गरीबी को नकारने की कोशिशें जारी हैं!
सचिन कुमार जैन
देश में कितने गरीब हैं, इस सच्चाई को सामने लाने की जिम्मेदारी हम अब हमारी ही सरकार के साथ जुड़े हुए विशेषज्ञों और योजना आयोग पर नहीं छोड़ सकते हैं. ये अपनी विश्वसनीयता खो चुके हैं. वर्ष 2004-05 में देश को इन लोगों (सरकार के विशेषज्ञों और योजना आयोग ने आंकड़ों की बाजीगरी के जरिए) ने यह बताया था कि अब ग्रामीण भारत में 28.3 प्रतिशत लोग गरीब हैं, यानी 1999-2000 की तुलना में लगभग 9 फ़ीसदी गरीबी कम हो गयी थी. इसके पहले भी भारत सरकार के गरीबी संबंधी अनुमानों को पहले नागरिक संगठनों ने सडकों पर और 2002 में अदालतों में चुनौती दी थी। आठ साल तक संगठनों ने गरीबी की राजनीति को जन संघर्ष के जरिये समाज के सामने लाने के भरसक कोशिशें की. मसला साफ़ था कि सरकार गरीबी के आंकड़ों को आर्थिक सांख्यिकी का जटिल विषय बना कर बार-बार यह जताने और बताने की कोशिश करती है कि उदारीकरण और पूंजीवादी औद्योगीकीकरण के फलस्वरूप दरिद्रता कम हो रही है, जबकि वास्तव में संसाधन कुछ ख़ास परिवारों और समूहों के कब्जे में जा रहे हैं. जो अब तक संसाधनों के मालिक रहे हैं वो अब मजदूरों की भूमिका में है, जो किसान अनाज पैदा करता है और 40 करोड़ लोगों को रोज़गार देते रहे, वही अब मजदूर बन रहे हैं, अकुशल के जा रहे हैं और भूखे सो रहे हैं. पर फिर भी योजना आयोग के मुताबिल गरीबी कम होती रही. इस परिद्रश्य में सर्वोच्च न्यायालय के निर्देश पर गरीबी की पहचान के कुहरे को छांटने के लिए केंद्रीय ग्रामीण विकास मंत्रालय ने डा. एन से सक्सेना समिति बनाई. योजना आयोग को उम्मीद थी कि यह समिति गरीबी के मौजूदा आंकड़ों को पूरी तरह से नकार कर गरीबी के षड़यंत्र का पर्दाफ़ाश कर देगी, तो उसने खुद प्रोफ. सुरेश तेंदुलकर समिति बना दी. गरीबी के आंकड़ों का झूठ इतना बड़ा था कि दोनों ही समितियां योजना आयोग द्वारा तय गरीबी के मौजूदा स्तर (28.3 फ़ीसदी) को स्वीकार ना कर सकीं. और गाँव में कहीं ज्यादा गरीबी के आंकडे सामने लेकर आईं – क्रमश 41.8 (तेंदुलकर) और 50 (सक्सेना) प्रतिशत. परन्तु अब भी गरीबी के इन आंकडों के बीच ही गरीबों को बाहर रखने की आंकडों की बाजीगरी छिपी हुई है। योजना आयोग ने हाल ही अपनी ही समिति, यानी तेंदुलकर के अनुमानों को अनमने मन से स्वीकार कर लिया है कि भारत में कुल . मसला यह है कि गरीबी के बढे हुए आंकड़े तो सामने आ गए, परन्तु क्या यह भी पूरी तरह से गलत सिद्धांतों पर आधारित गलत आंकलन नहीं है? यह समिति स्वास्थ्य, शिक्षा, जाति-वर्ग-लिंग आधारित गरीबी के सूचकों को संज्ञान में नहीं लेती है, क्योंकि इससे गरीबों की संख्या बढ़ जायेगी. तेंदुलकर ने माना है कि गाँव में 446.68 रूपए प्रति व्यक्ति प्रतिमाह और शहर में 578.8 रूपए प्रति व्यक्ति प्रतिमाह से कम खर्च करने वाले लोग गरीब माने जा सकते हैं, जबकि सक्सेना ने यह खर्च 650 और 1000 माना था. महत्त्वपूर्ण यह है कि तेंदुलकर वर्ष 2004-04 की कीमतों पर इस खर्च का आंकलन कर रहे हैं, जबकि पिछले 4 सालों में मंहगाई ने सारे रिकॉर्ड तोड़ते हुए आपना आकार बढ़ाया है. अब तेंदुलकर द्वारा तय खर्चे में जिंदगी कम और मौत आसानी से खरीदी जा सकेगी. ऐसा क्यों होता है कि गरीबी के मामले में सरकार सबसे कम स्तर के आंकड़ों को स्वीकार करती है और आर्थिक विकास के मामले में जब अमीरों को रियायत देना होती है तो ऊँचे स्तर के आंकड़ों को खींच-खींच कर बीच में लाती है. चूँकि तेंदुलकर ने शहरी गरीबी के मामले में खर्च के स्तर को 19 रूपए प्रतिदिन ही रखा है, जिससे वहाँ उनका आंकलन योजना आयोग के बराबर ही रहा. दूसरी तरफ उन्होंने ग्रामीण गरीबी के मामले में प्रतिव्यक्ति खर्च 12 रूपए प्रतिदिन से बाधा कर 15 रूपए से कुछ कम कर दिया तो इतने से ही वहाँ गरीबी का स्तर 28 से बढकर 42 प्रतिशत हो गया. फिर भी सवाल यह है कि क्या 15 रूपए में जिन्दगी गुजारी जा सकती है?
