Wednesday, May 26, 2010

औरत के भोजन के हक़ का सवाल


चौंकिएगा मत! तीसरा राष्ट्रीय परिवार स्वस्थ्य सर्वेक्षण इस तकलीफदेय सच्चाई को उजागर कर चुका है कि हमारे समाज में महिलाओं के शरीर में खून की कमी होती जा रही है। जहां आठ साल पहले मध्यप्रदेश में हर सौ में से 49.3 महिलायें खून की कमी से जूझ रही थीं, वहीं संख्या अब बढ़कर अब 57.6 हो गई है। महिलाओं के बिगड़ते पोषण के समीकरण में भेदभाव और उनके साथ होने वाला दोयम दर्जे का व्यवहार भी गंभीर भूमिका निभाता है। अब यह आंकड़े एक बार फिर बेहद सामयिक इसलिए ह़ो जाते हैं क्यूंकि सरकार देश के लोगों के लिए राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा क़ानून बनाने की प्रक्रिया में है.

एक तरफ तो 73 फीसदी महिलाओं को स्वास्थ्य सुविधायें उपलब्ध नहीं हैं वहीं दूसरी ओर यह भी एक सच्चाई है कि हमारी सामाजिक व्यवस्था में रोटी का अधिकार भी उसे उपलब्ध नहीं हैं। यह तर्क बेमानी है कि गरीबी के कारण अनाज न होने से औरत भूखी रहती है। यदि ऐसा होता तो 60 प्रतिषत महिलाएं खून की कमी की शिकार नहीं होती। वास्तविकता यह है कि वर्ग कोई सा भी हो, उच्च वर्ग, मध्यम वर्ग या निम्न वर्ग; सभी वर्गों की औरतों को उनकी जरूरत के अनुरूप पोषणयुक्त पर्याप्त मात्रा में भोजन नहीं मिलता है। मध्यप्रदेश का मानव विकास प्रतिवेदन, राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण के हवाले से बताता है कि प्रदेश में 20.3 फीसदी महिलायें ही हर रोज दूध या दही पाती हैं जबकि 43 फीसदी को ही कभी दाल मिलती है। इस स्थिति में जब हम फलों पर पहुंचते हैं तो पता चलता है कि केवल 5 फीसदी महिलाओं को फल खाने को मिलते हैं। और 0.9 प्रतिशत को अण्डे और आधा फीसदी औरतों को मांसाहार करने का मौका मिलता है। ऐसी अवस्था में जरूरी है कि खाद्य सुरक्षा क़ानून के तहत उनके साथ होते रहे ऐतिहासिक अन्याय को बंद करते हुए औरत के लिए बराबरी का माहौल बनाया जाए. इस क़ानून से यदि उन्हें बाहर रखा गया तो लेंगिक भेदबाव को एक कानूनी मानयता भी मिल जायेगी. उन्हें सामान्य परिस्थितियों से लेकर किशोरावस्था के मौके पर पोषण का हक़ चाहिए. जब वह गर्भ धारण करती है तब समाज की जिम्मेदारी है कि उसे संरक्षण मिले, पर भेदभाव ने स्त्री के साथ कभी न्याय नहीं होने दिया. अब राज्य को अपनी जिम्मेदारी निभाना है. मातृत्व सुरक्षा, किशोरी बालिका के लिए संरक्षण और दूध पिलाने वाली माताओं के भोजन और पोषण के अधिकार को इसमें शामिल किया जाना एक ही रास्ता है.
इसके साथ ही एक पक्ष यह भी है कि तेज विकास की प्रक्रिया में स्त्री का विकास और पुरूष के विकास की परिभाषा में भी लैंगिक भेद है। जब विकास की परिभाषा में कृषि, बागवानी, ट्रेक्टर या इसी तरह की ठोस जरूरतों के लिये योजनाओं की बात होती है तो पूरा 100 फीसदी हिस्सा पुरूषों के खाते में ही जाता है; औरतों को सूची में रखने का 'जोखिम' न सरकारी कर्मचारी उठाना चाहता है न ही ऋण देने वाले बैंक का प्रबंधक। वहीं दूसरी ओर बहुत दबाव के बाद जब सरकार को लगने लगा कि अब औरतें भी राजनीति के चेहरे को पहचानने लगी हैं तो शुरू हो गये आय सम्वर्धन कार्यक्रम। इन कार्यक्रमों का रूप भी 'स्त्रीयोचित' ही रखा गया यानी चूंकि बात औरतों की हो रही है इसलिये सहायता मिलेगी, अचार, बड़ी, पापड़ या सिलाई, कढ़ाई के काम के लिये।
