Wednesday, December 31, 2008

पलायन

पलायन का जीवन


सचिन कुमार जैन

संसाधनों और आजीविका के अवसरों के अभाव में गरीबों, खासतौर पर दलितों और आदिवासियों के जीवन में पलायन एक कड़वी सच्चाई बन जाता है। अपने और अपने परिवार की बहुत बुनियादी और सूक्ष्मतम जरूरतों को पूरा करने के लिए जब ऐसे समुदायों को अपने गांव और सामुदायिक संगठनों के करीब जीवनयापन के कोई अवसर उपलब्ध नहीं होते हैं तब उन्हें अपना गांव, अपना घर, अपना पशुधन और परिवार के बूढ़े सदस्यों को छोड़कर रोजी-रोटी की तलाश में खुले बाजार में आ जाना पड़ता है। जहां उनके अपने लिए और महिलाओं-बच्चों के लिए कोई सामाजिक, आर्थिक या कानूनी सुरक्षा नहीं मिलती है। पलायन का मतलब केवल अपना गांव छोड़कर किसी दूसरी जगह रोजगार करने जाना नहीं है बल्कि पलायन उनके आत्म सम्मान, समुदाय, परम्परा और सांस्कृतिक आधार को मजबूरी में त्यागने का वातावरण बना देता है। अध्ययन बताते हैं कि लगभग दो करोड़ लोगों के पास आजीविका के सुरक्षित और स्थायी साधन न होने के कारण उन्हें पलायन का रास्ता अख्तियार करना पड़ता है और इस दौरान उन्हें कदम-कदम पर शोषण और हिंसा का सामना करना पड़ता है।

पलायन के दस प्रभाव

1. यह तथ्य साफ तौर पर उभरकर आया है कि पलायन के दौरान आदिवासी महिलाओं का चरम स्तर तक शोषण होता है।
2. पलायन के कारण बच्चों को स्कूल छोड़ देना होता है।
3. परिवार के बुजुर्ग, विकलांग सदस्यों और गर्भवती महिलाओं को अकल्पनीय पीड़ा का सामना करना पड़ता है। उनके लिये कोई सुरक्षा व्यवस्था नहीं होती है।
4. पलायन अपने आप में साहूकार-महाजन के कर्ज के जाल में फंसने का कारण बन जाता है।
5. कई बार उन्हें अपना पशुधन बेचना पड़ता है और उनके कच्चे घर नष्ट हो जाते हैं।
6. हालांकि पलायन रोजगार के लिए होता है परन्तु इसके दौरान उनका नियोक्ता द्वारा कम मजदूरी देकर शोषण किया जाता है।
7. यह एक बिल्कुल असुरक्षित समयावधि होती है जब स्वास्थ्य के नजरिये से उन्हें तकलीफदेय अनुभवों से गुजरना पड़ता है।
8. जब लोग पलायन करते हैं तो जनकल्याणकारी राज्य की कानून व्यवस्था उन्हें संरक्षण देने के बजाय उन्हें अपराधी घोषित करके भ्रष्ट व्यवहार करती है। यह एक महत्वपूर्ण पहलू है कि पलायन दलित और आदिवासी समुदायों का स्थायी व्यवहार बनता जा रहा है और इस दौरान उन्हें अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जन जातियों के संरक्षण के लिए बने कानूनों का कोई सहारा नहीं मिलता है।
9. एक विडम्बना यह भी है कि साल में तीन से छह माह तक पलायन के दौरान वे जनकल्याणकारी योजनाओं के लाभ से भी वंचित रह जाते हैं।
10. आंकलनों से स्पष्ट हुआ है कि 30 लाख लोग पलायन के कारण मतदान के अपने संवैधानिक अधिकार का भी उपयोग नहीं कर पाते हैं।

