Wednesday, December 31, 2008

सर्वोच्च न्यायालय के सहारे


सचिन कुमार जैन

शहडोल जिले के सोहागुपर विकासखण्ड के नरवार गांव की झनिया बाई को गांव के लोग यदा-कदा अपने घरों से कुछ खाना देकर भुखमरी से बचाने की कोषिष करते रहे। फिर भी उस विधवा, वृध्द और अकेली महिला को दो दिन मे एक ही समय भोजन मिल पाता है। झनिया बाई को जनकल्याणकारी योजना के अन्तर्गत लाभ दिलाने के लिये ग्राम पंचायत द्वारा तीन बार प्रस्ताव प्रषासन को भेजे जा चुके हैं और सरपंच भी उनके मामले में हार मान चुकी थी और प्रषासन की कार्रवाई का आलम यह है कि अभी उनके आवेदन पर पटवारी यह जांच करता रहा कि झनिया बाई के पास कोई जमीन या जायदाद तो नहीं है? मध्यप्रदेष में विकेन्द्रीकरण की क्रांति पर यह एक बड़ा प्रष्न चिन्ह है क्योंकि जब पूरा गांव कह राह है कि झनिया बाई भूखी है, अकेली और गरीब है, जरूरतमंद और लाचार है, उसके पास कोई सम्पत्ति नहीं है तब भी उसे अमानवीय प्रक्रिया से मौत के करीब पहुंचाया जा रहा है। पति की मृत्यु के उपरांत तीन वर्ष गुजर जाने के बाद भी उसे राष्ट्रीय परिवार सहायता योजना का फायदा नहीं मिला। झनिया बाई को पिछले साल तक सरकार की अन्नपूर्णा योजना के अन्तर्गत दस किलो राषन मिलता रहा परन्तु अचानक जनवरी 2003 में यह योजना सरकार द्वारा बंद कर दी गई और इस दौरान उसे किसी दूसरी योजना का लाभ नहीं मिला। तब वह बिल्कुल भुखमरी के कगार पर पहुंच गई और अब बामुष्किल अपने पैरों पर खड़ी हो पाती है। आखिरकार उस एक महिला की जिन्दगी बचाने के लिए भोजन के अधिकार अभियान को प्रशासन को संवेदनशील करने की कोशिशें करनी पड़ी।
लोकतंत्र में आदमी को भुखमरी से बचाने और समाज में खाद्य सुरक्षा की स्थिति को बहाल करने के उद्देष्य से सर्वोच्च न्यायालय में लड़ी जा रही लड़ाई के दौरान 2 मई 2003 के अपने एक अंतरिम आदेषों में न्यायालय ने कहा है कि बूढ़े एवं लाचार व्यक्तियों, विकलांगों, बेसहारा महिलाओं और बूढ़े पुरूषों जो कि भुखमरी के कगार पर हों, गर्भवती महिलाओं, बच्चों को दूध पिलाने वाली माताओं और बेसहारा बच्चों के लिये भोजन की उपलब्धता सुनिष्चित करना, लोगो को भूख से बचाना केन्द्र एवं राज्य सरकार दोनों की जिम्मेदारी है। केवल योजनायें बना देना, जिनका क्रियान्वयन न हो, किसी काम का नहीं है। महत्वपूर्ण यह है कि भोजन भूखे तक पहुंचे।
परन्तु अभी भी लोग भुखमरी की कगार पर हैं। सरकार ने अन्नपूर्णा योजना को बंद करके यह प्रावधान किया था कि जो गरीब और पात्र लोग किसी भी योजना का लाभ हासिल नहीं कर पा रहे हैं एवं बन्द की गई अन्नपूण्र् योजना के हितग्राही, सभी को अन्त्योदय अन्न योजना का लाभ दिलाया जायेगा। अन्नपूर्णा योजना में गरीब और निराश्रित लोगों को दस किलो मुफ्त अनाज वितरित किया जाता रहा परन्तु अब उन्हें दो रूपये किलो के मान से गेंहू और तीन रूपये किलो के मान से चावल खरीदना होगा। झनिया बाई हाथ जोड़कर यह सवाल करती है कि मैं कहां से गेहूं-चावल खरीदूंगी? इससे आगे बढ़कर अभी तक की स्थिति यह है कि अन्नपूर्णा योजना के हितग्राहियों और ज्यादातर जिलों में अभी तक वितरित नहीं किये गये हैं। सर्वोच्च न्यायालय के दखल के बाद ही सरकार ने यह तय किया है कि मध्यप्रदेष में रहने वाले सात लाख उपेक्षित सहरिया, बैगा और भारिया आदिम जनजातियों को तत्काल इस योजना का लाभ मिले। सहरिया बहुल षिवपुरी जिले में तो प्रषासन ने इस काम की संवेदनषीलता को समझा परन्तु श्योपुर जिले में आदिवासियों की स्थिति बदतर है। जबकि बैगा बहुल शहडोल जिले के सोहागुपर विकासखण्ड में कार्ड का वितरण दो माह तक केवल इसलिये नहीं किया क्योंकि नोडल अधिकारी अवकाष पर गये हुए थे और प्रषासन बिना उनके हस्ताक्षर के कार्ड जारी नहीं करना चाहता है। फिर चाहे झनिया को हर रात भूखे ही क्यों न सोना पड़े ?
