Tuesday, December 30, 2008

कुपोषण

कुपोषण से मृत्यु और कुछ तार्किक पहलू - 3

सचिन कुमार जैन


यह सही है कि पारिवारिक खाद्य सुरक्षा को दूर किये बिना कुपोषण की स्थिति से निजात नहीं पाई जा सकती है पर यह आत्मविष्लेषण का विषय है कि सामाजिक, राजनैतिक और आर्थिक प्रतिबध्दताओं के अभाव में समुदाय आधारित विकास का नजरिया ही नहीं बन पाया। विकास की नीतियों से राज्य के एक खास वर्र्ग का तीव्र विकास हुआ किन्तु एक बड़े वर्ग के हाथों से आजीविका के संसाधनों का अधिकार भी छीन लिया गया। देष के भीतर का ही तुलनात्मक विष्लेषण स्थिति को अधिक स्पष्ट कर सकता है। भारत के दक्षिणी राज्यों केरल और तमिलनाडु में बच्चों के पोषण का अधिकार 1970 के दषक में एक राजनैतिक मुद्दा बना था तब से वहां एकीकृत बाल विकास कार्यक्रम वास्तव में बच्चों के जीवन में एक जिम्मेदार भूमिका निभा रहा है। जबकि मध्यप्रदेष की ताजा सच्चाई यह है कि 6 वर्ष तक की उम्र के बच्चों को जहां हर रोज 1200 से 1700 कैलोरी ऊर्जा का भोजन मिलना चाहिये वहां आज उन्हें 758 कैलोरी ऊर्जा का भोजन ही मिल पा रहा है। एक मायने में उन्हें हर रोज केवल एक समय का भोजन मिल रहा है। यह स्थिति आज पैदा नहीं हुई है बल्कि सालों से चली आ रही है। भरपेट भोजन न मिल पाने के कारण् ही आज प्रदेष के मजदूर रोजगार योजनाओं में तय किया गया मजदूरी का लक्ष्य पूरा नहीं कर पा रहे हैं जिसके कारण उन्हें 30 से 50 फीसदी मजदूरी का कम भुगतान होता है। कुपोषण का मुद्दा मध्यप्रदेश में बड़ा होने के बावजूद महत्वपूर्ण नही बन पाया क्योंकि इसे बच्चों का ही मुद्दा माना गया और बच्चों के मुद्दे महत्वपूर्ण नही होते हैं। परन्तु यह तथ्य नही भूला जाना चाहिये कि

बच्चों में कुपोषण के कारण एक दुष्चक्र शुरू हो जाता है। जो बच्चे इसके चंगुल में फंस जाते हैं वे दस्त, खसरा, कुकरखांसी, टीबी, और निमोनिया जैसे संक्रामक रोगों की चपेट में आ जाते हैं। कुपोषित बच्चों में ये बीमारियां ज्यादा गंभीर होती हैं और उनकी अवधि लम्बी होने की संभावना बहुत ज्यादा होती है। दस्त की समस्या से कुपोषण की गंभीरता को सही ढंग से समझा जा सकता हैं वैसे तो दस्त एक सामान्य बीमारी है जिसके बारे में माना जाता था कि पानी में गंदगी के कारण यह बीमारी फैलती है परन्तु बाद में पता चला कि दस्त का समय दूध छुड़ाने की अवधि से मेल खाता है। यह अवधि बच्चों को तरल आहार देने से लेकर स्तनपान समाप्त होने के तीन महीने बाद तक चलती है। यही वह समय होता है जब आम तौर पर बच्चे कुपोषण के शिकार होते है। यह भी देखा गया है कि दूध छुड़ाने में दस्त के तीन गुना अधिक शिकार होते हैं। कम पोषित बच्चे दस्त के अधिक शिकार क्यों होते हैं, जब इसका जैविक अध्ययन किया गया तो पता चला कि बच्चों की छोटी आंत की अंदरूनी सतह पर प्रतिरोधक क्षमता कम होने के कारण बैक्टीरिया की संख्या बढ़ जाती है। इन बैक्टिरिया के कारण उत्पन्न जहरीले पदार्थों से सोडियम को सोखने की प्रक्रिया धीमी पड़ जाती है। बच्चा इसे सहन नहीं कर पाता है और दस्त की समस्या जन्म ले लेती है। यह पाया गया है कि दस्त के दौरान बच्चा प्रतिदिन 600 कैलारी तक गंवा सकता है, कुपोषित बच्चे के लिये यह जानलेवा स्थिति होती है। महाराष्ट्र में किये गये एक अध्ययन से पता चला है कि कुपोषण स्वयं भी रोगो और मुत्यु का बड़ा कारण है। वहां कुपोषण और एनीमिया 31.9 प्रतिशत, ब्रोंकोन्यूमोनिया 21.3 प्रतिशत, आंत्रशोथ 20.2 प्रतिशत मृत्यु के सबसे बड़े कारण थे।

राष्ट्रीय पोषण संस्थान द्वारा किये गये अध्ययन से पता चलता है कि मध्यप्रदेश भारत में कुपोषण का सबसे ज्यादा शिकार राज्य है और यहां बच्चों की रोग प्रतिरोधक क्षमता बहुत क्षीण हो चुकी है। कुपोषित बच्चों पर दस्त का प्रकोप सामान्य से 4 गुना अधिक होता है। खून की कमी की शिकार औंरतों में मातृत्व सम्बन्धी मौतें स्वस्थ्य औंरतों की तुलना में पांच गुना ज्यादा होती हैं। अध्ययनों से पता चलता है कि कुल मरीजों में से करीब तीन-चौथाई की रूग्णता का कारण कुपोषण या उससे जुड़ी अन्य दिक्कतें हो सकती हैं।