समाज की उपेक्षा, क्रोध के अभाव और व्यवस्था के अमानवीय व्यवहार के कारण सहरिया आदिम जनजाति समुदाय एक बार फिर संकट से दो-चार है। जीवनयापन के साधनों के अभाव में इस आदिवासी समूह को एक बार फिर पलायन करना पड़ रहा है। कोलारास के लच्छू आदिवासी कहते हैं कि एक भी आदमी राशन की दुकान से दो रूपये किलो का गेहूं भी खरीदने की स्थिति में नहीं है और भड़ौता गांव की राशन दुकान के संचालक इस कोशिश में हैं कि लोग तो पलायन कर जायें, पर अपने अंत्योदय राशन कार्ड उसके हवाले कर जायें, ताकि वह उनके नाम का सस्ता राशन बाजार में ऊंचे दाम पर बेच सके। शिवपुरी जिले के सवा सौ सहरिया बहुल गांवों में अब सन्नाटा पसरने लगा है। इनमें से ज्यादातर गांवों में अब सहरिया परिवारों में केवल वृध्द सदस्य शेष रह गये हैं, जो परिवार के अन्य सदस्यों की गैर मौजूदगी में कमजोर पड़ चुके मवेशियों और कभी भी आंधी के एक झोंके में उड़ जाने वाले छप्पर की देखभाल करेंगे। किसी समय में बड़े उत्साह से होली के रंगों को जीवन में उतारने वाले सहरियाओं के जीवन में अब यह त्यौहार पलायन का संदेश लेकर आता है। ये आदिवासी अतीत में पूरी तरह से जंगल की सम्पदा पर निर्भर रहे हैं। जंगल से न केवल इन्होंने अपनी भूख मिटाई है बल्कि पूरी जिम्मेदारी के साथ उसकी रक्षा भी करते रहे हैं। परन्तु सरकार की जंगलों से सम्बन्धित नीतियों और जंगलों के विनाश ने उनके समक्ष अस्तित्व का संकट खड़ा कर दिया है आज के दिन यानि फरवरी के अंतिम दिनों से लेकर जून के शुरूआती दिनों तक आपको ऐसा गांव खोजने के लिये मेहनत नहीं करना पड़ेगा, जिसमें आदिवासियों के पलायन के बाद मौन न छाया हो।
शिवपुरी जिले की पिछोर तहसील के गुड़ार गांव में रहने वाले तीन परिवारों ने बुआई के मौसम में अपनी पथरीली पांच बीघा जमीन पर बोने के लिये साठ-साठ किलो चना कर्जे के रूप में लिया था। परन्तु नियति ने भी साथ न दिया और वे अपना पेट भरने के लायक कुछ दाने भी न उगा पाये। इसके बाद उन परिवारों ने एक बार फिर जंगलों की ओर रूख किया। उन परिवारों की महिलायें जंगल जाकर सूखी लकड़ियां इकट्ठी करके लाती हैं। औसतन 25 किलो का गट्ठर जंगल से लाकर बाजार में बेचने के लिये उन्हें 20 किलोमीटर की पैदल यात्रा करना पड़ती है। इस काम को एक बार अंजाम देने में उन्हें दो दिन लगते हैं और एवज् में उन्हें मिलते हैं 20 रू.। शिवपुरी का इलाका बहुत ही विषमताओं से भरा हुआ है। एक ओर तो पिछोर का क्षेत्र हरे जंगलों से भरा-पूरा है तो दूसरी ओर कोलारस और पोहरी ब्लॉक हैं जहां स्थिति इसके विपरीत है।
