रासायनिक कीटनाशक
सचिन कुमार जैन
पूरे विश्व में कृषि रोगों और खरपतवार को कीटनाशकों से खत्म करके अनाज, सब्जियां, फल, फूल और वनस्पतियों की सुरक्षा करने का नारा देकर कई प्रकार के कीटनाशक और रसायनों का उत्पादन किया जा रहा है; किन्तु इन कीटों, फफूंद और रोगों के जीवाणुओं की कम से कम पांच फीसदी संख्या ऐसी होती है जो खतरनाक रसायनों के प्रभावों से बच जाती है और इनसे सामना करने की प्रतिरोधाक क्षमता हासिल कर लेती है। ऐसे प्रतिरोधी कीट धाीरे-धाीरे अपनी इसी क्षमता वाली नई पीढ़ी को जन्म देने लगते हैं जिससे उन पर कीटनाषकों का प्रभाव नहीं पड़ता है और फिर इन्हें खत्म करने के लिये ज्यादा शक्तिशाली, ज्यादा जहरीले रसायनों का निर्माण करना पड़ता है। कीटनाषक रसायन बनाने वाली कम्पनियों के लिये यह एक बाजार है। इस स्थिति का दूसरा पहलू भी है। जब किसान अपने खेत में उगने वाले टमाटर, आलू, सेब, संतरे, चीकू, गेहूँ, धान और अंगूर जैसे खाद्य पदार्थों पर इन जहरीले रसायनों का छिड़काव करता है तो इसके घातक तत्व फल एवं सब्जियों एवं उनके बीजों में प्रवेष कर जाते हैं। फिर इन रसायनों की यात्रा भूमि की मिट्टी, नदी के पानी, वातावरण की हवा में भी जारी रहती है। यह भी कहा जा सकता है कि मानव विनाषी खतरनाक रसायन सर्वव्यापी हो जाते हैं। इस प्रक्रिया में जो भोजन हम करते हैं। जो फल हम खाते हैं, पानी पीते हैं, ष्वांस लेते हैं, इन सभी के जरिये वास्तव में हम अनजाने में ही जहर का सेवन भी करते हैं। यह जहर, पसीने, ष्वांस, मल या मूत्र के जरिये हमारे षरीर से बाहर नहीं निकलता है अपितु षरीर की कोषिकाओं में फैलकर लाइलाज रोगों और भांति-भांति के कैंसर को जन्म देता हैं। यह हर कोई जानता है कि यदि व्यक्ति आधा लीटर खरपतवार नाषक पी लेता है तो परिणाम केवल एक ही हो सकता है, दर्दनाक और दुखदायी मौत। ठीक यही स्थिति हर व्यक्ति के साथ संभव है, परन्तु कुछ समय बाद, क्योंकि हर व्यक्ति एक ही खुराक में इस जहर का सेवन नहीं कर रहा है अपितु हर सेब, हर टमाटर और हर रोटी और सब्जी के साथ जहर की थोड़ी-थोड़ी मात्रा उसके षरीर में प्रवेष कर रही है। आरम्भ में हम सामना करते हैं सिरदर्द, त्वचा समस्या, अल्सर और फिर केन्सर का। कई पष्चिमी देषों और भारत के कई राज्यों में इन कीटनाषकों ने लाखों लोगों को स्थाई रूप से बीमार बनाया है जिनमें से ज्यादातर मितली (नॉसी), डायरिया, दमा, साईनस, एलर्जी, प्रतिरोधक क्षमता में कमी और मोतियाबिंद की समस्या का सामना कर रहे हैं। इसी का प्रभाव है कि कई मातायें अपने बच्चों को स्तनपान के जरिये कीटनाषक रसायनों के जहरीले तत्वों का सेवन करवा रही हैं जिससे बच्चों में षारीरिक विकलांगता के स्थाई लक्षण नजर आ रहे हैं। इस प्रदूषण से महिलाओं में स्तन कैंसर की वृध्दि हो रही है, उनके गर्भाषय तथा मासिक धार्म की नियमितता पर विपरीत प्रभाव पड़ रहा है, उनकी रासायनिक अंत: स्रावी ग्रंथियां भी षिकार हो रही हैं। जबकि पुरुषों की प्रजनन क्षमता में निरंतर कमी आ रही है। पर्यावरण षोधा से प्राप्त निष्कर्षों से पता चलता है कि षरीर में ज्यादा भाग में जहरीले रसायन पहुँच जाने के फलस्वरूप विगत तीन वर्षों में भारत में गिध्दों की संख्या में 90 फीसदी की कमी आ गई है।
