बुंदेलखंड में जीने के लिए जूझती
सचिन कुमार जैन
दो साल पहले तक श्रीपाल अपने 30 सदस्यों वाले संयुक्त परिवार के साथ मध्यप्रदेष के बुंदेलखंड क्षेत्र में छतरपुर जिले के एक छोटे से गांव में रहता था। उसका परिवार 40 बीघा जमीन पर खेती किया करता था, उनके पास 35 घरेलू जानवर भी थे। जाहिर है कि वह अपने परिवार के साथ सुरक्षित और सम्मानपूर्ण जिंदगी जी रहा था। अच्छी खेती से उसे न केवल पर्याप्त अनाज मिल जाता था बल्कि दूध बेचकर वह ठीक-ठाक पैसे भी कमा ले रहा था। लेकिन हालात ने कुछ इस तरह करवट ली कि श्रीपाल और उसके तीन भाई अब रिक्षा चालक बन गए। बुंदेलखंड के सूखे ने लोगों को असुरक्षा की भावना के साथ जीने के लिए मजबूर कर दिया। श्रीपाल और उसके भाईयों ने अपनी खेती के लिए जो कर्ज ले रहा था उसका निपटारा अब वे रिक्षा खींचने से होने वाली कमाई से कर रहे है। उन्हें सूखा राहत के तौर पर सरकार से फूटी कौड़ी तक नहीं मिली। रिक्षा चालक के तौर पर उन्हें छतरपुर शहर में एक जगह से दूसरी जगह जाने के बमुष्किल पांच से आठ रुपए मिलते हैं। एक रिक्षे के दिन भर के किराए के तौर पर उन्हें मालिक को 20 रुपए अलग से देने होते हैं। जाहिर है कि श्रीपाल और उसके भाई रोजाना की हाड़तोड़ मेहनत से केवल अपने परिवार के दो जून की रोटी का जुगाड़ कर पा रहे हैं। आलम यह है कि नए कपड़े भी उनके लिए सपना बनकर रह गए है।
हाल ही हुई थोड़ी बारिष के बाद चारों में एक भाई अपने गांव वापस लौट गया। लेकिन चारों अभी भी इस सवाल का जवाब ढूंढने की कोषिष कर रहे हैं कि आखिरकार गरीबी के इस दुष्चक्र से बाहर कब निकल पाएंगे। इस बार मानसून से पहले ही बादलों के बरसने से गांवों में लोग खेतों में हल नहीं चला सके और कोई भी फसल नहीं बो पाए। ऐसी चुनौतीपूर्ण स्थिति में बुंदेलखंड के गांवों के लोग राज्य सरकार से किसी तरह के सहयोग की उम्मीद लगाए बैठे है। लेकिन सूखे के चार साल बीतने के बावजूद राज्य और केंद्र के बीच विवादों के अलावा बुंदेलखंड को अपने लिए कुछ और नहीं मिला। होना तो यह चाहिए कि चिंता और परेषानी के दौर में लोगों के लिए राहत की राजनीति की जाए, लेकिन बुंदेलखंड में ठीक इसके उलट हो रहा है। यहां विभिन्न दलों की राजनीतिक विचारधारा भूख, आजीविका की असुरक्षा और पर्यावरण सुरक्षा सरीखे मुद्दों पर एकजुट होकर सामने नहीं आ पा रही है।
अगर इस साल (2008) की बात करें तो यह बारिष के संदर्भ में बेहतर माना जा सकता है। लेकिन यह भी बुंदेलखंड के लघु व सीमांत किसानों की जिंदगी में कोई सकारात्मक बदलाव ला पाने में सफल नहीं हो सका। इस बार लगातार तीन-चार दिन तक बारिष होने से निचले क्षेत्रों में पानी भर गया और किसान इनमें कुछ भी नहीं बो सके। अब वे अगली फसल के इंतजार में हैं लेकिन इसके लिए उन्हें ज्यादा निवेष करने की जरूरत पड़ेगी। क्योंकि पहले जो बारिष आई वह तय खेती के लिए निर्धारित समय से पहले हो गई या फिर कई स्थानों पर वह इतनी देर से आई कि खेत तैयार होने के बाद भी बोए नहीं जा सके। जाहिर है कि इससे किसानों की जिंदगी की असुरक्षा की दर्दनाक तस्वीर साफ तौर पर उभर कर सामने आती है। सूखे के चलते वे अपनी तमाम जमा-पूंजी खर्च कर चुके है। ऐसे में इस साल बारिष के बावजूद वे ज्यादा निवेष करने की हालत में नहीं हैं। उनके पास बीज, खाद, दवा खरीदने के लिए पैसे ही नहीं हैं। वास्तविक हालत तो यह है कि कि अब खेती के लिए कर्ज लेने का जोखिम उठाने की हालत में नहीं हैं। यहां रहते हैं रामपाल सिंह, 40 बीघा जमीन के मालिक। ऐसी जमीन जो कभी उर्वर थी और अच्छी तरह से सिंचित भी। रामपाल टीला गांव से हैं जो कभी