एक लम्बे अर्से से यह लोग ककोरा, फांग की भाजी, मकोह, पमार की भाजी और बेर (जंगली बेर) को अपने आहार का हिस्सा बनाते आये हैं। परन्तु लगातार सूखे के कारण यह सामग्री भी अब उन्हें नहीं मिल पा रही है। ऐसी स्थिति में सहरिया की निर्भरता मजदूरी के अवसरों पर बहुत बढ़ जाती है। यही कारण है कि स्थानीय स्तर पर मजदूरी के साथ उपलब्ध न होने के कारण भिण्ड, दतिया से लेकर राजस्थान के जयपुर तक परिवार को लेकर पलायन करना पड़ता है। पिछोर के पिपरौनिया गांव के 120 परिवारों में से 80 परिवार दल-बल के साथ पलायन कर चुके हैं। भिण्ड जिले में इन्हें रोजगार के रूप में सरसों काटने के अवसर मिलेंगे और एवज् में मिलेगी 35 से 40 रूपये की मजदूरी। पलायन के दौरान सहरियाओं का बेतहाशा शोषण होता है। इसके बाद गेहूं और चने की कटाई की मजदूरी के रूप में इनसे वायदा किया जाता है कि कुल कटाई का पांच फीसदी हिस्सा मजदूरी के रूप में मिलेगा, किन्तु वास्तव में मिलता है 3 फीसदी। विवाद में न पड़ने की प्रवृत्तिा के कारण 'जो है-जैसा है', उसे वह स्वीकार कर लेते हैं। औसतन छह से सात सदस्यों वाले परिवार को चैत के मौसम में साढ़े तीन क्विंटल गेहूं की मजदूरी प्राप्त होती है। इस मजदूरी की मुद्रा में कीमत होती हे 2700 रूपये और इसमें से 2400 रूपये खर्च हो जाते हैं।
यह चित्र तो तब का है जब वे पलायन के लिये जा चुके होते हैं। वह स्थिति और दर्दनाक होती है जब वे पलायन की तैयारी कर रहे होते हैं। रोजगार की तलाश में जाते समय वे अपने परिवार के बुजुर्ग सदस्य को घर में छोड़ जाते हैं और दो माह तक अकेले रहकर झोपड़ी और मवेशियों की देखभाल करता है। जिन परिवारों में बुजुर्ग नहीं होते हैं उनकी स्थिति भी वीभत्स ही होती है। पलायन से लौटकर वे पाते हैं कि झोपड़ी का छप्पर उड़ गया है, बल्लियां कोई ले गया है और घर का सामान भी चुरा लिया गया है। तब एक बार फिर शुरू होती है घर को जैसे-तैसे बसाने की कोशिशें और यह कोशिशें सहरिया को और कर्जदार बना देती हैं। कोलारस ब्लॉक के शंकरगढ़ गांव में किए गए एक अध्ययन से यह पता चला कि वहां कुल 23 परिवारों पर केवल बैंक का कर्ज है और इनमें से 22 परिवार भू-स्वामी हैं और केवल एक परिवार भूमिहीन है। इसका मतलब यह है कि जिनके पास जमीन (या संसाधन) हैं उन्हें ज्यादा कर्ज की जरूरत पड़ रही है। दूसरे मायनों में छोटे-छोटे भू-खण्डधारी आदिवासियों को सुनियोजित संरक्षण नहीं मिल पा रहा है, जिसके कारण वे बैंक से कर्ज तो ले रहे हैं पर उनका उपयोग उपयुक्त ढंग से नहीं कर पा रहे हैं और एक बार ऋण लेने के बाद उन्हें इससे मुक्ति के लिए जमीन और पशु बेचने या फिर बड़े किसानों के यहां बंधुआ मजदूरी करने के निर्णय लेने पड़ रहे हैं।
