Wednesday, December 31, 2008

जैव प्रोद्योगिकी

जैव प्रोद्योगिकी का खतरा

सचिन कुमार जैन

क्या है जननिक यांत्रिकी (जेनेटिक इंजीनियरिंग) और उससे बना बीज ? - वास्तव में जननिक प्रक्रिया क्या है या फिर अनुवांषिकी के अर्थ हमारे लिये क्या हैं? लाखों वर्षों की चरणबध्द प्रक्रिया से गुजर कर इस पृथ्वी पर जीवन का विकास हुआ है। पेड़-पौधों और जानवरों ने अपनी विषेषताओं को बरकरार रखने के लिये अपने गुणधर्मों का अपनी आने वाली पीढ़ियों तक प्रसार किया है ताकि उनकी अपनी प्रजातियों से समानतायें एवं विषेषतायें समाप्त न हो जायें। इसी तरह आपने भी अपने भीतर माता-पिता की विषेषताओं को निष्चित स्वरूप में पाया है, आपकी
सन्तानें आपकी विषेषतायें हासिल करेंगी। हो सकता है कि आपकी लम्बाई पिता की लम्बाई के अनुरूप हो किन्तु मुस्कुराने का ढंग और चेहरे का आकार माँ के चरित्र से जुड़ा हो, इसी तरह जीवन का विकास हुआ और समानता बरकरार रही। जरा सोचें कि ऐसे कौन से चरित्र या विषेषतायें हैं जिनका एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक प्रसार हो रहा है और कैसे? मूलत: यह प्रकृति की अद्भुत क्षमता ही है कि कई प्रकार की विषेषताओं से भरा पूरा वृक्ष एक छोटे से, कई बार न दिखाई पड़ने वाले बीज में समाया रहता है जिसका जन्म पहले वाले वृक्ष की उत्पादक क्षमता से हुआ है। और उसमें समाये हुये नये वृक्ष का जन्म वातावरण, मिट्टी की प्रकृति और बाह्य परिस्थितियों पर निर्भर करता है। यदि किसी कारणवष वह जमीन अपनी नमी खो देती है तो वृक्ष ठोस न होकर रेषेदार स्वरूप अपना लेगा। इसका सीधा अर्थ यह है कि जमीन और मिट्टी के स्वरूप का प्रभाव पेड़-पौधों एवं वनस्पतियों पर भी पड़ता है।
इस प्रकार के नैसर्गिक विकास के फलस्वरूप जीवन के स्वरूप में विविधता आई है, जिसे पृथ्वी पर जैव विविधता कहा जाता है। भारत की भूमि पर कई प्रजातियों के पेड़-पौधे, वनस्पतियां एवं जानवर पाये जाते हैं। इन सभी का जन्म एकाएक नहीं हुआ है अपितु इनका अस्तित्व, विकास की एक लम्बी प्रक्रिया का परिणाम है। इस विकास में सबसे अहम् और बुनियादी भूमिका डी.एन.ए. निभाता है। डी.एन.ए. का स्वरूप विष्व में किसी भी देष के नक्षे के समान हो सकता है। नक्षा (अर्थात् डी.एन.ए.) विभिन्न परिस्थितियों के अनुरूप अस्तित्व बनाये रखने के लिये अपना स्वरूप परिविर्तित करता है। डी.एन.ए., जिसे हम एक नक्षे के रूप में परिभाषित कर रहे हैं, का निर्माण कई जीन से मिलकर होता है। वास्तव में जीन का आकार डी.एन.ए. में ठीक उसी प्रकार का होता है जिस तरह किसी देष के नक्षे में छोटे-छोटे राज्यों का होता है, यानी अनिष्चित और असमान। डी.एन.ए. में पाये जाने वाला हर जीन अपने आप में डी.एन.ए. में मौजूद सभी प्रकार की विषेषतायें समेंटे रहता है। जिस तरह किसान एक पेड़ पर लगे टमाटर को देखकर सैकड़ों एकड़ में फैली फसल की विषेषता, स्वाद, आकार और गुणवत्ताा का अनुमान लगा लेता है, ठीक वैसे ही एक जीन का अध्ययन करके डी.एन.ए. अथवा पेड़, जानवर या व्यक्ति के बारे में अध्ययन किया जा सकता है। डी.एन.ए. हर बीज, हर जानवर और प्रत्येक मनुष्य की हर कोषिका में पाया जाता है। मूलत: यह विज्ञान का चमत्कार है कि आज हमें यह अद्भुत जानकारियां हासिल हैं किन्तु घातक कीटनाषक रसायन बनाने वाली कम्पनियों ने कई जीवन दांव पर लगाकर इसे अनुचित लाभ अर्जित करने का साधन बना लिया है।