गरीबी की मौजूदा परिभाषा और सूचकों में बदलाव ना होने पाए और गरीबी की पहचान के वर्तमान तरीकों में बदलाव की नौबत ना आये, यह तेंदुलकर ने पूरी कोशिश की है. उसने भी आय को नहीं बल्कि खर्च को बुनियादी मानक माना है. इसमें एक स्तर पर तो केलोरी के मापदंड को आधान ना बनाने की बात कही पर दूसरी और यह भी स्थापित करने की कोशिश की कि अब भारत के शहरी इलाकों के लोगों को 2100 नहीं 1770 और ग्रामीण इलाकों में 2400 नहीं बल्कि 1990 केलोरी की ही जरूरत है. इस तरह तेंदुलकर समिति ने अपना रंग दिखा दिया । देश में गरीबी की परिभाषा के क्रांतिकारी आकलन की जरुरत थी लेकिन इसकी बजाय समिति पुराने ढर्रे पर चिपकी रही जो कि सरकार के चुनिंदा योजनाकारों के अलावा किसी को भी स्वीकार्य नहीं था। एक मनमाने तौर पर चुनी गई शहरी गरीबी रेखा के आधार पर खपत के आकलन से तेंदुलकर समिति ग्रामीण इलाकों के लिए 41.8 प्रतिशत के गरीबी अनुपात के अनुमान पर पहुंची थी।
सरकार को यह बताने के लिए कि उसके विभिन्न मकसदों के लिए नई विधि कितनी कारगर होगी, प्रयोग के तौर पर समिति ने अपनी विधि का इस्तेमाल 1993-94 में गरीबी का अनुपात जानने में किया । उसे पता चला कि 1993-94 में शहरी इलाकों के 31.8 प्रतिशत गरीबी अनुपात की तुलना में ग्रामीण इलाकों में गरीबी 50.1 प्रतिशत थी जिससे राष्ट्रीय स्तर पर आंकडा 45.3 प्रतिशत आया जो कि तत्कालीन सरकार के अनुमान से भी कहीं अधिक पाया गया। समिति ने सरकार को यह भी आश्वासन दिया कि नई विधि से हालाकि 2004-05 में ग्रामीण गरीबी का अनुपात अखिल भारतीय स्तर पर कहीं अधिक आता है लेकिन इसमें भी 1993-94 की तुलना में 2004-05 में अगर देखें तो गरीबी कम होती नजर आती है जैसे कि पुरानी विधि में निष्कर्ष सामने आता है। दूसरे शब्दों में “सरकार हमारी विधि से भी आपका गरीबी कम होने का प्रचार पूरी गति से चलता रह सकता है।“
तेंदुलकर समिति ने अपने बोगस आधारों को औचित्यपूर्ण भी बताना जरुरी समझा। यह स्पष्ट करने के बावजूद कि गरीबी के आकलन के लिए उसने केलोरी ग्रहण की बजाय खपत को मापदंड बनाया है, समिति अपनी गरीबी रेखा के पक्ष में दलील देते हुए कहती है कि नई गरीबी रेखा निर्धारण में रोजाना केलोरी लेने का मानदंड (शहरी के लिए 1776 , ग्रामीण के लिए 1990) खाद्य एवं कृषि संगठन द्वारा भारत के लिए सुझाए गए 1770 के दैनिक केलोरी मानदंड के समकक्ष ही है, जबकि इंडियन काउंसिल फॉर मेडिकल रीसर्च स्वस्थ्य और सक्रीय जीवन के लिए शहर में २१०० केलोरी जरूरी मानती है। यह हेराफेरी शर्मनाक और हास्यास्पद है। खाद्य एवं कृषि संगठन के केलोरी मानदंड कई सालों से आलोचनाओं का शिकार रहे हैं, क्यूंकि यह गरीब और अमीर देशों के बीच भेदभाव करते हैं. इसी तरह गामीण इलाकों के लिए भी खाद्य एवं कृषि संगठन ने भारत के ऐसे व्यक्ति के लिए जो शारीरिक श्रम की गतिविधियों में कम लिप्त रहता है 1770 केलोरी की न्यूनतम आवश्यक आहार ऊर्जा