पिछोर के लभेड़ा गांव का अध्ययन करने पर पता चला कि इस गांव के 20 परिवारों के 92 सदस्य पलायन कर चुके हैं और 15 परिवारों के 61 सदस्य पलायन कर जाने वाले हैं। इस गांव में हर परिवार के पास पहनने के लिये औसतन पांच कपड़े हैं और खाद्यान्न की एक व्यक्ति के लिए उपलब्धता हें साल भर में 65 किलो यानि लगभग 180 ग्राम प्रतिदिन। नमक, मसालें, दाल और सब्जी के लिये खर्च करने के लिये उनके पास 160 रूपये होते हैं। क्या ऐसी परिस्थति में किसी भी इंसान का जीवित रह पाना संभव है। यही एक बड़ा कारण है कि रीजनल मेडिकल रिसर्च इंस्टीटयूट के अनुसार 93 प्रतिशत सहरिया बच्चे कुपोषण के शिकार हैं और इस समुदाय के लोगों की औसत आयु 45 वर्ष है। यह सामान्य औसत से 25 फीसदी कम है। प्रशासन के लिये बच्चों का स्वास्थ्य अब भी महत्वपूर्ण नहीं है। पिछोर ब्लॉक में पिछले डेढ़ माह से आंगनबाड़ियों में पोषण आहार नहीं बंटा है। जबकि ब्लॉक में दस में से नौ सहरिया बच्चे कुपोषण के शिकार हैं और कारण सिर्फ इतना सा है कि जो स्वयं सहायता समूह भोजन की आपूर्ति करता है उसे सरकार ने पिछला भुगतान नहीं किया है।
आंकड़ों से पता चलता है कि 26 फीसदी सहरियाओं के पास पांच से लेकर आठ बीघा जमीन है परन्तु 70 फीसदी जमीन असिंचित, पथरीली और पहाड़ी ढलानों पर है। जब तक इस प्रकार की जमीनों का उपचार नहीं होगा तब तक इन्हें उपयोगी बनाया ही नहीं जा सकता है। परन्तु सरकार के स्तर पर इसके विकास के लिये एक भी दीर्घकालीन नीतिगत योजना नहीं बनाई गई है। पिछले दो वर्षों में इसी जिले में सहरियाओं के भूख से मरने के 60 से ज्यादा मामले आये थे। तब तो प्रशासन ने तात्कालिक रूप से सीमित कदम उठाये थे, किन्तु स्थाई समाधान के लिये एक भी कदम नहीं उठाया गया। इतना ही नहीं सामंतवाद से पीड़ित इस इलाके में सरकारी अमले भी उनका शोषण करने में कोई कसर नहीं छोड़ते हैं। कोलारस के बैरसिया, सनवारा और गुगवारा सहित 30 गांवों के आदिवासियों की साईकिलों को वन विभाग ने जब्त कर लिया और दो-दो सौ रूपये की मांग की। आरोप था कि वे लोग सूखी और मृत लकड़ियां बेचने के लिये ला रहे थे, जिसके लिये वे अधिकृत भी हैं। आर्थिक संकट का आलम यह था कि वे लोग छ: माह तक अपनी साईकिलें उनके कब्जे से नहीं छुड़ा पाये। तब स्थानीय संगठनों के सामने आने पर प्रशासन ने वन विभाग को सहरियाओं की साईकिलें वापिस करने के आदेश दिये। सहरियाओं को सरकार की ओर से जिन जमीनों के पट्टे दिये गये हैं उनमें से 30 फीसदी जमीन पूरी तरह से अनुपजाऊ और पथरीली है। इस पर खेती करना तो संभव नहीं है तो ऐसी स्थिति में खैरवास गांव के आदिवासियों ने कर्ज लेकर सब्बल, घन ओर कुदाली लेकर पत्थर तोड़ने का काम शुरू किया तो वन विभाग कर्मचारियों ने रिश्वत न मिलने पर उनसे ये औजार छीन लिये।