इस तरह के उत्पादन करने वाले ज्यादातर बड़े व्यावसायिक संस्थान संयुक्त राज्य अमेरिका से सम्बन्ध रखते हैं- जैसे डयूपां, अपजोन, फाइजर और ल्यूब्रीजोल। केवल डयूपां और उसकी सहायक संस्थायें 1.75 करोड़ पाउंड प्रदूषक रोज छोड़ते हैं, 1986 में इसने 34 करोड़ पाउंड जहरीले रसायन अमरीका की वायु, मिट्टी और पानी में डाले। यह कम्पनी क्लोरो फ्लोरो कार्बन (सी.एफ.सी.) का उत्पादन करने वाली सबसे बड़ी कम्पनी है। यह रसायन वातावरण की ओजोन परत में क्षय का सबसे बड़ा कारण है जिसकी वजह से कम से कम 4 लाख व्यक्ति त्वचा कैंसर से प्रभावित होंगे और मोतिया बिंद के मामले डेढ़ करोड़ बढ़ जायेंगे। इससे फसलों को भी गंभीर नुकसान होता है।
बड़े आष्चर्य की बात है कि घातक जहर को छोटे-छोटे अक्षरों में पैक पर चेतावनी लिखकर बेचा जा रहा है यह जानते हुये भी कि रासायनिक कीटनाषक मानव जीवन और प्रकृति को विनाष की ओर ले जा रहे हैं। जिन पदार्थों का उपयोग हम कीटों के विनाष के लिए कर रहे हैं, वह मानव के जीवन के लिये भी खतरा हो सकते हैं। और तो और उन रसायनों के उपयोग की विधि में यह भी लिखा जाता है कि इस रसायन का छिड़काव करते समय नाक एवं मुंह को कपड़े से, आंखों को मास्क से और हाथों को दस्तानों से ढक लें, यदि रसायन त्वचा से स्पर्ष कर जाये तो तुरन्त दो-तीन बार साबुन से उसे धोयें और षीघ्र ही डाक्टर से इलाज करवायें.......... क्यों? ......... क्योंकि यह एक जानलेवा जहर है। जो कीट के लिये इतना घातक हो सकता है। उसका पेड़-पौधों, नदियों, फलों, फूलों और हवा पर क्या प्रभाव पड़ता होगा। वास्तव में यह दुखदायी तथ्य है कि धनोपर्जन में व्यस्त यह कीटनाषक रसायन उत्पादन करने वाले संस्थान हमें सीधे जहर के सम्पर्क में न आने की चेतावनी दे रहे हैं। और यही जहर सब्जियों, अनाज, फलों और पानी के जरिये हमारे षरीर में पहुंचाया जा रहा है।
भोपाल में यूनियन कार्बाइड के जरिये घटी गैस त्रासदी की घटना हमारे वैचारिक तंत्र को झकझोर देती है। यूनियन कार्बाइड एक कीटनाषक रसायन बनाने वाली बहुराष्ट्रीय कम्पनी है जिससे 1984 में मिथाइल आइसोसाइनेट नामक गैस का रिसाव हुआ था और अब तक इससे प्रभावित 24 हजार लोगों की मौत हो चुकी है क्योंकि उक्त गैस में फास्जीन, क्लोरोफार्म, हाइड्रोक्लोरिक एसिड जैसे तत्वों का मिश्रण था। यह आज भी भोपालवासियों के षरीर में धीमे जहर के रूप में मौजूद है।
फास्जीन एक ऐसा तत्व है जो तरल और गैस के स्वरूप में पाया जाता है जिसका उपयोग रासायनिक हथियारों के निर्माण में होता रहा है और विष्व युध्द के दौरान हिटलर ने इसको माध्यम बनाकर लाखों सैनिकों को मौत के घाट उतारा था। फास्जीन वायु से साढ़े तीन गुना ज्यादा भारी होती है जिससे ष्वांस तंत्र बुरी तरह प्रभावित होता है। पूर्व में युध्द के दौरान हुये इसके प्रयोग से तीन लक्षणों का विष्लेषण किया जा चुका है, पहला- आंखों में जलन, गले में जलन और त्वचा पर सरसराहट, दूसरा- ष्वांस में ज्यादा तकलीफ, दम घुटना और तीसरा- मृत्यु। फास्जीन की थोड़ी सी मात्रा भी मृत्यु का कारण हो सकती है और भोपाल में गैस पीड़ितों में इन तीनों लक्षणों को साफ देखा गया है। इससे व्यक्ति फुफ्फस वात विकार से प्रभावित हो जाता है और धीरे-धीरे मृत्यु की ओर बढ़ता है। अब प्रष्न यह है कि ऐसी खतरनाक और भयंकर परिणाम होने के बावजूद जहरीले रसायनों का उपयोग खेती में प्रयोग होने वाले कीटनाषक रसायन बनाने में क्यों किया जाता है ........ क्योंकि ज्यादातर कीट अब हल्के जहर से प्रभावित ही नहीं होते हैं और इनका सामना करने के लिये उन्होंने प्रतिरोधक क्षमता विकसित कर ली है। अत: फास्जीन जैसी गैस का उपयोग भी पेस्ट कन्ट्रोल रसायनों में होने लगा है।
