Wednesday, December 31, 2008

जमीन से कट कर शुरू हुआ अस्तित्व का संघर्ष


सचिन कुमार जैन

अब विनाष को दर्षाने वाले तथ्य हमारे लिये चिंता का विषय नहीं बनते हैं बल्कि हम उनका उपयोग अपनी बात को रोचक बनाने के लिये करते हैं। शायद यह तथ्य भी हमें रोचक लगेगा कि हाल ही में न्यूजीलैण्ड के साथ भारत का एक समझौता हुआ है, जिसके तहत न्यूजीलैण्ड की संस्थायें भारत में 50 पैसे किलो लहसुन, 8 रुपये किलो दूध और वर्ष भर डेढ़ रुपये किलो टमाटर उपलब्ध करवायेंगी। यह पढ़ कर किसी के चेहरे पर चमक आ सकती है किन्तु इससे यह भी सिध्द हो जाता है कि भारत के किसानों को जब अपना अस्तित्व बचाने के लिये बेहतर विकल्प खोजने होंगे। नि:संदेह हमें उस बहुपक्षीय पृष्ठभूमि की चर्चा भी करनी होगी जिसके कारण यह विनाषकारी स्थिति निर्मित हो रही है।
बुनियादी बात केवल इतनी सी है कि भारत में जैसे-जैसे खेती के पारम्परिक तरीकों की उपेक्षा हुई वैसे-वैसे रासायनिक खेती ने अपनी जड़ें जमाना षुरू कर दी और आज 2001 में इसने न केवल उत्पादन को नकारात्मक रूप से प्रभावित किया है बल्कि पेयजल एवं सिंचाई के स्रोतों को भी अपनी गिरफ्त में ले लिया है। आज मधयप्रदेष, उत्तरप्रदेष और आंध्रप्रदेष के किसान इस बात को अनुभव कर रहे हैं कि रासायनिक पदार्थों के उपयोग के कारण वे कृषि की लाभप्रदता पर से अपना नियंत्रण प्राय:-प्राय: खो चुके हैं। भारत में देखा जाये तो 1980 के दषक के मध्य में नकद खेती की नई अवधारणा की लहर चली थी और सरकार ने अपने सारे संसाधनों का उपयोग किसानों को यह समझाने में किया था कि वे कृषि का उत्पादन बढ़ाने में यूरिया, डी.ए.पी. और फॉस्फेट का भरपूर उपयोग करें और रासायनिक कीटनाषक ही फसलों के रोगों का सबसे बेहतर इलाज है। तब भी किसान जानता था कि यह रास्ता ठीक नहीं है और उसने इन पदार्थों का उपयोग करने से इंकार कर दिया। उस वक्त सरकार ने रासायनिक उर्वरक गांवों में यूं ही फिंकवा दिये, खेतों में नि:षुल्क डालने के वायदे किये गये। 1982-87 के दौर का विष्लेषण करने से यह साफ हो जाता है कि एक सुनियोजित साजिष के तहत उन गांवों को बिजली, पानी और सड़क की सुविधा पहले दी गई जो सरकार की बात मानने लगे थे। इस तरह गांव कृषि की तथाकथित नई पध्दति का उपयोग करने लगे। इतना ही नहीं सरकार ने पहली बार सोयाबीन का उच्च गुणवत्ता का काला बीज दिया जिससे आष्यर्चजनक उत्पादन होता है पर दूसरी बार से सफेद बीज दिया जाने लगा, इसी दौरान किसानों को मोटर पर सबसिडी दी गई ताकि किसानों को अपना निर्णय बदलने का अवसर न मिले। इसके बाद 1990 से सोयाबीन को सबसे लाभदायक नकद फसल के रूप में प्रचारित किया गया। नि:सन्देह तीन माह में तैयार होकर लाभ देने वाली इससे बेहतर कोई और फसल न पहले थी न आज है किन्तु लगातार सोयाबीन की खेती में अपनी लागत भी नहीं निकाल पा रहा है। और षुरू हो गया है आत्महत्याओं का सिलसिला। यहॉ यह उल्लेख कर देना आवष्यक है कि मध्यप्रदेष की जलवायु सोयाबीन की खेती के लिए सबसे उपयुक्त मानी जाती है और यही कारण है कि यहां के किसान एक साल में निरन्तर और बार-बार यही फसल ले रहे हैं। वास्तव में सोयाबीन और रासायनिक कृषि पध्दति को एक जरिया बनाया गया है, हमारी सामाजिक अर्थव्यवस्था के विनाष का। सोयाबीन किसान को फायदा दे या न दे परन्तु उद्योगों को इसका कचरा भी मुनाफा देता हे। वैसे ता हम यही मानते हैं कि सोयाबीन से खाने का तेल बनता है, किन्तु हम षायद यह नहीं जानते हैं कि तेल बनने की प्रक्रिया के हर चरण में निकलने वाले अवषिष्ट पदार्थ किसी न किसी मायने में आर्थिक लाभ देता है। यह सोया पदार्थ जानवरों के लिये एक पौष्टिक पदार्थ है और मधयप्रदेष की भूमि से उपजे सोयाबीन का डी.आ.एल. केक सबसे पौष्टिक माना जाता है, फिर इसी से सोयामिल्क, बिस्किट और खाद्य पदार्थ बनते है। आमतौर पर सोयाबीन का तेल बनाने वाली कम्पनी ही यही उत्पाद भी बाजार में बेचती है। आर्थिक लाभ को देखते हुये भारत में भी ज्वार, मक्का ओर बाजरे की खेती तो लगभग खत्म सी हो गई है, इतना ही नहीं दो दषक पहले तब सबसे बेहतर नकद फसल मानी जाने वाली कपास भी इस विनाष से नहीं बच पाई।
