Tuesday, December 30, 2008

जलवायु परिवर्तन और बुंदेलखंड



परीकथा नहीं है जलवायु परिवर्तन


सचिन कुमार जैन

हर बार की तरह पिछली बार भी गौरीषंकर ने पान की फसल 18 कतारों में लगाई थी। लेकिन इस बार वह किस्मत की बाजी हार गया। वह बताता है, हर साल वह 20 फरवरी से 20 मार्च के बीच पान की फसल लगाता आया है। ऐसा इसलिए किया जाता है ताकि फसल खूब लहलहाए और ढेर सारी कमाई दे। इसके लिए जरूरी है कि फसल को कम से कम तीन महीने तक तीखी धूप से बचाकर रखा जाए। फसल को मिलने वाला तापमान 30 डिग्री से ज्यादा नहीं होना चाहिए। इसी लिए इस इलाके के किसान फसल के क्षेत्र को टहनियों और धान के पैरे से बनाए अस्थायी ढांचे से ढंक देते हैं। लेकिन गौरीषंकर की व्यथा कुछ और ही है। वह कहता है कि जब उसने फसल लगाई वह सीजन पान लगाने वाला ही था लेकिन तब तापमान बढ़कर 35 डिग्री हो चुका था। यहां पान उत्पादक किसान तापमान जानने के लिए किसी वैज्ञानिक उपकरण का इस्तेमाल नहीं करते। वे अपने हाथों को सूरज की ओर फैलाकर या नंगे पैर जमीन पर चलकर पता कर लेते हैं कि कितनी गर्मी है। वर्तमान मौसमी संकेत अगले साल खूब गरम होने की चेतावनी दे रहे हैं। ऐसी स्थिति अब तक कभी भी नजर नहीं आई थी। ताजा स्थितियों में मध्य और उत्तारी भारत ठोस जाड़े के मौसम में वातावारण गर्मी से तप रहा है।
मध्यप्रदेष के बुंदेलखंड क्षेत्र में जलवायु परिवर्तन का सीधा असर देखा और महसूस किया जा सकता है। यह एक अहम अनाज उत्पादक इलाका रहा है पर यहां पिछले सात सालों में इसके चलते किसानों व पान उत्पादकों का जिंदगी बदल कर रख दी है। जलवायु परिवर्तन ने यहां कृषि आधारित आजीविका और खाद्यान्न उत्पादन पर खासा असर डाला है। बुंदेलखंड के जिलों में खाद्यान्न में 58 फीसदी की कमी दर्ज की गई है। निष्चित तौर पर यह कृषि आधारित समाज तथा उसकी आर्थिक स्थिति के लिए बेहद गंभीर बात है। मध्यप्रदेष के बुंदेलखंड क्षेत्र में कृषि क्षेत्र में नाकामी अब एक चक्रीय परिघटना बन चुकी है।
बुदेलखंड के लोगों पर जलवायु परिवर्तन का सीधा और गहरा असर साफ महसूस किया जा सकता है। यहां पिछले आठ सालों में मानसून की अवधि साल में 52 दिन से घटकर अब महज 24 दिन की रह गई है।
रामपाल सिंह बताते हैं कि निवारी और टीला गांवों में इतनी ज्यादा सब्जियां पैदा होती थीं कि यहां सब्जी उनके लिए बेहद मामूली चीज हो गई थी। यहां हर किसी की थाली में गेहूं, दाल, चना व सब्जियां पर्याप्त मात्रा में देखी जा सकती थीं। लेकिन यहीं हालात कुछ इस कदर बदले कि पिछले चार-पांच सालों से वह अपनी 40 बीघा जमीन पर लौकी, ककड़ी या आलू की फसल तक नहीं ले पाए हैं। अब उन्हें खाने की सब्जियों के लिए भी बाजार का मुंह ताकना पड़ता है। रामपाल ने पिछले साल अपने किसान क्रेडिट कार्ड से इस भरोसे पर कर्ज लिया था कि अच्छी फसल के होते ही वह कर्ज चुकता कर देगा। लेकिन अभी तक वह कर्ज की एक भी किष्त नहीं चुका पाया है।
पिछले चार-पांच सालों में बेहद कम पानी बरसने या कई क्षेत्रों में सूखा पड़ने के चलते इस क्षेत्र के तकरीबन सभी कुएं सूख चुके हैं।
बुदेलखंड के लोगों पर जलवायु परिवर्तन का सीधा और गहरा असर साफ महसूस किया जा सकता है। यहां पिछले आठ सालों में मानसून की अवधि साल में 52 दिन से घटकर अब महज 24 दिन की रह गई है।
यहां आंगनवाड़ी केंद्रों द्वारा गांवों में मुहैया कराए जा रहे पोषाहार योजना पर भी नकारात्मक असर पड़ा है, क्योंकि पानी के अभाव में पोषाहार को पकाना एक समस्या बन गया है। अगर ग्रामीण अपने गांवों में ही रुके भी रहें तो उन्हें सूखे की मार झेलनी पड़ती है।
बुंदेलखंड के ज्यादातर गांवों के लोग अब आसपास के षहरों के लिए पलायन करने लगे हैं ताकि वे गुजर-बसर के लिए कोई काम कर सकें। इसके चलते उनके बच्चों का भविष्य खतरे में पड़ गया है। उनके मुताबिक उनके बच्चों के भोजन का एक बड़ा हिस्सा स्कूलों के मध्यान्ह भोजन व आंगनवाड़ी के मिलने वाले पोषाहार के रूप में पहले गांवों में मिल जाया करता था। लेकिन बुंदेलखंड में पड़ रहे सूखे ने इन गांवों में लोगों की आजीविका का आधार ही हिला कर रख दिया है। खासकर जल आपूर्ति और कृषि के अभाव में किसी और तरह की गतिविधि यहां संभव ही नहीं रह गई है।

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