Wednesday, December 31, 2008

कृषि संस्कृति

कृषि संस्कृति से अन्न असुरक्षा का संबध

सचिन कुमार जैन

यह प्रश्न अभी भी महत्वपूर्ण है कि आज किसी भी नजरिये से सामान्य समुदाय अन्न के मामले में सुरक्षित क्यों नहीं है? कृषि आधारित अर्थव्यवस्था से मुंह मोड़कर सरकार ने ही इस असुरक्षा को विकराल संकट का रूप दे दिया है और अब इसका औद्योगिकीकरण करके इसे अस्तित्व के संकट का रूप दिया जा रहा है। हमें उत्पादन के आंकड़ों की बाजीगरी से मुक्त हो कर इस बात को ईमानदारी से स्वीकार करना होगा कि विगत दस वर्षों में जबसे भूमण्डलीकरण और मुक्त अर्थव्यवस्था का प्रयोग शुरू हुआ है तब से किसान और उसकी किसानी दोनों को नित नई चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है। सबसे पहली चुनौती तो फसलों के चयन में आये परिवर्तन के रूप में सामने खड़ी हुई। भारतीय समाज के लिये कृषि कोई व्यवसाय नहीं बल्कि संस्कृति के मायने रखती है। इसके प्रति लालच नहीं बल्कि श्रध्दा का नजरिया रखा जाता रहा है परन्तु बहुत ही सुनियोजित ढंग से किसान को लालची व्यापारी बना दिया गया। पहले समाज को अन्न सुरक्षा प्रदान करने वाली ज्वार, बाजरा, मक्का, तिल, कोदो, कुटकी, तुअर, उड़द और चना जैसी फसलों को प्राथमिकता दी जाती रही थी। ये फसलें कीटनाषक, उर्वरक और अधिक पानी की जरूरत के भारी खर्चों से मुक्त फसलें तो थी ही, साथ में तीन-चार साल के सूखे से निपटने की क्षमता भी उनमें थी; परन्तु किसान को यह समझाया गया कि विश्व बड़ा व्यापक है और नकद फसलों से ज्यादा आय प्राप्त करके वह विश्व की व्यापकता को भोग सकता है। परिणाम स्वरूप किसान समाज ने सोयाबीन, कपास और गन्ना जैसी नकद फसलों को सिर-ऑंखों पर बिठा लिया। फिर नकद फसलों के बढ़ने से खाद्य सुरक्षा देने वाली फसलों के रकबे में 50 फीसदी तक की कमी आई और सरकार ने भी उन पर सब्सिडी देना बंद कर दिया जिससे ऐसी फसल लेने वाले किसान भी लाचार हो गये। षुरू के कुछ वर्ष जब तक मिट्टी की ऊर्वरता बनी रही, बारिष समय पर पर्याप्त मात्रा में होती रही तो किसान को लाभ होता रहा। परन्तु इन फसलों का असली चेहरा वैसा नहीं था जैसा षुरूआती छह-सात वर्षों में नजर आया। इन फसलों ने भूमि की ऊर्वरता को नष्ट किया, जमीन की नमी चुरा ली, भू-जल स्तर को 400 फिट गहरे तक उतार दिया, बाजार भी चूंकि नियंत्रण से मुक्त है इसलिये वहां भी किसान को कीमतों की मार झेलनी पड़ी।
महात्मा गांधी ने एक बार उल्लेख किया था कि गंगा का मैदान इतना उपजाऊ है कि वह पूरी दुनिया के लोगों की अन्न सम्बन्धी जरूरतों को पूरा कर सकता है परन्तु आज किसान अपने परिवार की जरूरतों को ही पूरा नहीं कर पा रहा है। इसके बाद दूसरी चुनौती सामने खड़ी हुई नये किस्म के बीजों, ऊर्वरकों एवं रासायनिक कीटनाशकों के रूप में। शुरु-षुरु में तो इन कृत्रिम ऊर्वरकों एवं कीटनाशकों ने अपना प्रभाव दिखाया परन्तु फिर उनका प्रभाव भी धीरे-धीरे समाप्त हो गया। नई सामाजिक व्यवस्था के अन्तर्गत अन्न सुरक्षा को तीसरी चुनौती का सामना करना पड़ा निरन्तर छोटी होती जोत के रूप में। जैसे-जैसे समाज तरक्की करता गया वैसे-वैसे लोगों की जरूरतों ने रूप बदलना शुरू कर दिया। वर्ष 1981 से वर्ष 2001 के बीच जोतों के औसत आकार में 40 फीसदी का अंतर आया है यानी दस बीघे के खेत के आकार अब छह बीघे के रह गये हैं। 1996 में किये गये एक अध्ययन से भी यह चौंकाने वाला निष्कर्ष सामने आया है कि पांच एकड़ के खेत का मालिक यदि आज केवल खेती के विकल्प पर आश्रित है तो वह चार वर्ष में अपने खेत को खोकर दस हजार रूपये का कर्जदार बन जायेगा। यदि परिस्थितियाँ अनुकूल रहें, यानी पर्याप्त बारिष हो, उपजाऊ मिट्टी, हो समय पर बुआई हो, भरपूर कीटनाषकों का प्रयोग किया जाये तब एक एकड़ के खेत से वर्ष में 10 से 12 हजार रूपये की आय की अपेक्षा की जा सकती है, अन्यथा घाटा ही नियति है।
