Wednesday, December 31, 2008

किसान

कदम-दर-कदम साजिशों से जूझता किसान

सचिन कुमार जैन

खेती किसानी अब जिस तरह साजिशों की शिकार किसान हो रही है उससे यह संकेत मिलने लगे हैं कि सरकारी और सामाजिक सहयोग नहीं मिलने के कारण किसान इस संघर्ष से हार जायेगा और इस हार से उसका अपना अस्तित्व भी संकट में आ जायेगा। हाल के अनुभव बताते हैं कि मध्यप्रदेश के 23 प्रतिषत किसान अब कृषि का विकल्प खोज रहे हैं, मालवा में तो कृषि की नई तकनीकों ने जो नकारात्मक प्रभाव पैदा किये हैं, उससे समाज में सामाजिक असंतुलन की स्थिति निर्मित होने लगी है। बात चाहे नई तकनीक ही हो, बाजार की हो या फिर विकास की, ये सभी पहलू किसी न किसी साज़िश के अंग हैं और अब हर साज़िष कहीं न कहीं आकर किसानों से जुड़ जाती है, खासकर तब जब राज्य की संस्कृति, परम्परा और अर्थव्यवस्था सभी की धुरी खेती हो, तब बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के साथ-साथ किसी भी जतन से धन कमाने वालों के लिये यह जरूरी हो जाता है कि समाज में ऐसी स्थिति निर्मित कर दी जाये जिससे किसान केवल उनका निर्देष स्वीकार करें। वास्तव में बहुराष्ट्रीय कम्पनियां ही अब यह तय करेंगी कि किसान कब, कौन सी, कितनी फसल और किसके लिये पैदा करेगा। यहां यह उल्लेखनीय है कि किसीसमय सम्पन्न रहे 6 हजार से ज्यादा किसानों को आत्महत्या के लिये प्रेरित कर देने वाली इन साजिषों का लक्ष्य केवल भारी आर्थिक लाभ कमाना नहीं है बल्कि अब वे एक ऐसी व्यवस्था खड़ी करना चाहती हैं जो स्थाई न हो और किसान जो कमाये वह तकनीक एवं बदलाव के नाम उन्हें सौंपता जाये। मध्यप्रदेष का उल्लेख इस बारे में स्पष्ट राय बनाने में मदद करता है। प्रदेष में सोयाबीन के उत्पादन के लिये सरकार ने किसानों से कई वायदे किये। सबसे बड़ा वायदा तो यह रहा है कि सरकार स्वयं खरीदी मूल्य पर किसानों से सीधो सोयाबीन खरीद लेगी, उन्हें इधर-उधर नहीं भटकना पड़ेगा। परन्तु पिछले वर्ष तिलहन संघ ने 28 लाख टन में से केवल सवा लाख टन सोयाबीन खरीदा यानी मात्र पांच प्रतिषत। बाकी 27 लाख टन सोयाबीन बेचने के लिये किसान को खुले बाजार में जाना पड़ेगा, जहां बहुराष्ट्रीय कम्पनियां अपने मूल्य पर किसान को सोयाबीन बेचने के लिये मजबूर करेंगी। आमतौर पर यह मूल्य लागत से भी कम बैठता है, क्या यह साज़िष नहीं है?