कैसे कार्य करती है जैनेटिक इंजीनियरिंग ? - इन पेस्ट कन्ट्रोल रसायनों का उत्पादन करने वाली आर्थिक रूप से सम्पन्न कम्पनियों ने जननिकी यांत्रिकी के अन्तर्गत अपने रासायनिक कारखानों में वैज्ञानिकों, जैव तकनीकीविदों और अति ष्क्तिषाली सूक्ष्मदर्षियों (जो किसी भी कण को 50 हजार गुण ाबड़ा करके दिखा सकते हैं) की मदद से पेड़-पौधों एवं जानवरों के मूल व्यवहार और गुणधर्म के केन्द्र की पहचान करने के सफल प्रयास किये हैं, ताकि अपने आर्थिक हितों के अनुसार उनमें परिवर्तन कर सकें। कितने आष्चर्य की बात है कि अब क्षणिक हितों के लिये हम प्रकृति से टकराने के लिये खड़े हो गये हैं। बीज, उर्वरक और कीटनाषक बनाने वाली यह कम्पनियां बीजों के भीतर पनपने वाले डी.एन.ए. या जीन को निकाल कर किसी दूसरे प्रकार के बीज में प्रविष्ट करा देती हैं जिससे उनका मूल स्वरूप प्रकृति स्वरूप परिवर्तित हो जाता है। किसी सीमा तक यह प्रक्रिया ठीक उसी तरह है जिस तरह एक किसान नाषपाती के पेड़ की कलम सेब के पेड़ से बांधकर नाषपाती का उत्पादन कर सकता है जबकि पेड़ सेब का है। इसी तरह क्लोनिंग भी संभव है जिसमें वृक्ष के एक तने को काटकर और कटे हुये भाग को हल्का सा छीलकर जमीन में रोप दिया जाता है, कुछ दिनों में नई जड़ें फूट पड़ती हैं और एक स्वतंत्र और नैसर्गिक वृक्ष का विकास होने लगता है। इन प्रक्रियाओं में वृक्ष अपना बुनियादी और प्राकृतिक स्वरूप नहीं खोता है। यह बात भी स्वीकार की जा सकती है कि मनुष्य के प्रयासों के बिना कलम नहीं बांधी जा सकती है न ही क्लोनिंग संभव है, यह प्राकृतिक भी नहीं है किन्तु इन तकनीकों का उपयोग बाहरी स्वरूप के आधार पर किया जाता है। इनसे वृक्ष के गुणधर्म प्रभावित नहीं होते हैं और न ही प्राकृतिक जैव विविधता का संतुलन बिगड़ता है।
कुछ बड़े व्यावसायिक संस्थान अपना अस्तित्व बनाये रखने के लिए स्वरूप बदलते रहने वाले डी.एन.ए. का आर्थिक लाभ कमाने के लिए दुरुपयोग कर रहे हैं। इसी मोड़ पर जीवन के प्राकृतिक स्वरूप से भी टकराव की स्थिति उत्पन्न हो रही है क्योंकि जैव तकनीक एवं डी.एन.ए. के दुरुपयोग से प्रकृति द्वारा निर्धारित की गई जीवन एवं जनन संबंधी प्रक्रिया प्रभावित हो रही है। जैव वैज्ञानिक अपने षक्तिषाली सूक्ष्मदर्षियों के सहयोग से किसी बीज या जानवर के भीतर से डी.एन.ए. निकाल दूसरी प्रजाति के बीज या जानवर में प्रत्यारोपित कर देते हैं जिससे बीज का मूल स्वरूप, जो कि वास्तव में प्रकृति ने निर्धारित किया है, बदल जाता है। उदाहरण के तौर पर यह कहा जा सकता है कि जननिक यांत्रिकी के जरिये टमाटर के स्वाद को निर्धारित करने वाले जीन को आलू के बीज में प्रविष्ट कराया जाता है, जिससे आलू के स्वाद वाले टमाटर का उत्पादन होगा। जैव वैज्ञानिक एक जानवर के गुणधर्मों (जीन) को वृक्ष में भी प्रत्यारोपित कर सकते हैं या उसका उल्टा भी हो सकता है। इस तरह विभिन्न प्रजातियों की संख्या और जरूरत की नैसर्गिक संरचना में असंतुलन पैदा होगा। लोग केवल आम के वृक्ष उगाना चाहेंगे और इसके लिये नीम एवं पीपल के वृक्ष समाप्त कर दिये जायेंगे।