इसका बहुत साफ कारण यह है कि अब खेती की लागत बहुत ज्यादा हो गई है और बाजार पर व्यापारियों का कब्जा है, इतना ही नहीं नीतियाँ भी किसान को नहीं बल्कि पूंजीपतियों को संरक्षण प्रदान करती हैं। यही कारण है कि 20 एकड़ के खेत के मालिक भी आज जहां-तहां हमें मजदूरी करते मिल जायेंगे।
अब एक बार पुन: अपनी पुरानी सामाजिक व्यवस्था के सांस्कृतिक पहलुओं का स्मरण करना लाजिमी हो जाता है क्योंकि गांव का अन्न के मामले में सुरक्षित होना आर्थिक कम, सामाजिक सम्मान का ज्यादा महत्वपूर्ण मामला है। कुछ दषक पहले तक मध्यप्रदेष, उत्तारप्रदेष, बिहार, राजस्थान (वे राज्य जो बीमारू राज्य कहलाते हैं) के गांवों में कृषि आधारित व्यवस्था के अन्तर्गत मजदूर और किसान के बीच एक मानवीय सम्बन्ध था। यदि किसी किसान के खेत में काम करने वाला मजदूर भूखा सोता था तो उसकी सार्वजनिक निंदा होती थी और पंचायत के नियमानुसार उसके यहां कोई मजदूर काम करने नहीं जाता था, तब उस किसान को 16 गांव दूर जाकर मजदूर लाने पड़ते थे। इसके बाद दूसरा मसला मजदूरी के भुगतान से जुड़ा हुआ है। हमारे पारम्परिक समाज में मजदूरी को मुद्रा में न मापकर अनाज और जीवन की बुनियादी जरूरतों की सामग्री से मापा जाता था। फिर 1970 के दषक में इस सम्बन्ध में व्यापक परिवर्तन आया और कृषि मजदूर को मुद्रा में भुगतान किया गया क्योंकि ऐसा करना भू-स्वामी के लिए ज्यादा लाभदायक होता था। तत्पष्चात थ्रेषर मजदूर की मजदूरी पर भारी पड़ा और ये अवसर भी धीरे-धीरे खत्म होने लगे।
इस तरह कृषि मजदूर ही नई सामाजिक व्यवस्था का षिकार नहीं हुआ बल्कि सेवा आधारित रोजगार, जैसे नाई, खवास, दाई, लुहार, बढ़ई, सुतार, से जुड़े समुदायों को भी भूख के अनुभवों से दो-चार होना पड़ा क्योंकि अब उन्हें अन्न से सम्बन्धित सामाजिक सुरक्षा नहीं मिल रही, जो पहले एक मानवीय आधार पर अन्य वर्गों से उन्हें मिला करती थी। नये परिप्रेक्ष्य में भारतीय समाज को अब षायद ज्यादा गंभीर चुनौतियों का सामना करना पडेग़ा क्योंकि पर्यावरण के विनाष, फसल चक्र में बदलाव, किसानों की कमजोर होती स्थिति, बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के बढ़ते दबाव और किसानों के प्रति सरकार के उदासीन होते रवैये के कारण ऐसा लगता है कि निकट भविष्य में केवल ऐसी ही फसलों को प्रोत्साहन दिया जायेगा जिनका कई चरणों मे उपयोग किया जा सकेगा, जैसे- सोयाबीन का सोयातेल, मिल्क बड़ी और केक बनाने में किया जाता है, गन्ने से गुड़ भी बनता है, शक्कर भी और षराब भी, इतना ही नहीं उसका कचरा भी उपयोग में लाया जाने लगा है। परन्तु संकट इस बात का है कि समाज इसके लिये क्या-क्या कीमतें चुकायेगा......। पर्यावरण की कीमत, रोजगार की कीमत और अब समाज में व्याप्त होती अन्न असुरक्षा। मसला अभी भी गंभीर है क्योंकि अपने बदलते व्यवहार के कारण जो स्थिति निमिर्ति हुई है उससे निपटने के ईमानदार रणनीति के बजाये हम फौरी तौर पर उसे नकारने के प्रयास में जुटे हुये है। सूखा एक ऐसी ही चुनौती है। सरकार और समाज दोनों इसे एकाकी समस्या के रूप में देख रहे हैं और पानी बचाने का मंत्र जप रहे हैं जबकि धरती की सतह से गायब हो चुकी मिट्टी, जंगलों के कटने से नग्न हुई धरती और तेजी से मर रहे पषुओं की ओर अभी भी उतनी गंभीरता के साथ ध्यान नहीं दिया जा रहा है। आने वाले वर्षों में पषुधन का अभाव हमें दुख देने के लिये काफी होगा।

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