यह एक बहुत ही रोचक योजना है। पहले सरकार पर दबाव डाल कर कृषि क्षेत्र में सबसिडी को कम करवाया गया, डीजल एवं यूरिया के दाम बढ़वाये गये, इससे किसान की लागत में तेजी से वृध्दि हुई। इस वृध्दि से आम आदमी परेषान हुआ तो विदेषी कम्पनियों ने सस्ते विकल्प बाजार में खड़े करके स्थानीय कृषि उद्योग को खत्म करने का काम किया। मूंगफली का तेल मंहगा हुआ तो सोयाबीन और पाम तेल को विकल्प बनाया गया, घी के स्थान पर बटर आयल समाज में आ गया, ज्वार-बाजरा का तो उत्पादन ही बन्द-सा हो गया है। फिर कुपोषण दूर करने के लिए दाल-सब्जी के स्थान पर फल, चेरी और सूखे मेवों की बात की जाने है।
बड़े ही सुनियोजित तरीके से इस साज़िष को अंजाम दिया गया है और उसका सबसे दुखदायी दुष्परिणाम यह है कि तात्कालिक लाभ के लिये हजारों साल से जिस बीज का किसान निरन्तर उपयोग कर रहे थे, उसका अस्तित्व ही समाप्त हो गया। यह बीज ज्यादा उर्वर था, उसमें ज्यादा प्रतिरोधक क्षमता थी, चमक थी और स्वाद था, इससे भी अह्म तथ्य यह है कि उस बीज से पैदा हुआ फल कई महीनों और कई बार तो सालों तक न तो अपना स्वाद खोता था न चमक। वह बीज प्रतिकूल परिस्थितियों में भी पनप सकता था, पर उसके स्थान पर किसानों ने सरकार और बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के कहने पर जैव प्रौद्योगिकी से बने बीज अपनाये, जो न केवल पूरी तरह से पुनर्उत्पादन क्षमता से विहीन हैं बल्कि नपुंसक भी हैं।
भारत में कृषि एक व्यावसायिक व्यवहार कम और पारम्परिक विष्वास से ज्यादा जुड़ा हुआ मसला है जिस पर सोयाबीन से उपजे लालच ने सीधा आघात किया है। इसी सोयाबीन के कारण फसलों का वह चक्र टूटा है जिसके कारण भारत भीषण प्राकृतिक अकाल का डटकर सामना कर चुका है। पहले हमारे किसान गेहूँ, चना, ज्वार, बाजरा, सब्जी, दलहन आदि फसलें बदल-बदल कर लिया करते थे और भूमि का पूरा भाग भी एक अनुपात में ही उपयोग में लाते थे जिससे बीमारी का प्रकोप एक ही फसल पर और वह भी सीमित क्षेत्र में पड़ता था यानी किसान पर बहुत स्थाई नकारात्मक आर्थिक प्रभाव नही पड़ता था। इससे जमीन की उर्वरता और नमीं भी निष्चित मात्रा में बनी रहती थी परन्तु सोयाबीन से प्राप्त होने वाले त्वरित लाभ ने किसानों को अपनी परम्परा से विमुख होने के लिये प्रेरित कर दिया और फिर हर तीन माह में उसकी योजना सोयाबीन की फसल लेने की बनने लगी। अब जमीन ने सोयाबीन से अपनी नाराजी दिखाना षुरू कर दी है, दीवाला निकल जाने पर प्रेमिका का साथ छोड़ देने जैसी ही घटना घटी। पहले तो प्रकृति के प्रकोप, भूमि के असंतुलित होते स्वरूप के कारण सोयाबीन का उत्पादन प्रभावित होने लगा, फिर बाद में बाजार में इसके भावों में इतनी गिरावट आई कि षायद किसानों ने पहले सपने में भी ऐसा न सोचा होगा। मध्यप्रदेष के मालवा क्षेत्र में तो खेतों का हर हिस्सा सोयाबीन से पटने लगा था पर पिछले तीन सालों के लगातार नकारात्मक प्रभावों ने किसानों को पछताने के लिये मजबूर कर दिया है। अब तो कम से कम किसानों को चेतना