हकीकत क्या है? - आप यह सोचते हैं कि जैव प्रोद्योगिकी के जरिये तैयार किये गये बीजों से ज्यादा किस्मों के उत्पादन की संभावना है परन्तु हकीकत यह है कि अमेरिका की कुछ जैव प्रौद्योगिकी कम्पनियां अपने लाभ के लिये ऐसे बीजों एवं रसायनों का उत्पादन कर रही हैं न कि कृषकों के कल्याण के लिये। ये कम्पनियां विष्व के कृषकों को एकाधिाकार के जरिये अपने ऊपर निर्भर बना लेना चाहती हैं। इतना ही नहीं सरकार और संस्थायें भी उनके इन घातक बीजों को बेच रही हैं। वास्तव में जैव प्रौद्योगिकी प्रकृति के जीवन निर्माण संबंधी कौषल को मानव द्वारा नियंत्रित किये जाने का प्रयास हैं जिसके अन्तर्गत व्यक्तिगत हितों की पूर्ति के लक्ष्य को लेकर रासायनिक कीटनाषकों एवं बीजों का निर्माण करने वाली बहुराष्ट्रीय व्यावसायिक संस्थायें कृषि उत्पादों एवं पषु संसाधनों के अनुवांषिकीय चरित्र एवं पुनर्उत्पादन क्षमता को सीमित कर देना चाहते हैं। इसके साथ ही उनका यह प्रयास है कि ऐसे बीजों एवं तकनीक का आविष्कार किया जाये जिससे पूरी दुनिया के किसान और पषु पालक उन पर पूर्ण रूप से निर्भर हो जायें। अब तक के अनुभवों से यह ज्ञात होता है कि जननिकी यांत्रिकी (जीवन को एक नियमित शृंखला का स्वरूप देने वाली प्रवृत्ति एवं प्रकृति को मानव द्वारा नियंत्रित करने के प्रयास के अन्तर्गत प्रयोग में लाई जाने वाली ऐसी तकनीक, जिसका सबसे अधिक उपयोग, कृषि, पर्यावरण एवं पषु पालन के क्षेत्र में होता है) के फलस्वरूप तैयार किये गये बीजों एवं रासायनिक कीटनाषकों का उपयोग करने के कारण कृषि भूमि की प्राकृतिक नमी में निरन्तर कमी हो रही है। ऐसे बीजों से उत्पन्न होने वाले फल, फूल एवं सब्जियों में न केवल घातक तत्व पाये जा रहे हैं अपितु उनमें पौष्टिक पदार्थों की कमी भी हो गई है। इसके अतिरिक्त आरम्भ में तो इन बीजों से ज्यादा उत्पादन हो सकता है किन्तु धीरे-धीरे इससे जमीन की उर्वरता समाप्त होती जाती है और उत्पादन कम होता जाता है।