डीडीटी को पूरे विष्व में प्रतिबंधित किया जा चुका है किन्तु मलेरिया नियंत्रण के नाम पर आज भी भारत में इसका उपयोग हो रहा है और बीएचसी की खपत भी निरन्तर बढ़ती जा रही है। पचास के दषक में डीडीटी, बीएचसी और मैथालियोन का वार्षिक उपयोग दो हजार टन था जो आज बढ़कर एक लाख टन तक पहुंच चुका है। एल्यूमिनियम फास्फाइड, जो अनाज संग्रह के लिये सर्वाधिक प्रभावषाली पदार्थ माना जाता है, हमारे भोजन में जाने के बाद जहरीला असर करता है। आल इण्डिया इंस्टीटयूट ऑफ मेडिकल साइंसेज द्वारा कराये गये एक सर्वेक्षण से एल्यूमिनियम फास्फाइड के ही जहरीले असर के 114 उदाहरण रोहतक (हरियाणा) में, 55 उत्तारप्रदेष में और 30 हिमाचल प्रदेष में मिले थे। कीटनाषक दवाओं के छिड़काव वाले गेहूं के आटे की पूरियां खाने से उत्तार प्रदेष के बरेली जिले में करीब डेढ़ सौ व्यक्ति मौत के षिकार हो गये थे जबकि कालीडोल नामक कीटनाषक के छिड़काव वाली चीनी और गेहूं के आटे के उपयोग से केरल में 106 लोगों की मृत्यु हो गई थी।
भारत में बड़े गर्व के साथ ऐसे रसायनों का उपयोग हो रहा है जो पूरी दूनिया में प्रतिबंधित हैं जैसे डीडीटी, बीएचसी, एल्ड्रान, क्लोसडेन, एड्रीन, मिथाइल पैराथियोन, टोक्साफेन, हेप्टाक्लोर तथा लिण्डेन। इसका परिणाम यह है कि एक औसत भारतीय अपने दैनिक आहार में स्वादिष्ट भोजन के साथ 0.27 मिलीग्राम डीडीटी भी अपने पेट में डालता है जिसके फलस्वरूप औसत भारतीय के षरीर के ऊतकों में एकत्रित हुये डीडीटी का स्तर 12.8 से 31 पीपीएम यानी विष्व में सबसे ऊंचा हैं। इसी तरह गेहूं में कीटनाषक का स्तर 1.6 से 17.4 पीपीएम, चावल में 0.8 से 16.4 पीपीएम, दालों में 2.9 से 16.9 पीपीएम, मूंगफली में 3.0 से 19.1 पीपीएम, साग-सब्जी में 5.00 और आलू में 68.5 पीपीएम तक डीडीटी पाया गया है। महाराष्ट्र में डेयरी द्वारा बोतलों में बिकने वाले दूध के 90 प्रतिषत नमूनों में 4.8 से 6.3 पीपीएम तक डिल्ड्रीन भी पाया गया है। खेती में रासायनिक जहर के उपयोग के कारण नदियों का पानी भी जहरीला हो गया है। कर्नाटक के हसन जिले के तालाबों के पीने के पानी में तो 0.02 से लेकर 0.20 पीपीएम तक कीटनाषक पाये गये हैं जबकि कावेरी नदी के पानी में 1000 पीपीबी (पाट्र्स पर बिलियन) बीएचसी और 1300 पीपीबी पेरीथियोन पाया गया है। अब रासायनिक कीटनाषकों के प्रभावों पर हमें तर्कों के नहीं अपितु अनुभवों के आधार पर चर्चा करनी चाहिये।
हिमालय और उत्तारप्रदेष के पहाड़ी इलाकों जहां अब तक इन रसायनों का उपयोग नहीं होता है, वहां इससे हो सकता है कि खेती के लाभ में वृध्दि कम होती हो किन्तु यह हर जमीन, पानी और हवा को प्रदूषित कर रहा है इसलिये इनका उपयोग रोकना होगा अत: स्वाभाविक है कि खेती के कीटनाषकों के सन्दर्भ में भी पारम्परिक उपायों से बेहतर विकल्प कोई और नहीं हो सकता है।
सर अगेर हम रासायनिक कीटनाशक का उपयोग नही करते ह तो कया करे
ReplyDeleteजेसे अभी आप ने बोला की पारंपरिक उपायों से भेत्तर कोई और विकल्प नही तो बताई कोन विकल करना चाहिए कीड़ो को मारने के लिए
मै आप की बात से पुरी तरह सहमत हँु
ReplyDeleteLemon ke baag m kaunsa use kru
ReplyDeleteKya kare sir yaha ki bharst sarkar ki wajay se hai .
ReplyDeleteNahi to ab tak band huye rasayan Abhi tak nahi prayog hote.