उपयोग कर पा रहा है न ही आधुनिक पद्वतियों का। यह एक विडम्ब्नापूर्ण स्थिति है कि प्रजनन से सम्बन्धित समस्याओं को हल करने के बजाये इन्हें महिलाओं के चरित्र के सवाल से जोड़ दिया जाता है। परिणाम स्वरूप उनमें अपराधबोध का जन्म होता है और यह तनाव उनकी मृत्यु का कारण बन जाता है।
प्रजनन स्वास्थ्य का यह सवाल प्रत्यक्ष रूप से सुरक्षित मातृत्व के अधिकार से जुड़ता है। स्पष्ट रूप से कहा जाये तो औरत को एक यंत्र के रूप में हर पल उपयोग में लाया जाता है। पुरूष सत्तात्मक समाज की नजर हर उस क्षण पर लगी रहती है कि कब वह एक उत्पादक की भूमिका में आयेगी। और चूंकि प्रजनन से पुरूष सत्तात्मक समाज के राजनैतिक स्वार्थ जुड़े हैं इसलिये यदा-कदा वह संरक्षक की भूमिका में भी नजर आता है।
मध्यप्रदेश का बुंदेलखण्ड का इलाका एक सामंतवादी इलाका है जहां दलित समुदाय बहुलता में है। वैसे तो गर्भावस्था से लेकर प्रसव के बाद तक की स्थिति में होने वाले व्यवहार में विभिन्न समुदायों के बीच बहुत व्यावहारिक अंतर नहीं है इसीलिये एक इलाके के व्यवहार पर नजर डाल कर व्यवस्था को समझा जा सकता है। बुंदेलखण्ड के क्षेत्र में जैसे ही यह तय हो जाता है कि परिवार की महिला गर्भवती है तो उसकी बांह में या गले में कुल देवता (हर परिवार या कुटुम्ब के एक कुल देवता तय होते हैं, जिनकी नियमित पूजा की जाती है) के नाम पर गंदा या ताबीज बांध दिया जाता है। यह अवस्था आते ही गर्भवती महिलाओं के खान-पान को नियंत्रित कर दिया जाता है। माना यह जाता है कि ज्यादा खाने से बच्चे पर दबाव पड़ेगा या फिर वह बहुत ज्यादा भारी होगा जिससे प्रसव के समय तकलीफ होगी। प्रसव के समय यानी कि नौ माह पूरे होते समय गर्भवती महिला का पेट जितना छोटा होता है उसे उतना ही बेहतर माना जाता है। ज्यादा से ज्यादा श्रम करना गर्भवती महिला और प्रसव के लिये अच्छा माना जाता है। और जब प्रसव पीड़ा होती है तो उसे घी पिलाया जाता है। जैसे ही यह तय हो जाता है कि प्रसव का समय आ गया है वैसे ही गांव की सयानी महिलाओं को इकट्ठा करे दाई को बुलवाया जाता है। प्रसव ऐसे कमरे में करवाया जाता है जिसका सामान्यत: कम उपयोग होता है और हवा-रौशनी कम होती है। गर्भवती महिला को इंटों की बनी एक संरचना पर बिठाया जाता है। उसे पानी में शराब मिलाकर मंत्रपढ़कर पानी दिया जाता है। मूलत: प्रसव का काम दाई ही करती है और बच्चे के पैदा होते ही मां के बालों की एक लट उसके मुंह में दबा दी जाती है। मान्यता यह है कि इससे आंवल (अपरेटा) जल्दी बाहर आ जाती है। गर्भाशय के बाहर आ जाने की स्थिति में दाई अपनी एड़ी (पैर के पंजे के पिछले हिस्से से) गर्भाशय को धकेल कर अंदर करती है। आमतौर पर यही व्यवहार संक्रमण का सबसे बड़ा कारण बनता है। बच्चे के जन्म के बाद अब भी नाल काटने के लिये पुराने धागे या ब्लेड का उपयोग किया जाता है। इसके बाद नाभि पर तेल लगाकर देवी या देवता के नाम पर भभूत (राख) लगा दी जाती है। प्रसव के बाद जिस कमरे