ही होगा कि सोयाबीन हमारी सांस्कृतिक अर्थव्यवस्था को चौपट करने का षड़यंत्र हैं। इस साजिष को समझने के लिये पहले सोयाबीन का आर्थिक पहलू समझना भी जरूरी है। सोयाबीन का उपयोग केवल तेल के रूप में नहीं होता बल्कि इसका हर प्रक्रिया में बचा हुआ अवषेष काम में लिया जाता है। तेल निकलने के बाद बचने वाली सोया खली से सोया बरी बनती है, सोया दूध और बिस्किट बनते हैं यानी एक बीज से चार बार लाभ कमाया जाता है। यह लाभ किसानों को नहीं बहुराष्ट्रीय कम्पनियों को मिलता है।
विकसित देषों में यही सोयाखली जानवरों का प्रमुख खाद्य पदार्थ है। उन देषों में दूध और मांस के उत्पादन के लिये अलग-अलग जानवरों का पालन किया जाता है। अब न्यूजीलैण्ड और यूरोपीय देष भारत में सात रुपये प्रति लीटर की दर से दूध उपलब्ध कराने की तैयारी कर रहे हैं। यह दूधा केवल मूल्य में ही कम नहीं है बल्कि इसे तीन माह तक बिना उपयोग किये भी सुरक्षित रखा जा सकेगा। वहीं दूसरी ओर हमारा किसान दूधा में पानी मिलाकर भी अपनी लागत नहीं निकाल पा रहा है। यही कारण है कि जहां चार साल पहले चौटाला की मण्डी में पचास हजार जानवर खरीद-फरोख्त के लिये आते थे, अब वहां डेढ़ से दो लाख जानवर बिकने आ रहे हैं। जब बाजार में प्रतिस्पधर्ाा के कारण दूध ही नहीं टिक पायेगा तब स्वाभाविक तौर पर पौने दो करोड़ किसान पषुपालन बंद कर देंगे और जब पषु ही नहीं रहेंगे तब विदेषी कम्पनियां अपना असली रूप दिखायेंगी यानी अपनी इच्छा से मूल्यों का निर्धारण करेंगी। भारत जैसे कृषि प्रधान देष में कभी भी सरकार ने दुग्ध उत्पादन के लिये अनुदान या रियायत का प्रावधान नहीं किया है जबकि अमेरिका में 65 प्रतिषत अनुदान की व्यवस्था रही है ताकि किसानों को तो लाभ मिले ही साथ में आम आदमी को भी उचित मूल्य पर सामग्री उपलब्ध हो। इस संदर्भ में भारत सरकार ने जहां एक ओर किसान की सहायता नहीं की वहीं दूसरी ओर वर्ष 2000 में बीस हजार टन सप्रेटा दूधा आयात किया वह भी बिना आयात षुल्क के।
सन् 1923-24 में भारत में प्रति व्यक्ति खाद्यान्न के उपभोग का औसत 526 ग्राम था। वास्तव में देखा जाये तो स्वतंत्रता के बाद विकास की कई सीढ़ियां चढ़ने के बाद यहां यह उपभोग स्तर कुछ तो बढ़ना ही चाहिये परन्तु वर्तमान में यहां प्रतिव्यक्ति 396 ग्राम खाद्यान्न का उपभोग हो रहा है। इसका प्रमुख कारण है वैकल्पिक खाद्य सामग्रियों के उपभोग में वृध्दि। फास्टफूड, डिब्बा बंद सामग्री और उच्च या निम्न कैलोरी वाली सामग्रियों का प्रचलन तेजी से बढ़ा है। यही कारण है कि किसान के उगाये हुये आलू की कीमत दो रुपये किलो होती है परन्तु बहुराष्ट्रीय कम्पनी द्वारा उसी आलू से बनाई गई चिप्स 240 रुपये किलो की कीमत के साथ बड़ी सहजता के साथ सामाजिक बाजार में जगह बनाती जाती है। इसके बाद भी हम मूल्यों के उतार-चढ़ाव की बात यदि करते हैं तो दो रुपये किलो वाले आलू की ही करते हैं न कि ढ़ाई सौ रुपये किलो वाली आलू चिप्स की क्योंकि वह एक बहुराष्ट्रीय कम्पनी का उत्पाद है और यदि उसे मनचाहा दाम नहीं मिलेगा तो विष्व में भारत की छवि खराब होगी, अन्तर्राष्ट्रीय बाजार में हम पिछड़ जायेंगे, फिर चाहे किसान बेमौत क्यों न मरे। यह भी एक खास बात है कि संसद में किसी बहुराष्ट्रीय कम्पनी की लाबिंग करवाना आसान है पर किसान के पक्ष में कोई ईमानदारी से लाबिंग करे, यह असंभव है।