इसी तरह जन्म के समय कम वजन जीवन भर की अस्वस्थता का बड़ा कारण होता है। गर्भावस्था के समय उचित आहार न मिलने और घरेलू हिंसा की शिकार होने के कारण महिलाओं के साथ-साथ बच्चों की स्थिति भी खराब हो रही है। स्त्री के प्रति घरेलू हिंसा के कारण बच्चों में स्नायु तंत्र से सम्बन्धित रोगों को प्रतिशत बढ़ा है। राष्ट्रीय पोषण संस्थान की एक रपट के अनुसार वे सभी बच्चे जिनका जन्म के समय वजन कम था, अधिकांश गरीब परिवारों से आते थे। एक तिहाई बच्चों की मौत जन्म के समय कम वजन के कारण ही होती है। इसी तरह कमजोरी के कारण बच्चों पर तपेदिक (टीबी) जैसे संक्रामक रोगों के बढ़ते प्रभाव को भी स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है।

खसरे के संदर्भ में गरीबी और कुपोषण के परस्पर सम्बन्धों को ज्यादा स्पष्ट किया गया है। यह एक आम रोग है, और कभी ही जानलेवा साबित होता है। परन्तु गरीबी में यह अक्सर जानलेवा होता है। जब यह रोग होता है तब बुखार और खांसी होती है, चौथे दिन त्वचा पर लाल दाने दिखने लगते हैं। इलाज होने पर दसवें दिन तक यह दाने ठीक हो जाते हैं। परन्तु कुपोषित बच्चे के संदर्भ में खसरा दूसरा ही रूप दिखाता है। उन बच्चों में लालदाने बढ़ कर चकत्तो का रूप ले लेते हैं और उनका रंग बैंगनी तक हो जाता है। कुछ दिनों में त्वचा पपड़ीदार हो जाती है और झड़ने लगती है। चमड़ी के झड़ने की यह प्रक्रिया इस हद तक बढ़ सकती है कि कुपोषित बच्चे को प्योडर्मा नामक छूत की बीमारी हो जाती है। बच्चे को ब्रोन्काइटिस और निमोनिया भी हो सकता है। अध्ययनों से पता चलता है कि कम पोषित बच्चे के लिये खसरे के कारण मृत्यु का खतरा 400 गुना ज्यादा होता है। हम यदि यह भी स्वीकार कर रहे हैं कि गांवों में दस्त, खांसी, निमोनिया, बुखार और टीबी के कारण बच्चे मर रहे हैं तो इसका अर्थ यह है कि इन कारणों की बुनियाद में भुखमरी से उत्पन्न हुआ कुपोषण ही है, और कुछ नहीं।

मध्यप्रदेष सरकार के जनसंपर्क मंत्री ने कुपोषण पर लिखे आलेख में कोल और मवासी आदिवासियों की स्तनपान के प्रति उदासीनता का मुद्दा उठाते हुये समुदाय को ही बच्चों की लगातार हो रही मौतों के लिये जिम्मेदार बताया। पर उन्होंने मध्यप्रदेष की स्थिति का आंकलन नहीं किया। स्तनपान का मसला केवल आदिवासियों तक सीमित नहीं कर दिया जाना चाहिये क्योंकि मध्यप्रदेष में 47 प्रतिषत बच्चों को जन्म के दूसरे दिन ही माँ का दूध नसीब होता है। मतलब यह है कि केवल आदिवासी माँ-बाप को ना समझ ठहराना उचित नहीं है। ऐसा नहीं है कि केवल आदिवासियों में बच्चों के स्तनपान के प्रति उदासीनता है, छत्तासगढ़ में स्थिति मध्यप्रदेष से बेहतर है वहां 63 प्रतिषत बच्चों को पहले दिन ही माँ का दूध मिल जाता है और वहां उसी दौर में 8 प्रतिषत कुपोषण कम हुआ है जिस दौर में मध्यप्रदेष में 6 प्रतिषत कुपोषण बढ़ा था।

बच्चों की मौतों पर हीं बल्कि विवाद उन मौतों के कारणों पर किया जा रहा है। यह एक अचंभित कर देने वाला सच है कि सरकार को इस बात से इंकार नहीं है कि मध्यप्रदेष में हर रोज 379 बच्चे एक साल से कम उम्र में दम तोड़ देते हैं; इंकार कुपोषण से भी नहीं है, बस इंकार है तो कुपोषण के कारण होने वाली मौतों से। अक्टूबर 2008 में स्वास्थ्य एवं परिवार कलयाण विभाग ने सामाजिक कार्यकर्ता रोली षिवहरे को सूचना के अधिकार के तहत बताया कि मध्यप्रदेष में बच्चों की मौतों के कारणों (जैसे बीमारी) का कोई लेखा-जोखा नहीं रखा जाता है। यदि कोई लेखा-जोखा नहीं है तो फिर मौतों के बाद जांच में इन कारणों का उल्लेख कैसे होता है यह समझ से परे है। एक अहम् सवाल यह भी पैदा होता है कि षिषु मृत्यु और बच्चों की मृत्यु दर के मामले में अव्वल होने के बावजूदद बच्चों की बीमारियों और मौतों के कारणों की निगरानी करने का कोई तंत्र अब तक सरकार ने विकसित नहीं किया है। क्या इसका मतलब यह है कि बच्चों के स्वास्थ्य से सम्बन्धित सारे कार्यक्रम अंधेरे में तीर के रूप में चलाये जा रहे है?

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