कुपोषण से मृत्यु और कुछ तार्किक पहलू - 1
सचिन कुमार जैन
भारतीय पुलिस सेवा के सेवानिवृत्त अफसर आर. जे. खुराना ने 3 अक्टूबर 2008 को एक अंग्रेजी दैनिक में प्रकाषित अपने एक आलेख में कुपोषण और भुखमरी के संदर्भ में सरकार के भीतरी तंत्र के भ्रष्टाचार का उल्लेख किया। वे कहते हैं कि वर्ष 1963 में जब मैं बिलासपुर जिले के पामगढ़ पुलिस स्टेषन में प्रषिक्षु अफसर के तौर पर पदस्थ था तब एक कोटवार ने गांव में भूख से मौत होने की सूचना दी। उस कोटवार के वर्णन से नये पुलिस अफसर आर. जे. खुराना ने माना कि यह भूख से मौत है, तभी मुख्य मोहर्रिर ने उन्हें यह रिपोर्ट रोजनामचे में दर्ज करने से रोककर कहा, यदि आप भूख से मौत लिखेंगे तो कल सुबह तक आपकी नौकरी चली जायेगी; यह मामला आप छोड़िये। इसके बाद मोहर्रिर अब्दुल करीम ने उस कौषल का उपयोग किया जो उसे सरकार में बने रहने के लिये सिखाये गये थे। अंतत: मौत प्राकृतिक कारणों से सिध्द कर दी गई।
किसी भी व्यवस्था में बच्चों के अधिकारों के पक्ष में खड़े होने का मतलब भेदभाव मूलक सरकार के खिलाफ़ खड़े होना है। मध्यप्रदेष के किसी भी आदिवासी इलाके में रहने वाले परिवार को भूखे रहने का तो अधिकार मिल गया है किन्तु उसे यह वक्तव्य देने का अधिकार नहीं है कि आधा पेट खाने के साथ जीना ही उसकी जिन्दगी का सबसे बड़ा सच है। आज विकास की सबसे तेज गति के दौर में मध्यप्रदेष के सवा करोड़ आदिवासियों में जब एक बच्चा पैदा होता है तो जीवन के सबसे पहले पाठ के तौर पर उसे भूख के साथ जीना सिखाया जाता है। बच्चों के लिए सबसे बड़ी विडम्बना यह है कि मध्यप्रदेष में कुपोषण को विकास के लिये चुनौती या राजनैतिक मुद्दे के रूप में नही बल्कि राजनीतिक विवाद के रुप में स्थापित कर दिया गया है और यह विवाद इस हद तक बढ़ चुका है कि राज्य लगातार कुपोषण को बच्चें की मौत का कारण होने से भी इंकार करता है। स्वाभाविक है कि अब कुपोषण से बढ़कर ''कुपोषण के सच की उपेक्षा'' बच्चों की मृत्यु का सबसे बड़ा कारण बनकर उभर रही है। मध्यप्रदेष में अलग-अलग दौरों की सरकारें लगातार यह सिध्द करने की कोषिषें करती रही है कि प्रदेष में कुपोषण तो है और 50 हजार से ज्यादा बच्चे गंभीर कुपोषण की चपेट में भी है। किन्तु इसके बावजूद यहां कुपोषण् के कारण बच्चों की मौत नहीं होती है। यह तर्क बेहद सतही जान पड़ता है कि क्योंकि यह केवल एक संयोग ही नहीं है कि मध्यप्रदेष कुपोषण के मामले में तो सबसे चिंताजनक स्थिति में है ही, साथ ही यहां देष में सबसे ज्यादा षिषु मृत्यु दर भी है। यह महज एक आंकड़ा नहीं सच्चाई है कि यहां के 63 लाख बच्चे कुपोषण की श्रेणी में आते हैं और षिषु मृत्यु दर के मुताबिक हर साल 1.32 लाख बच्चे अपने पहले जन्मदिन की मोमबत्ताी बुझाने से पहले स्वयं बुझ जाते हैं।
लगातार यह तर्क भी दिया जाता रहा है कि कुपोषण के कारण बच्चों की मृत्यु नहीं होती है, दुर्भाग्य तो यह है कि सरकार के प्रवक्ताओं और अफसरों का नई जानकारियों से कोई सरोकार नहीं रह गया है और लगता है कि हमारे अफसरशाहों और जनप्रतिनिधियों का राज्य की सबसे गंभीर समस्याओं के संदर्भ में प्रषिक्षण या तो होता नहीं है या वह पूरी तरह से गुणवत्ताहीन हो चुका है। वर्ष 2007 में विष्व स्वास्थ्य संगठन, यूनिसेफ और विष्व खाद्य कार्यक्रम ने गंभीर कुपोषण पर एक संयुक्त वक्तव्य जारी करते हुये कहा कि ''गंभीर कुपोषण बच्चों की मृत्यु का प्रत्यक्ष कारण है और गंभीर कुपोषित बच्चों में मृत्यु जोखिम सामान्य बच्चों की तुलना में 5 से 20 गुना ज्यादा होता है।'' इसी संदर्भ में विष्व में स्वास्थ्य के क्षेत्र में सबसे ख्यातनाम इग्लैण्ड की शोध पत्रिका द लांसेट ने जनवरी 2008 में छह श्रृंखलाबध्द शोध पत्रों को प्रकाषित करते हुये बताया कि डायरिया के कारण एक स्वस्थ-पोषित बच्चे की मृत्यु की संभावना अगर 5 प्रतिषत होती है तो उसकी तुलना में एक गंभीर कुपोषित बच्चे की मृत्यु होने की संभावना 16.5 गुना ज्यादा होती है। इतना ही नहीं यदि किसी गंभीर कुपोषित बच्चे को निमोनिया हो जाये तो एक पोषित बच्चे की तुलना में वह साढ़े 10 गुना ज्यादा तेज गति से मृत्यु की दिषा में बढ़ रहा होता है। इसी तरह तमाम संक्रमणों और बीमारियों की स्थिति में इन बच्चों के मृत्यु की संभावना 18 गुना ज्यादा होती है। अगर मध्यप्रदेष बच्चों की मृत्युदर के संदर्भ में इस विष्व स्तरीय अध्ययन का विष्लेषण किया जाये तो एक चिंताजनक तस्वीर उभरकर सामने आती है। राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (तीन) के मुताबिक राज्य में हर एक हजार जीवित जन्म पर 94 बच्चों (पांच वर्ष से कम उम्र के) की मृत्यु हो जाती है। बाल मृत्यु दर में सभी स्तरों (कुपोषित और गैर कुपोषित) बच्चों की संख्या शामिल है। यदि द लांसेट के शोध को वास्तविक आधार माना जाये तो इसका अर्थ यह निकलता है कि गंभीर कुपोषित बच्चों में यह मृत्यु दर 1692 पर पहँची हुई नजर आती है। यानी इन बच्चों के जीवित रह पाने की संभावना को ऋणात्मक आंकड़ों में ही मापा जा सकता है। स्वाभाविक है कि प्रदेष के कुपोषित बच्चों की स्थिति में बदलाव लाने के लिये उन्हें तीन-चार बार भोजन करवाने वाला कदम एक अवैज्ञानिक प्रयास है। इसके लिये ठोस सामुदायिक और समुदाय के प्रति प्रतिबध्द संस्थागत प्रयास करने की जरूरत है।
Tuesday, December 30, 2008
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