कैसे हो रहा है विनाष ? - विनाष की इसी शृंखला में एक और उदाहरण ऐसे जीन का है जिसके जरिये बीजों की उत्पादन क्षमता सीमित कर दी गई है। इन बहुराष्ट्रीय कम्पनियों ने इस विनाषक जीन को कपास, आलू, तम्बाकू और सोयाबीन के प्राकृतिक बीजों में प्रत्यारोपित कर दिया है। इस प्रकार के जीन का आषय यह है कि जो बीज इस जीन से प्रभावित होगा उससे पुन: प्राप्त बीजों से नई फसल हासिल नहीं की जा सकेगी। यानी, कृषकों को खेती से ऐसे बीज मिलेंगे जिनकी पुनर्उत्पादन क्षमता समाप्त हो चुकी होगी। भारत में सरकारी विपणन संस्थाओं के जरिये हजारों किसानों को इस प्रकार के नपुंसक बीजों की आपूर्ति की गई है जिसका परिणाम यह हुआ कि उन्हें स्वयं द्वारा तैयार किये बीजों से फसल हासिल नहीं हुई और कई किसानों ने आत्महत्या कर ली क्योंकि वे नये बीज नहीं खरीद सकते थे। जननिक यांत्रिकी के जरिये तैयार किये गये सोयाबीन की प्रतिरोधक क्षमता को इतना षक्तिषाली बना दिया गया है कि वह घातक एवं जहरीले कीटनाषकों को सहन कर सकता है। यह कीटनाषक खरपतवार, कीट और रोगाणुओं के अतिरिक्त सब कुछ समाप्त कर सकते हैं।
प्रकृति ने पृथ्वी पर पाये जाने वाले जीवों एवं जीवन को एक दूसरे से सम्बध्द बनाया है, ये जानवर, पर्यावरण एंव मानव एक दूसरे से एक कड़ी से जुड़े हुये हैं, यह एक अद्भुत संतुलन और रचना का उदाहरण है जिसके बिना जीवन में निरन्तरता संभव नहीं है, पर लोगों के लालच और विकृत मानसिकता के कारण प्रकृति की इस रचना का अस्तित्व खतरे में पड़ गया है।
इसके अतिरिक्त व्यावसायिक स्तर पर कुछ और चौंका देने वाले अनुभव सामने आये हैं। इस तकनीक से तैयार बीज पुनर्उत्पादन नहीं कर सकते हैं इसलिये किसान को फिर से बीज खरीदना पड़ेगा, वह भी केवल उसी कम्पनी का। वहीं दूसरी ओर अमेरिका की ऐसी कम्पनियों ने अपने बीजों एवं रसायनों को पेटेन्ट करा लिया है अर्थात् अब बीज भी बौध्दिक सम्पदा के दायरे में आ गये हैं और कोई दूसरी कम्पनी उस बीज का उत्पादन नहीं कर सकेगी। विष्व व्यापार संगठन (डब्ल्यू टी ओ) एवं गैट समझौता भी इस पैटेन्ट और तकनीक का समर्थन करता है। जिससे खतरे के काले बादल पूरी दुनिया पर छा गये हैं। यह एक सफेद झूठ है कि ज्यादा उत्पादन, गरीबी हटाने और भुखमरी कम करने के लिये इस तकनीक का उपयोग किया जा रहा है, यह एक षैतानी कारोबार है। ये बहुराष्ट्रीय कम्पनियां विष्व भर की सत्ताा, संसाधन और साधनों पर अपना नियंत्रण स्थापित कर लेना चाहती हैं। एक भारतीय किसान के लिये बीज उसकी सम्पत्ति, उसकी विरासत और जीवन होता है। पर हो सकता है जैव प्रौद्योगिकी की प्रक्रिया से गुजरने के बाद यही बीज उसे ही भारी मुनाफे के साथ बेचा जाये। यह चोरी है, धोखा है, फिर भी यह हो रहा है और सरकार ऐसी संस्थाओं को पनपने के लिये प्रश्रय दे रही है।
अत: किसानों से यह निवेदन है कि वे अपनी आज की खेती से कल के लिये स्वयं के बीज तैयार करें, जननिक तकनीक से तैयार और ज्यादा फसल का प्रलोभन देने वाले बीजों के फेर में न पड़ें। यह हमारी प्रकृति, हमारे समाज और जमीन को खत्म कर देने की साज़िष है, इसके खिलाफ संघर्ष करें।

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