Thursday, January 22, 2009

कलम से आग

फिर भी


तुम्हारे साथ हमेषा जुड़ी रहेंगी
मेरी उम्मीदें,
इस सवाल के बावजूद
कि न जाने तुम कब सुन पाओगे
कांच की अपनी इमारत के बाहर
मची चीत्कार,
मैं यह कभी नहीं भूल पाऊँगा
माँ के मर जाने पर भी
तुमने नहीं किया था कोई सवाल,
इस कड़वे सच के बावजूद
कि कर्ज के अपराध से
व्यथित किसान ने खुद के लिये
तय की सजा मौत की,
जिन्दगी में सबसे पहले
मौत को देखते रहे बच्चे अनगिनत
पर तुमने कभी नहीं बरसाई
कलम से आग,
मैं यह भी नहीं भूल सकता ू
कि सकारात्मक होने के नाम पर
तुमने करोड़ों को किया है मजबूर
भूखे पेट सोने के लिए
क्योंकि वो नहीं खरीद पाते हैं
अखबार और नहीं भर पाते हैं
कम्पनियों के भण्डार,
सच है यह कि जिन हाथों से
छिन गई है कलम और किताब
वे अब तुम्हे खोजते हैं
रोटी की खातिर रद्दी के ढेर में,
वो नहीं सुनेंगे तुम्हारे विष्लेषण
जिन कानों से छिन गई
छुट्टी की घंटी की आवाज
पर नहीं टूटा तुम्हारा मौन,
मैं नहीं भूल पाऊँगा
तुम्हारे अपराधी होने का सच
इन अहसासों के बावजूद तुम्हारे साथ
हमेषा जुड़ी रहेंगीमेरी उम्मीदें आखिर तक,

1 comment:

  1. aapki likhi panktiya kabhi nahi bhul paungi.
    Bhoomika kalam

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