Wednesday, May 26, 2010

औरत को भूखे रखे जाने की जरूरत?


सचिन कुमार जैन

पोषण की कमी, भेदभाव, भांति-भांति की हिंसा और शोषण के कारण भारत में 427 लाख महिलाओं का अस्तित्व खत्म हो गया है। नैसर्गिक रूप से महिलाओं और पुरूर्षों की संख्या बराबर-बराबर होना चाहिये परन्तु भारत की कुल जनसंख्या में से महज 48.2 प्रतिशत ही महिलायें हैं। इस देश में एक लाख जीवित जन्म पर 301 महिलाओं की प्रसव से जुड़े कारणों से मृत्यु हो जाती है, यह दुनिया की सबसे खराब स्थिति वाले देषों में शुमार है। इस मान से लगभग 70 हजार मातृत्व मौतें हर साल भारत में होती हैं और इन मौतों का बड़ा कारण खून की कमी है और क्योंकि उन्हें पोषण की आपूर्ति ही नहीं हो पाती है। राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण् के मुताबिक केवल 39.8 फीसदी महिलाओं को ही दूध या दही हर रोज सीमित मात्रा में मिलता है। 47.3 प्रतिशत महिलाओं को दाल या चने कभी-कभार मिलते हैं। यहा 55.3 प्रतिशत महिलायें खून की कमी की शिकार हैं और 35.6 प्रतिशत पोषण की कमी की स्थिति में हैं।

श्योपुर जिले के पातालगढ़ गांव की गुड्डी बाई ने 16 तारीख को एक बच्चे को जन्म दिया था और इसके ठीक 15 मिनट बाद उस नवजात शिशु के होंठो पर चिपचिपा गुड़ चिपका दिया ताकि उसके स्वाद से बच्चा न रोये। उस नवजात शिशु को गुड्डी ने अपना दूध क्यों नहीं पिलाया; इस बुध्दिजीवी सवाल का उसने एक कड़वे से सच के साथ जवाब दिया कि जब मैंने ही तीन दिन से रोटी नहीं खाई है तो दूध कहां से उतारूं? अब सवाल यह है कि जब देश में राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा क़ानून बनाने की तेयारी ह़ो रही ह़ो तब क्या महिलाओं की खाद्य सुरक्षा के सवाल को नज़र अंदाज़ करना करना जायज़ है? दुखद किन्तु सच यही है कि स्त्रियों के अधिकार को पुरुषों वाले समाज में कहीं गुम कर दिया गया है. जिस व्यवस्था में उन्हें सबसे आखिर में और सबसे कम खाना खिलाना सामाजिक सिद्धांत ह़ो वहाँ राज्य को जरा अपने नज़रिए को व्यापक करना होगा.
कुछ मामलों में हमारी स्थिति मोरक्को, मलावी, चाड, इरीट्रिया से भी खराब है, जैसे जन्म के समय बच्चों का कम वजन होना। भारत में 28 फीसदी बच्चों का वजन जन्म के समय कम होता है। पिछले डेढ़ दशकों से भारत में राष्ट्रीय मातृत्व सुरक्षा योजना इसी मकसद से चलाई जाती रही कि प्रसव के 4 से 12 सप्ताह पहले महिलाओं को एक निष्चित राशि सरकार उपलब्ध करवाये, जिससे वे पोषण सम्बन्धी अपनी जरूरत को पूरा कर सकें; परन्तु जननी सुरक्षा योजना के लागू होने के साथ (जिसमें अस्पताल में प्रसव कराने पर बच्चे के जन्म के बाद आर्थिक मदद मिलती है) ही इस योजना पर लापरवाही का पलीता लगा दिया गया। जब जरूरत है तब सरकार मदद नहीं देती है अब। ऐसे में राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा कानून के तहत महिलाओं की खाद्य सुरक्षा के अधिकार शामिल होने पर ही उनके साथ न्याय होगा।

भारत जैसे विकासशील देशों में 60 से 80 प्रतिशत खाद्यान्न उत्पादन महिलाओं के हाथों से होता है। पर पारम्परिक और सांस्कृतिक संदभों में महिलाओं के लिये सबसे बाद में, सबसे कम और कभी-कभी नहीं ही खाने का सिध्दान्त बना हुआ है। सत्ता और संसाधन महिलाओं के साथ भेदभाव की मूल जड़ है, जिसमें पितृ सत्तात्मक सोच आधार का काम करती है। ऐसे में उन महिलाओं की स्थिति की कल्पना कीजिये जो अकेली हैं, विधवा हैं या जिनका तलाक हो चुका है। ऐसी महिलायें यौन आक्रमण की षिकार होती हैं और उन्हें दबाव डालकर मौन रहने के लिये मजबूर किया जाता है। उनके लिये कोई संरक्षण नहीं है। 1999 के उड़ीसा चक्रवात] 2001 के गुजरात के बाद और फिर 2002 के गुजरात के साम्प्रदायिक दंगों के बाद ऐसी महिलाओं के यौन उत्पीड़न के हजारों मामले सामने आये। महिलाओं के इस वर्ग को समाज तो दूर परिवार में ही संरक्षण नहीं मिलता है। यह वर्ग कोई छोटा सा समूह नहीं है। 2001 की जनगणना के मुताबिक भारत में 6.9 प्रतिषत तलाकशुदा या परित्यक्ता हैं। इसके साथ ही 30 साल से ज्यादा उम्र की 1.4 प्रतिषत महिलायें अविवाहित हैं, जिन्हें भी एकल की श्रेणी में माना जा सकता है। इस तरह 7.5 प्रतिशत भारतीय महिलायें अकेली हैं और यह संख्या है चार करोड़ यानी कनाडा की जनसंख्या से ज्यादा। इनमें से 2 करोड़ महिलायें 60 वर्ष से ज्यादा उम्र की हैं और हमारे पारम्परिक से मौजूदा सामाजिक ढांचें की यात्रा का अनुभव बताता है कि ये महिलायें हर क्षण सामाजिक बहिष्कार का सामना करती हैं इनकी खाद्य सुरक्षा का सवाल उतना ही बड़ा है जितना की जीवन का सवाल! एक स्तर पर खाद्य सुरक्षा का अधिकार महिलाओं के इस वर्ग को सम्मान का अधिकार दिला सकता है।

अगर सरकारी व्यवस्था पर एक नजर डाली जाये तो उसका नजरिया समझने के लिये बहुत दूर नहीं जाना पड़ेगा। जब हम सरकार की नीति के अन्तर्गत सामाजिक सुरक्षा को परिभाषित करते हैं तो स्पष्ट होता है कि औरतों के लिये सामाजिक सुरक्षा के मायने उसके निराश्रित होने या विकलांग होने तक ही सीमित है जब उसे 275 रूपये प्रति माह की पेंशन मिलने लगती है परन्तु सामाजिक नजरिये से यह पेंशन उन्हें और अधिक वंचित और उपेक्षित कर देती है क्योंकि इस पेंशन की पात्रता के साथ ही उनकी व्यापक समाज से जुड़ी हुई पहचान पूरी तरह से खत्म हो जाती है। तात्कालिक जरूरत को पूरा करने के उद्देश्य से शुरू हुई इस तरह की योजनायें अब सामाजिक जरूरत बन गई हैं और सरकार का दावा होता है कि वह भुखमरी रोकने के जतन कर रही है।

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