बैंगन और लौकी के उत्पादन के लिए आसपास के इलाकों में काफी जाना जाता था। टीला पंचायत के 387 परिवारों में से 302 परिवारों का प्राथमिक पेषा खेतीबारी ही हुआ करता था। तीन साल पहले तक इस गांव से जबलपुर, भोपाल, इंदौर, झांसी व आगरा सरीखे शहरों को 17-18 ट्रक सब्जियां भेजी जाती थीं। इन षहरों की सब्जी की बड़ी मांग की आपूर्ति नेवारी ब्लाक से हुआ करती थी। लेकिन आज दुर्भाग्य से हालात बदल चुके हैं। हाल ये है कि अब हर दो दिन में महज एक ट्रक सब्जी ही यहां से बाहर जा पाती है। किसानों का अंदाजा है कि लौकी, आलू, षिमला मिर्च व बैंगन जैसी सब्जियों के उत्पादन में 70-80 फीसदी की गिरावट हुई है। उनका यह भी कहना है कि क्षेत्र के करीब 80 फीसदी किसानों ने सब्जियां उगानी बंद कर दी हैं, इनमें लघु और सीमांत किसान शामिल हैं।
यहां पिछले कुछ सालों में जलवायु में काफी ज्यादा बदलाव देखने में आया है। खासकर खेती की जमीनों को मुनाफे वाले औद्योगिक क्षेत्रों में देने के बाद यह बदलाव साफ तौर पर महसूस किया जा सकता है। और विडंबना तो यह है कि इसका खामियाजा उन्हें नहीं भुगतना पड़ रहा है जो इसके लिए जिम्मदोर है। इसका दुष्परिणाम भुगत रहे हैं बुंदेलखंड के स्थानीय वाषिंदे; यहां के ग्रामीण। यह जलवायु परिवर्तन का ही नतीजा है कि यहां पिछले आठ सालों में सालाना मानसूनी बारिष के दिन 52 से घटकर महज 24 रह गए है। राज्य सरकार ने इस साल यह दावा करते हुए टीकमगढ़ और छतरपुर जिलों को सूखा प्रभावित जिलों से अलग कर दिया कि इस साल यहां औसत से ज्यादा बारिष हुई है। लेकिन यहां सवाल यह है कि क्या ऐसी घोषणा करने वाले राज्य के आला अधिकारी यह नहीं जानते थे यह बारिष 45-50 दिनों की निर्धारित अवधि की बजाय महज 20 दिनों में ही हो गई है और इससे खेती को फायदे की बजाय नुकसान हुआ है। इन तथ्यों से साफ तौर पर कहा जा सकता है कि समूचा बुंदेलखंड अभी भी सूखे की गंभीर त्रासदी से जूझ रहा है।
यहां के गरीब किसान पूरी तरह से किसान पर निर्भर है, लेकिन सरकार असल समस्या को पूरी तरह से दरकिनार कर दे रही है। यह अलग बात है कि प्रशासन ने सूखा पीड़ितों के प्रति सहानुभूति दिखाते हुए एक एकड़ जमीन के बदलू 1200 रुपए की क्षतिपूर्ति देने की षुरुआत कर दी। इससे यह पता चलता है कि प्रषासन की नजर में इन किसानों की अहमियत भिखारियों से ज्यादा कुछ भी नहीं है। इससे इस बात का भी अंदाजा होता है कि राज्य सरकार की प्राथमिकता की सूची में खेती को कितनी अहमियत दी जा रही है। मुआवजे की इस मामूली रकम को देने की प्रक्रिया इतनी अमानवीय है कि ज्यादातर किसानों ने इसे लेने से साफ इनकार कर दिया है। यह मुआवजा पटवारी के पास मौजूद पुराने राजस्व रिकार्डों के आधार पर तैयार किया जा रहा है। इन पुराने रिकार्ड में जमीन का एक टुकड़ा 18 से 20 लोगों के नाम पर है, और यही कारण है कि मुआवजे का चेक भी इन सभी लोगों के नाम पर दिया जा रहा है। यानी, 1200 रुपए का चेक 20 लोगों के लिए। यही नहीं, सरकारी प्रक्रिया में यह भी अनिवार्य है कि मुआवजे के लिए मिले चेक के भुगतान के समय हर सदस्य को वहां मौजूद होना चाहिए। जबकि वास्तविकता यह है कि कई मामलों में परिवार के कुछ सदस्यों की या तो मौत हो गई है या फिर वे पलायन कर गए हैं। ऐसी विषम परिस्थिति में सभी को केैसे मुआवजा दिया मिलेगा यह एक कठिन और बड़ा सवाल है। यह उदाहरण इस बात को दर्षाता है कि यहां के नौकरषाह और जन प्रतिनिधियों को यहां की जनता की नहीं बल्कि स्थानीय कृषि की जमीन को औद्योगिक घरानों को बेचने की ज्यादा फिक्र है।
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