का पुननिर्धारण किया है, जबकि इंडियन काउंसिल फॉर मेडिकल रीसर्च ने 2400 केलोरी की जरूरत का मापदंड निर्धारित किया है। तेंदुलकर समिति ने इसका कोई उल्लेख नहीं किया है कि क्या इस विशेषज्ञ समिति के सदस्य 1770 केलोरी प्रतिदिन लेकर निर्माण श्रमिक का जीवन बिताना पसंद करेंगे या 1990 केलोरी प्रतिदिन में नरेगा के श्रममूलक काम करेंगे। अगर ऐसा होता है तो यह आदर्श विश्व हो जाएगा लेकिन ञासदी है कि हम ऐसी दुनिया में रह रहे हैं जिसमें अर्थशास्ञी आपस में बैठकर तय कर लेते हैं कि गरीबी की परिभाषा क्या है यह जाने बगैर कि देश में गरीब होने का क्या मतलब है। यह भारत ले लोगों को भूख के साथ ज़िंदा रखने की साजिश है.
खाद्य एवं कृषि संगठन ने खुद भी आगाह किया है कि ऐसे देशों में जहां कुपोषण की दर काफी अधिक है, वहां आबादी का एक बडा हिस्सा न्यूनतम आवश्यक आहार ऊर्जा के करीब ही भोजन कर पाता है । उनके लिए न्यूनतम आवश्यक आहार ऊर्जा का मानदंड काफी संवेदनशील मामला है । लेकिन क्या तेंदुलकर समिति ने खाद्य एवं कृषि संगठन की इस चेतावनी पर रत्ती भर भी ध्यान दिया है । देश में रोजाना लिया जाने वाला आहार होना चाहिए जो भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद ने स्वास्थ्य और शरीर का वजन बनाए रखने के लिए सुझाया है, ज्यादा शारीरिक श्रम न करने वाले पुरुष के लिए 2425 केलोरी से लेकर अधिक श्रम करने वाले पुरुष के लिए 3800 केलोरी । महिलाओं के लिए यह क्रमश 1875 केलोरी से 2925 केलोरी होना चाहिए। देश में मशीनीकरण का तर्क देते हुए कम केलोरी मानदंड को उचित ठहराना बहुत बेतुकी सी बात है। तेंदुलकर कमेटी के अनुमान के मुताबिक देश के 93 प्रतिशत लोग असंगठित क्षेञ में काम करते हैं और गरीबी रेखा पर जीवन बसर करते हैं, ऐसे में उनके द्वारा किया जाने वाला शारीरिक श्रम कम मेहनत वाले काम के रुप में नहीं आंका जा सकता ।
गरीबी की राजनीति को समझने वाले संगठन इस बात पर कायम हैं कि सार्वजनिक वितरण प्रणाली और लंबित खाद्य सुरक्षा कानून के तहत भोजन आहार, शिक्षा, स्वास्थ्य, काम और सामाजिक सुरक्षा सभी भारतीयों को बिना किसी पात्रता के अनिवार्य रुप से मिलना चाहिए, और इन्हें गरीबी के रेखा से बुने गए जाल से बाहर निकाला जाना चाहिए । सभी के लिए इन सेवाओं की उपलब्धता पर बल देते हुए रोज़ी-रोटी का अधिकार अभियान यह भी मानता है कि यह सामाजिक सेवाएं एक समान प्रकृति की नहीं हो सकतीं और सामाजिक रुप से कटे हुए लोगों को इसमें शामिल करने के लिए सकारात्मक कदम उठाने की आवश्यकता है । सुप्रीम कोर्ट ने भी सरकार को आदेश दिया है कि वृद्धजनों, बेसहारा लोगों, पिछड़ी हुई जनजातियों, विकलांगों, एकल महिलाओं, विधवाओं और धाञी महिलाओं को गरीबों की श्रेणी में रखा जाना चाहिए । तेंदुलकर समिति ने अपनी रिपोर्ट के प्रारंभ में गरीबी की बहुआयामी प्रकृति की बात तो स्वीकार की है लेकिन इन वर्गों को गरीब की श्रेणी में शामिल करने को नजरअंदाज करते हुए दुबारा इनका उल्लेख भी रिपोर्ट में नहीं किया है।