जनकल्याणकारी योजनाओं और भुखमरी की स्थिति पर नजर रखने, विष्लेषण कर सुझाव देने के लिये पीयूसीएल विरूध्द भारत सरकार एवं अन्य (2001) के मामले मे सर्वोच्च न्यायायल ने दो आयुक्तों के रूप में एन. सी. सक्सेना और एस. आर. शंकरण की नियुक्ति की है। यह देखा गया है कि जब भी भुखमरी या योजनाओं के भ्रष्ट क्रियान्वयन के मामले जब भी सीधे जिला अधिकारियों के संज्ञान में लाये गये हैं तब बहुत ही कमजोर और औपचारिक कार्रवाई हुई है किन्तु जब एन. सी. सक्सेना के जरिये मामले सर्वोच्च न्यायालय की जानकारी में लाये गये तब प्रषासन और सरकार को ताबड़तोड़ कार्रवाई करनी पड़ी। मध्यप्रदेष के सन्दर्भ में कोतमा (षहडोल) के 120, डही (धार) के 52, सेंधवा (बड़वानी) के 40 मामले तत्काल निराकृत किये गये; किन्तु अब सरकार मामले छिपाने लगी है। अब यह अनुभव पुख्ता होता जा रहा है कि राज्य सरकार उन्हीं मामलों में कार्रवाई करेगी जिन्हें सर्वोच्च न्यायालय के आयुक्त के माध्यम से उठाया जा रहा है और प्रषासन स्व-विवेक से जिम्मेदारी निभाने की पहल नहीं कर रहा है। इसके बावजूद अब राज्य सरकार के तंत्र में न्यायालय के प्रति भी प्रतिरोधक क्षमता विकसित होने लगी है। शिवपुरी में पिछले तीन महीनों से आंगनबाड़ियों में पोषण आहार नहीं बंट रहा है और सर्वोच्च न्यायालय के हस्तक्षेप के बावजूद इस दिशा में कोई पहल नहीं हुई है।
दूसरे नजरिये से विष्लेषण किया जाये तो पता चलता है कि राज्य सरकार और जिला प्रषासन इस मामले में भारी दबाव में है। कारण साफ है कि अब राज्य में भूख से होने वाली हर मौत के लिए राज्य स्तर पर मुख्य सचिव और जिले स्तर पर कलेक्टर को जिम्मेदार माना जायेगा। स्वाभाविक है कि भूख से कोई एक दिन में नहीं मरता है, वह रोज मरता है और प्रषासन उसकी उपेक्षा करता रहता है। दबाव में होने के बावजूद वह गंभीर और संवेदनषील नहीं है। न्यायालय ने अपने हाल के आदेष में कहा था कि राषन की दुकानों के जो संचालनकर्ता पूरे माह निर्धारित समय तक न खोलते हों या गलत सूचनायें भरते हों उनके लायसेंस बिना सरकारी ढिलाई के तत्काल प्रभाव से रद्द कर दिये जाने चाहिए। 'भोजन का अधिकार अभियान समूह' द्वारा धार, शहडोल, देवास, रीवा और पन्ना जिले की 55 राषन दुकानों का अवलोकनात्मक अध्ययन किये जाने पर पता चला कि वहां अब भी 48 दुकानें माह में औसतन 7 दिन ही खुल रही हैं। फिर निर्देषों के बावजूद किसी भी राषन की दुकान पर गरीबों को अपने हिस्से का अनाज किष्तों में खरीदने की सुविधा नहीं दी गई है। साध ही दुकान चलाने वाले ऐसे लोगों के भी लायसेंस तत्काल रद्द करने के निर्देष हैं जो हितग्राहियों के राषन कार्ड अपने कब्जे में रखते हैं। अंदरूनी ग्रामीण क्षेत्रों में तो आज भी यह आम बात है। धार जिले की डही पंचायत के अन्तर्गत गरीबों की रेखा के नीचे रहने वाले अस्सी फीसदी लोगों के राषन कार्ड बनियों या राषन की दुकान वालों के पास गिरवी रखे हैं जिसके एवज में उन्हें हर माह 20 रूपये मिलते हैं। इसके आगे वे बनिये और राषन दुकान वाले मिलकर सस्ता अनाज स्थानीय मैदा मिलों को बेच रहे हैं।
ऐसी स्थिति में सबसे बड़ी अदालत ने एक बार फिर सरकार को संविधान का 21 वां अनुच्छेद याद दिलाया है और सवाल उठाया है कि हर नागरिक को मानवीय गरिमा के साथ जीने का अधिकार दिया गया है। क्या वे परिवार, जो गरीबी की रेखा के नीचे जी रहे हैं, अपने जीने के लिये सही किस्म की योजनाओं और उनके क्रियान्वयन के अभाव में संविधान में दिये गये इस अधिकार से वंचित नहीं है ? क्या ये सरकार की जिम्मेदारी नहीं है कि इन्हें जरूरी मदद दी जाये ताकि ये जी सकें। वास्तव में शहडोल की झनिया बाई कोई काल्पनिक पात्र नहीं है, वह उदाहरण है उस व्यापक समूह की, जो सरकार की योजनाओं के गैर जिम्मेदार और अप्रभावी क्रियान्वयन के कारण भुखमरी के कगार पर पहुंच रहा है।

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