बदलते हुये दृष्टिकोण और व्यवहार का प्रभाव हमारे समाज के स्वास्थ्य पर भी पड़ा है। आज यदि षोध के आंकड़े यह बताते हैं कि 44 प्रतिषत महिलायें खून की कमी की षिकार हैं तो इसका सीधा सा यह जवाब है कि खून का निर्माण करने में सबसे सक्षम अनाज ज्वार, बाजरा और मक्का का देष में उत्पादन लगातार कम होता जा रहा है और यही कारण है कि ग्रामीण महिलाओं में एनीमिया की षिकायत बढ़ी है।
इसके साथ ही रासायनिक खेती के प्रभावों के भी विस्तृत विष्लेषण की आवष्यकता है और किसानों को जैव तकनीक से बनने वाले बीजों के बारे में स्पष्ट जानकारी दिया जाना भी जरूरी है। प्राचीन पध्दति के अनुसार कृषि के व्यवसाय से जुड़े लोग हर फसल से बीज निकाल कर अगली बुआई के लिये सुरक्षित रख लेते थे किन्तु नई तकनीक के अन्तर्गत अब किसान को हर बार बुआई के लिये नया बीज बाजार से खरीदना पड़ेगा क्योंकि जैव तकनीक के जरिये खेत से उपजे बीज की उत्पादन क्षमता समाप्त की जा रही है। इन नये हाइब्रिड बीजों पर उसी कम्पनी के कीटनाषकों-उर्वरकों का प्रभाव पड़ेगा जिस कम्पनी के बीजों का उपयोग किया गया है।
इसी तरह भूमि सुधार कानून का निर्माण भी किसी आदिवासी, गरीब या किसान की बेहतरी के लिये नहीं किया गया है बल्कि सरकार ने ग्रामीण समाज का सीमांकन करके किसान को उसकी सीमाओं का अहसास कराया है। और इस कानून के जरिये गांवों में उद्योगों की स्थापना के दरवाजे खोले हैं ताकि उद्योगपति गांव में सहजता से उपलब्ध पानी, सस्ते श्रम का षोषण कर सके, ऐसा उन्होंने किया भी। अब सरकार भी यह संदेष देने लगी है कि ग्रामीण अर्थव्यवस्था को केवल सोयाबीन पर निर्भर नहीं होने दिया जाये किन्तु अब तो स्थिति नियंत्रण के बाहर हो चुकी है। किसान इसके जाल से बाजार में इन फसलों के दाम कम होंगे और फिर ज्यादा लाभ कमाने के लिये उसे सोयाबीन एक मात्र विकल्प के तौर पर नजर आयेगा।
रासायनिक पदार्थों के उपयोग का नकारात्मक प्रभाव गेहूं, चना और सब्जियों की गुणवत्ताा पर भी पड़ा है। पहले ग्रामीण क्षेत्रों में किसान अपने उत्पादन का संग्रह करके रख लेते थे ताकि सही दाम मिलने पर बेच कर लाभ कमाया जा सके किन्तु अब उसे संग्रह ही नहीं किया जा सकता है क्योंकि अब उसमें घुन लग जाता है। पहले किसान के घरों में प्रकृति आधारित मिट्टी से बने संग्रह कक्ष हुआ करते थे जिनमें अनाज सुरक्षित रहता था अब उनकी जगह प्रषीतक संयंत्रों (कोल्ड स्टोरेज) ने ले ली है। जहां प्रति किलो और सप्ताह के हिसाब से संग्रहण षुल्क देना पड़ता है। ऐसे में यदि किसान उसका संग्रह करेगा तो भी उसकी लागत तो बढ़ती ही जाना है यानी घाटे में बेचना ही उसके लिये अब फायदे का सौदा है। इसी तरह पहले जहां उत्पाद को वर्ष भर सहेज सकते थे अब महीने भर बाद वह सड़ने लगता है क्योंकि उसके नैसर्गिक रोग प्रतिरोधाक गुणों का हमने विनाष कर दिया है।
जब किसानों ने सोयाबीन की नकद क्षमता देखी तो उन्होंने वैकल्पिक और मौसमी व्यवस्था को नकारते हुये एक-एक साल में तीन बार उसी की फसल लेना षुरू कर दिया और गेहूं की बुआई केवल इसलिये की क्योंकि सोयाबीन की फसल के बाद खेत में नाइट्रोजन की बेहतरीन स्थिति होती है और गेहूं में भी फायदा हैं किन्तु इसके कारण जमीन पर अतिरिक्त और असीमित बोझ पड़ा जिससे जमीन अपनी नमी अपनी उर्वरता रंगत और खुषबू खोती जा रही है। इसी तरह किसानों ने इसके फायदे को भुनाने के लिये जंगलों को भी तबाह करना षुरू कर दिया। उन्होंने अपने खेत और जमीन पेड़ तो काटे ही साथ में सरकारी जमीन का अतिक्रमण करके भी वन सम्पदा का नाष कर दिया। सरकार का वन सुरक्षा कानून भी इसमें कोई काम नहीं कर पाया। इसके पीछे कानून या सरकार की निष्क्रियता नहीं है बल्कि इसके पीछे भी औद्योगिक घरानों को लाभ पहुंचाने की मंषा रही है। ये कम्पनियां ही चाहती थी कि जंगल कटें और किसान वह काम करें जो वे चाहते हैं।

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