तेंदुलकर कमेटी द्वारा सुझाए गए अनुमानों को योजना आयोग ने स्वीकार कर लिया। इन अनुमानों में 41.8 प्रतिशत ग्रामीण और 25.7 प्रतिशत शहरी आबादी को गरीबी की रेखा से नीचे गिनते हुए पिछले कम और अन्य उच्च अनुमानों को नकार दिया गया था। इसके पहले कि तेंदुलकर समिति के अनुमानों को सामाजिक योजनाओं में हितग्राहियों का निर्धारण करने में इस्तेमाल किया जाए उनका सरकार और देश की जनता द्वारा मूल्यांकन किए जाने की जरुरत है। इस तरह अब ज्वलंत प्रश्न है कि क्या तेंदुलकर कमेटी की रिपोर्ट में गरीबी के अनुमान समुचित गणना करते हुए देश के वास्तविक और सभी गरीबों को शामिल करते हैं।
पोषण और भूख की स्थिति को लेकर अपने अध्ययन में प्रो उत्सा पटनायक बताती हैं कि कैसे देश के 76 प्रतिशत परिवार या 84 करोड लोगों को रोजाना जरुरी कैलोरी का भोजन नहीं मिल पाता है जो कि शहरी वर्ग के लिए 2100 केलोरी है और ग्रामीण नागरिक के लिए 2400 केलोरी है । असंगठित क्षेञ के कामगारों पर अर्जुन सेनगुप्ता की रिपोर्ट के मुताबिक देश में 77 प्रतशित लोग 20 रुपए प्रति दिन से भी कम में गुजारा करते हैं । और तो और राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (3) के अनुसार पांच साल से कम उम्र के 46 प्रतिशत बच्चे कुपोषित हैं। रोज़ी-रोटी के अधिकार अभियान ने 2001 से 2005 के बीच देश के विभिन्न भागों में भूख से पांच हजार मौतों की जानकारी दर्ज की है। इसके बावजूद भारत सरकार अपने रुख पर अटल है कि देश में गरीबी कम हो रही है । इस दावे को सरकारी नीतियों की सफलता बताया जाता है जबकि प्रकट रुप से कारपोरेट और खेती विरोधी नीतियों से हालात और बदतर हुए हैं । ग्रामीण इलाकों में गरीबी का अनुपात बढता दिखाई देने के बावजूद तेंदुलकर समिति से सरकारी तंञ खुशी से फूला नहीं समाया क्योंकि इससे उनका यह मिथक कायम रहा है कि देश में गरीबी कम हो रही है ।
गरीबी की रेखा का यह आंकलन ताज़ा सन्दर्भों में इसलिए महत्वपूर्ण हो गया है क्यूंकि सरकार राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा क़ानून लाने वाली है और इन नए आंकड़ों से ही यह साफ़ होगा कि कितने परिवारों को भरपेट खाने का अधिकार मिल पायेगा. तेंदुलकर के मुताबिक 8.14 करोड़ परिवार गरीब हैं, जबकि सक्सेना 10.87 करोड़ परिवारों के गरीब मानते हैं. और यदि भूख के पोषण के नज़रिए से देखा जाए तो अर्जुनसेन गुप्ता और उत्सा पटनायक के मुताबिक़ 16.75 करोड़ परिवार गरीबी की रोखा में आना चाहिए. अफ़सोस सरकार सच स्वीकार करने को तैयार नहीं है क्यूंकि इससे उसके एजेंडे पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है, और अपने आर्थिक विकास के एजेंडे को आगे बढाने के लिए वह 8 करोड़ परिवारों को भूखे रखने को कमर कस चुकी है.
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