काम का भेदभाव भी बहुत सोच समझ के साथ किया जाता है। जिस काम में गति है, भ्रमण है, रोचकता है, वह काम पुरूष करता है। जबकि जो काम उबाऊ है, नीरस है और मेहनत वाला है वह औरतों के हिस्सों में आता है। खेती का ही उदाहरण लें। मर्द जब पानी ढोयेगा तो वह या तो ट्रेक्टर पर ढोयेगा या फिर बैलगाड़ी पर; पर जब महिला ढ़ोयेगी तो सिर पर तीन मटके रखकर पैदल चल पड़ेगी। धान की बुआई और कटाई महिला करेगी क्योंकि घुटनों-छुटनों पानी में कमर झुकाकर यह काम करना होता है, पुरूष इसी फसल को ट्रेक्टर पर लादकर मण्डी या बाजार में बेचने चल देगा। औरत के जीवन का वह चित्र किसी भी समुदाय या प्रदेश में रंग नहीं बदलता है जिसमें उसे सबसे बाद में बचा-खुचा भोजन खाते हुये दिखाया जाता है, पोषण महत्वपूर्ण नहीं है, महत्वपूर्ण है कि वह बासी भोजन को व्यर्थ जाने से बचायेगी। जिस सामाजिक और पारिवारिक पर्यावरण में वह रहती है, वह पर्यावरण उसके दुखदायी भविष्य की रूपरेखा तैयार करता है। पोषण, सुरक्षा, मनोरंजन और स्वतंत्रता के अभाव में एक बीमार जीवन पनपने लगता है। यही जीवन वृध्दावस्था में हर तरह से असुरक्षित होता है। प्रजनन अपने आप में प्रकृति की सबसे सार्थक और रचनात्मक विषेषता है और स्त्री उस विषेषता की वाहक है किन्तु वास्तविकता यह है कि यही विषेषता उसके लिये सबसे ज्यादा पीड़ादायक क्षण पैदा करती है। शरीर का दर्द हो चाहे मन की पीड़ा या फिर समाज की शंकायें; सब कुछ प्रजनन से ही जुड़ा हुआ है। और सच यह है कि 43 फीसदी महिलाओं का प्रसव ही प्रशिक्षित दाई करवाती हैं और 77 प्रतिषत को किसी तरह की चिकित्सा सुविधा उपलब्ध करवाने की जरूरत महसूस नहीं की जाती। हर दस हजार महिलाओं में से 54 महिलायें प्रसव के दौरान जीवन त्याग देती हैं और हर 48 में से एक महिला की मृत्यु का कारण भारत में गर्भावस्था या प्रजनन से जुड़ी समस्यायें होती हैं। माहवारी का मामला हो चाहे प्रजनन का, उसके जीवन की व्यवस्था परम्परा, मान्यताओं और रूढ़ियों से तय होती है; जिनके मानवीय होने पर बहुत बड़े सवाल हैं। यह स्थिति बहुत गंभीर है क्योंकि उसे पोषण का अधिकार नहीं है। संकट यह है कि चूँकि राशन कार्ड भी महिलाओं के नाम पर नहीं बनता है और पुरुष को ही परिवार का हर तरह का मुखिया माना जाता है, तो ऐसे में राशन की दूकान से मिले वाला साथ राशन भी स्त्री को पूरे हक़ के साथ नहीं मिल पाता है. बात साफ़ है कि जिसके नाम पर कार्ड है वही उस अधिकार यानी राशन का मालिक होता है. जरूरी है कि सरकार नए क़ानून के तहत राशन कार्ड महिलाओं के नाम पर जारी करे. साथ ही यह भी बेहद महत्वपूर्ण है कि गर्भवती और धात्री महिलाओं की खाद्य सुरक्षा के लिए व्यापक पहल ह़ो, जो उनके मातृत्व स्वास्थ्य के साथ जुडी हुई ह़ो. इस व्यापक परिप्रेक्ष्य में यह देखना जरूरी है कि प्रस्तावित खाद्य सुरक्षा क़ानून में महिलाओं के पोषण और भोजन के अधिकार को सम्मानजनक मान्यता मिलती है या नहीं? अभी तक जो प्रस्ताव सरकार के भीतर आये हैं, उनमे महिलाओं और बच्चों के अधिकारों को साफ़ चश्मे से नहीं देखा जा रहा है. ऐसे में उनके हकों का लगातार हनन होते रहे की आशंकाएं बढ़ जाती हैं.

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