सोयाबीन के फेर में पड़ कर न केवल हमने अपनी जमीन और खेती को नुकसान पहुंचाया है बल्कि आज जिस अकाल का सामना हम कर रहे हैं उसके पीछे भी तेजी से बदलती कृषि तकनीक ही सबसे बड़ा कारण है। अतीत में ऐसा कभी नहीं हुआ है कि चार सालों में वर्षा की कमी के कारण अकाल निर्मित हुआ हो क्योंकि भू-जल स्तर के बेहतर स्थिति में बने रहने के कारण कृषि भूमि का नम बने रहना स्वाभाविक था। इससे खेती को इतना भीषण्ा नुकसान नहीं हुआ, परन्तु यह पहला अवसर है जब जमीन के भीतर पानी के तेजी से घटते हुये स्तर के कारण सभी के माथे पर पसीने की बाढ़ आई, क्योंकि हमने अपनी परम्पराओं को जलग्रहण और वाटर षेड या रूफ वाटर हारवेस्टिंग (यानी पानी की खेती) जैसे नाम दे दिये, हमने किसान और पानी के सम्बन्धों को तोड़ दिया क्योंकि इसके लिये विष्व बैंक ने 15 सौ करोड़ रुपये दिये हैं। पर कुल मिलाकर बात यह है कि किसान ने अपने साथी चैतुओं के साथ विष्वासघात किया है। पहले चैतुये (फसल की कटाई करने वाले) फसल काटकर वापस जाते समय लोकगीत गाते हुये खेत के चारों तरफ ऊॅची मेंड़ बनाकर जाते थे ताकि धरती का पेट पानी से लबालब भरा रहे यानी भूजल स्तर बेहतर स्थिति में बना रहे परन्तु सोयाबीन से बनी नकद कमाई की तस्वीर को देखते-देखते अब किसान की आंखों से आंसू से आने लगे हैं क्योंकि किसान बार-बार सोयाबीन उगा कर ज्यादा से ज्यादा लाभ कमाना चाहता था। अब चूंकि सोयाबीन को पानी की ज्यादा जरूरत पड़ती है और फिर भी पानी बचाने की पारम्परिक तकनीक को भी किसानों ने धन कमाने की होड़ में पीछे छोड़ दिया जिससे मिट्टी की नमी जाती रही।
अब केवल एक उदाहरण संकट के इन घने बादलों से होने वाली बरसात का चित्र स्पष्ट कर देगा। दो अफ्रीका देषों नाइजीरिया और सेनेगल में ब्रिटिष टौबेको (बैट) नामक कम्पनी ने आम आदमी को तम्बाकू की खेती के लिये प्रेरित किया। इसके लिये किसानों को तकनीक दी गई, रियायतें दी गई और पूरा उत्पाद कम्पनी ने भारी भुगतान करके खरीद लिया। इससे किसानों को भी अच्छा-खासा मुनाफा हुआ। बस फिर क्या था पूरा देष तम्बाकू की खेती करने लगा। फिर एक समय ऐसा आया जब तम्बाकू और सिगरेट उन देषों की जरूरत बन गये, पहले कम्पनी ने तम्बाकू के कम दाम दिये और फिर खरीदना बंद कर दिया, जमीन बर्बाद हो गई। उन देषों के पास खाद्यान्न खरीदने के लिये कुछ नहीं बचा। तब उन्हें विष्व बैंक से कर्ज़ लेना पड़ा, पर उनका परम्परा से नाता हमेषा के लिए टूट चुका था। अब किसानों को स्वयं सोचना है कि वे अपनी परम्परा का पुननिर्माण कैसे करें और उस षड़यंत्र का मुकाबला कैसे करें जिसमें सत्ताा और नीति निर्धारक खुद भी षामिल हों।

No comments:

Post a Comment