फिर एक कदम और आगे बढ़ें तो योजनाओं की विसंगति ओर सहरियाओं की परिस्थिति की मुठभेड़ होती है। सरकार की योजना के अनुसार अब तक यह प्रावधान रहा है कि कुंआ या टयूबवेल खोदने या बैल खरीदने के लिये उन्हें बैंक से तत्काल कर्ज दिया जा सकता है। 'जिस आदिवासी के पास जमीन होना-न होना एक मायने रखता हो उसे कुंआ-टयूबवैल खोदने के लिये कर्ज देना सरकार के नजरिये और उसकी कार्यप्रणाली के यथार्थ को स्पष्ट करता है।' भूख से मरते आदिवासियों की मजबूरी का लाभ बिचौलियों ने खूब उठाया है। उनसे कागजों पर अंगूठे लगवाकर बैंक से दलालों ने कर्ज तो ले लिया और बैंक रिकार्ड में सहरियाओं का नाम दर्ज हो गया। इसका एकाध हिस्सा उन्हें भी मिल गया, परन्तु इसका परिणाम यह हुआ कि बिना कर्ज लिये ये आदिवासी कर्जदार हो गये और कर्ज न चुका पाने के कारण डिफाल्टर घोषित कर दिये गये। बैरसिया और शंकरगढ़ में रहने वाले क्रमश: 130 और 36 परिवार आज की तारीख में बैंक के डिफॉल्टर हैं। फिर इसके बाद सरकार की लघु सिंचाई परियोजना के अनतर्गत यह प्रावधान किया गया कि यदि पांच परिवार मिलकर सिंचाई के लिये बोरिंग करवाना चाहते हों तो उन्हें सरकार से आर्थिक मदद दी जायेगी। परन्तु शर्त यह है कि उस समूह का कोई भी व्यक्ति ऋण के मामले में डिफॉल्टर नहीं होना चाहिए। इसका अर्थ यह है कि सहरियाओं को, जिनके लिये यह योजना बनी है, इस योजना का लाभ नहीं मिल पायेगा।
विकास की आधुनिक अवधारणाओं के क्रियान्वयन के फलस्वरूप पलायन का व्यवहार अब धीरे-धीरे एक सामाजिक व्यवस्था का रूप लेता जा रहा है। अनुभव बताते हैं कि आदिवासी समाज में पलायन रहित जीवनयापन की एक आत्मनिर्भर व्यवस्था रही है। इस व्यवस्था ने न तो समाज के अन्य वर्गों को नुकसान पहुंचाया है न ही प्राकृतिक संसाधनों के अस्तित्व को खत्म होने दिया है। परन्तु आधुनिक विकास की प्रक्रिया में सबसे ज्यादा नकारात्मक प्रभाव ऐसे ही समूहों पर पड़ा है। इस परिप्रेक्ष्य में दुनिया के दूसरे सबसे बड़े बांध सरदार सरोवर के उदाहरण को दर्ज किया जा सकता है। देश की ऊर्जा समस्या, पेयजल और सिंचाई की समस्या के निराकरण के नाम पर अब तक पैंतालीस हजार करोड़ रूपये खर्च करके बनाये जा रहे इस बांध के कारण पचास हजार परिवार अपने गांव, अपनी जमीन, अपने पारम्परिक जीवनयापन के साधनों से विस्थापित कर दिये जा रहे हैं। इसके एवज में उन्हें मिल रही है अनिश्चित जीवनयापन की व्यवस्था। हमें यह ध्यान रखना होगा कि मध्यप्रदेश के बड़वानी, झाबुआ और धार जिले के आदिवासियों के समाज में पलायन की कोई व्यवस्था नहीं रही है। परन्तु विकास की इस परियोजना ने उनके जीवन में पलायन की मजबूरी के बीज बो दिए हैं। इनमें दस हजार ऐसे परिवार हैं जिन्हें मुआवजे या पुनर्वास के लाभ के लिए पात्र ही नहीं माना गया है क्योंकि उनके पास अपने परिवार और अपनी जमीन की पहचान का कोई प्रमाण नहीं है। वहीं दूसरी ओर जिनके पुनर्वास की औपचारिकता पूरी की गई है उन्हें स्थायी जीवनयापन के लिए कोई विकल्प नहीं दिए गए हैं। प्रभावितों को भूमि न देना पड़े इसके लिए व्यवस्था आंकड़ों में हेर-फेर के सिध्दान्त का पालन करती है।

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