में महिला को रखा जाता है वहां पांच दिन तक नियमित आग का धुंआ किया जाता है। जहां तक आहार या भोजन का सवाल है, महिला को प्रसव के बाद गुड़ या गया का दूध दिया जाता है और पीने के लिये 10 दिन तक चरूआ का पानी उपयोग में लाया जाता है। चरूआ एक मिट्टी का घड़ा होता है जिसमें तांबे के सिक्के, खैर की लकड़ी, अजवायन और कुछ जड़ी-बुटियां पानी में मिलाई जाती हैं। इस मिश्रण को इतना उबाला जाता है कि पानी आधा रह जाये। यह पानी पकने पर लाल रंग ले लेता है। इसके साथ ही अगे पांच दिनों तक सम्पन्न परिवारों में घी में गुड़, सौंठ, मेवे एवं हल्दी को उबालकर एक गाढ़ा तरल पदार्थ, जिसे हरीरा कहते हैं, भी खिलाया जाता है। बुंदेलखण्ड के इलाकों में प्रसव के पांच दिन बाद प्रसूता को नहलाया जाता है। उसे नहलाने के लिये नीम के पत्तों, अजवायन को पानी में उबाला जाता है। बच्चे का जन्म होने के बाद 41 दिनों तक छुआ-छूत मानी जाती है। इस अवधि में नवजात शिशु की मां को किसी भी धार्मिक या सामाजिक कार्यक्रम में भाग लेने की अनुमति नहीं होती है। इतने दिनों तक महिलाओं को हरी सब्जी या पत्तेदार सब्जियां खाने में बिल्कुल नहीं दी जाती हैं। छूत की इस अवधि में नवजात शिशु को भी मां से अलग रखा जाता है। महिलाएं किस तरह की स्वास्थ्य समस्याओं का सामना करती हैं और घर से बाहर इलाज के लिए जाने पर उन्हें किन परेशानियों का सामना करना पड़ता है, यह जानने के लिए भारतीय समाज में पुरूष प्रधान कुल परम्पराओं की प्रमुखता पर गौर करना जरूरी है। यह इसलिए, क्योंकि इन्हीं कुल परम्पराओं के कारण ही महिलाएं स्वास्थ्य संबंधी परेशानियों का सामना चुपचाप खामोशी के साथ करती हैं। यदि मर्ज बढ़ जाए तो वे धर्म और अध्यात्म में डूबकर अपनी पीड़ा को भुलाने की कोशिश करती हैं।
भारतीय समाज में पुरूष प्रधान व्यवस्था एक महिला से अच्छी मों और सुघड़ गृहणी बनने की उम्मीद करती है। परिवार में पुरूष भी महिलाओं पर नियंत्रण रखने में इसलिए भी दिलचस्पी रखते हैं, क्योंकि उन्हें लगता है कि अगर वे ऐसा न करें तो परिवार की महिलाएं अपनी यौनेच्छा को पूरा करने के लिए किसी और साधन का सहारा ले सकती हैं और इससे कुल की मर्यादा तो प्रभावित होगी ही, साथ में वंश परम्पराओं पर भी असर पड़ता है। खासतौर पर ब्राम्हणों में परिवार की महिलाओं को कुल की मर्यादा का पालन करने की सख्त हिदायत दी जाती है और यह प्रथा आर्य संस्कृति के जमाने से चली आ रही है। महिलाओं को पतिब्रता और स्त्रीधर्म अपनाने की सलाह दी जाती है। हिंदू समाज में रहने वाली हर महिला को इन वर्जनाओं की जानकारी होती है, क्योंकि शादी से पहले और उसके बाद उन्हें इन्हीं वर्जनाओं के बीच जीना होता है। किशोरावस्था से लेकर गर्भधारण, गर्भपात, मासिक धर्म आदि सभी परिस्थितियों में स्त्री के व्यवहार और उसकी इच्छाओं पर पुरूष प्रधान समाज और कुल का नियंत्रण रहता है।
सचिन कुमार जैन (विकास संवाद)
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